नेताजी का अध्यक्ष पद से इस्तीफा और कांग्रेस से निष्कासन
भारतीय मुक्ति संग्राम के शीर्ष नेताओं में से एक सुभाष चन्द्र बोस का जीवन देश के अन्य सभी नेताओं से रोमांचकारी माना जाता है। आज भी देश का प्रत्येक नागरिक उनके जीवन से जुड़ी हर घटना जानने को उत्सुक रहता है। आई.सी.एस की ऐश्वर्यपूर्ण नौकरी को ठोकर मारकर देश के लिए अपने जीवन को होम करने वाले नेताजी का रोमांच वहां से शुरू होता है जब उन्हें क्रमश: हरिपुरा (1938) तथा त्रिपुरी अधिवेशन (1939) में कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया। महात्मा गांधी के विरोध के बावजूद त्रिपुरी में नेताजी का कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना भारतीय इतिहास की एक असमान्य घटना थी। त्रिपुरी में गांधीजी की उदासीनता से निराश होकर तथा राष्ट्रीय आन्दोलन की एकता को कायम रखने के लिए सुभाषचन्द्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
इसके बाद 3 मई 1939 को सुभाष चन्द्र बोस ने ‘आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक’ नाम से एक नई पार्टी का गठन कर लिया। लिहाजा अगस्त 1939 में नेताजी को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी तथा बंगाल कांग्रेस कमेटी से हटा दिया गया। इतना ही नहीं उन्हें कांग्रेस के सभी पदों से तीन वर्षों के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।
ऐसे में सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी नई पार्टी ‘आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक’ की गतिविधियों को तेज करने के लिए ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। अपने आन्दोलन को धार देने के लिए नेताजी ने देशव्यापी दौरा भी किया। ‘हॉलवेल मूवमेंट’ में सक्रिय भागीदारी के लिए डिप्टी कमिश्नर जॉन ब्रिन ने नेताजी को 2 जुलाई 1940 को कैद कर प्रेसिडेंसी जेल भेज दिया। जेल में नेताजी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया जिससे उनकी तबियत बिगड़ने लगी। जॉन ब्रिन ने नेता जी को इस शर्त पर रिहा किया कि उनकी तबियत ठीक होते ही उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया जाएगा। नेताजी को 26 जनवरी 1941 को ब्रिटिश न्यायालय में पेश होने का आदेश था।
कोलकाता से अफगानिस्तान का सफर
चूंकि सुभाष चन्द्र बोस भारत को अंग्रेजी राज्य से मुक्ति दिलाने के लिए जर्मनी से मदद लेना चाहते थे, जो कोलकाता की जेल में कैद रहने से सम्भव नहीं था, अत: जेल से रिहा होने के बाद नेताजी जैसे ही एल्गिन रोड स्थित अपने आवास पहुंचे उन्होंने देश छोड़ने का निर्णय ले लिया।
एल्गिन रोड स्थित अपने आवास पर नजरबंद सुभाष चन्द्र बोस 16- 17 जनवरी की रात वेश बदलकर तकरीबन एक बजे अपनी 1937 मॉडल बेबी अस्टिन कार संख्या- बी एल ए 7169 से रवाना हो गए और झारखंड के गोमोह रेलवे स्टेशन पहुंचे। वहां से कालका मेल के जरिए वह दिल्ली पहुंचे। इसके बाद फ़्रंटियर मेल पकड़कर सीधे पेशावर पहुंच गए। इसके बाद पेशावर के रास्ते 27-28 जनवरी की रात वह अफ़ग़ानिस्तान के एक गांव में दाखिल हुए।
मास्को से जर्मनी होते हुए जापान पहुंचना
इसके बाद जलालाबाद, काबुल होते हुए उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पार की और समरकंद पहुँचे। समरकन्द से ट्रेन पकड़कर वे मास्को के लिए रवाना हुए फिर वहाँ से जर्मनी की राजधानी बर्लिन का रुख़ किया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने जर्मनी पहुंचकर 29 मई 1942 को तानाशाह हिटलर से मुलाकात की लेकिन पहली मुलाकात में ही नेताजी को यह पता चल गया कि हिटलर ब्रिटेन के शिकंजे से भारत की मुक्ति नहीं चाहता है। इसलिए नेताजी ने बड़ी चतुराई से इस मुलाकात के लिए हिटलर को धन्यवाद दिया और उसकी मदद से पनडुब्बी के जरिए तीन माह बाद जापान पहुंच गए।
7 जुलाई 1943 को रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान सौंपते हुए उन्हें आई.एन.ए. का सर्वोच्च कमांडर घोषित कर दिया। इसके बाद नेता जी ने सिंगापुर के टाउन हाल के सामने बतौर सैन्य कमांडर सेना को सम्बोधित करते हुए "दिल्ली चलो" का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया।
21 अक्टूबर 1943 को बोस ने आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई जिसे जापान, फ़िलीपीन्स, जर्मनी, कोरिया, चीन, मान्चुको, इटली और आयरलैंड सहित 11 देशों की सरकारों ने मान्यता दी थी। 6 नवम्बर 1943 को जापान ने अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह इस अस्थायी सरकार को दे दिए। सुभाषचन्द्र बोस ने इन द्वीपों का नाम क्रमश: शहीद और स्वराजद्वीप रखा।
जापानी सेना तथा आजाद हिंद फौज का आत्मसमर्पण
18 मार्च 1944 को आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना के नेतृत्व में अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। भारत को आजाद कराने के उद्देश्य से नेताजी के सैनिकों ने वर्मा को पारकर कोहिमा और नागालैण्ड पर घेरा डाल दिया और यह घेरा तकरीबन एक वर्ष तक चला लेकिन मई 1945 में ब्रिटिश सेना के रंगून पर अधिकार करते ही आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को जापानी सेना के साथ आत्मसमर्पण करना पड़ा।
तथाकथित विमान दुर्घटना में नेताजी की मौत
ऐसा कहा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान के ताइकु हवाई अड्डे पर हुई विमान दुर्घटना में सुभाष चन्द्र बोस की मौत हो गई। बताया जाता है कि एयरक्राफ्ट हादसे के बाद सुभाष चंद्र बोस थर्ड डिग्री बर्न के शिकार हो गए और रात को करीब नौ से दस बजे के बीच कोमा में चले गए और फिर उनकी मृत्यु हो गई। हांलाकि अभी तक नेताजी की मृत्यु से जुड़ा कोई भी स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिला है। इसी के साथ यह भी दावे किए जाते हैं कि नेताजी के निधन के कुछ घंटों के भीतर कोई विमान हादसा नहीं हुआ था।
उपरोक्त तथ्यों को इस आधार पर भी मजबूती मिलती है क्योंकि एनडीए सरकार ने नेताजी से जुड़ी जिन फाइलों को सार्वजनिक किया है उनमें से एक फाइल में इस बात का उल्लेख है कि 18 अगस्त 1945 के बाद भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने तीन रेडियो ब्रॉडकास्ट किए थे। जबकि इसी दिन सुभाष चन्द्र बोस की हवाई दुर्घटना में मौत की बात सामने आती है।
भारतीय इतिहास में यह दावा किया जाता है कि नेताजी की अस्थियां जापान के रैंकोजी में मंदिर में सुरक्षित हैं। सुभाष चन्द्र बोस की बेटी अनीता बोस ने भी रेंकोजी मंदिर में संरक्षित अस्थियों के डीएनए टेस्ट के लिए भारत सरकार से याचिका दायर की थी बावजूद इसके आज तक किसी भी भारतीय सरकार ने तथाकथित नेताजी की अस्थियों का डीएनए टेस्ट करवाने की हिम्मत नहीं उठाई। ऐसे में आजादी के बाद नेताजी से जुड़ी कुछ ऐसी रोमांचकारी घटनाएं भी सामने आईं जो उनकी मौत को और भी रहस्यमयी बना देती हैं।
सुभाष चन्द्र बोस से जुड़े तीन हैरतअंगेज दावे
1- क्या विजयलक्ष्मी पंडित ने नेताजी को रूस में देखा था?
पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित साल 1937 में संयुक्त प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) की प्रांतीय विधानसभा के लिए निर्वाचित हुईं, इसके बाद उन्हें स्थानीय स्वशासन और सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। 1947 तक वह इसी पद पर रहीं। श्रीमती पंडित 1946-50 तक भारतीय संविधान सभा की सदस्य भी रहीं। साल 1953 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित करने वाली विजयलक्ष्मी पंडित कालान्तर में राज्यपाल तथा राजदूत जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहीं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू से उम्र में 11 साल छोटी विजय लक्ष्मी पंडित साल 1947 से 1949 तक रूस में भारतीय राजदूत के पद पर कार्यरत रहीं। भारत लौटने के बाद विजय लक्ष्मी पंडित ने बयान दिया था कि “मेरे पास एक ऐसी खबर है जो भारत में तहलका मचा सकती है, यह खबर भारत की आजादी से भी बड़ी है।” कहा जाता है कि यह खबर सुभाष चन्द्र बोस से जुड़ी थी लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरू इसे बताने से विजय लक्ष्मी पंडित को रोक दिया था।
मास्को में रामकृष्ण मिशन के प्रमुख रहे स्वामी ज्योतिरानंद ने साल 2013 में टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए गए साक्षात्कार में यह दावा किया था कि विजयलक्ष्मी पंडित जब सोवियत संघ रूस में भारत की पहली राजदूत बनकर आईं थीं तब उन्होंने जेल में सुभाष चंद्र बोस को देखा था। ऐसा माना जाता है कि विजय लक्ष्मी पंडित ने इस बात की जानकारी तत्कालीन सरकार को दी थी, लेकिन इस मामले में कोई भी कार्रवाई नहीं की गई।
जाधवपुर यूनिवर्सिटी में रूसी भाषा की प्रोफेसर पूरबी राय अपनी किताब ‘द सर्च ऑफ नेताजी : न्यू फाइंडिंग्स’ में लिखती हैं कि “रूसी इंस्टीट्यूट ऑफ ओरिएंटल स्टडीज के सहयोगी जनरल अलेक्जेंडर कोलेशनिकोव से बातचीत के दौरान यह पता चला था कि कोलेशनिकोव ने 1947 में पोलित ब्यूरो मीटिंग की एक फाइल देखी थी जिसमें मोलोतोव, मिकोयान, वोरोशिलोव और अन्य रूसी नेताओं के बीच इस बात की चर्चा की गई थी कि सुभाषचन्द्र बोस को रूस में रहने की इजाजत दी जाए अथवा नहीं। ऐसे में मिलेनियम पोस्ट अखबार से बातचीत के दौरान पूरबी राय ने कहा था कि वह इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि नेताजी निश्चित रूप से रूस पहुंचे थे और सम्भवत: वहीं उनका निधन हुआ। ऐसा कहा जाता है कि 1950 में उन्हें जोसेफ स्टालिन ने मार दिया था। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि विजयलक्ष्मी पंडित ने नेताजी को रूस में जीवित देखा था, फिर उन्होंने भारत आकर इस बात को सार्वजनिक क्यों नहीं किया जबकि वह 1990 तक जीवित रहीं।
2- लाल बहादुर शास्त्री के साथ नेताजी की मौजूदगी का दावा
दोस्तों, आपको बता दें कि 1965 के युद्ध में पाकिस्तानी की करारी शिकस्त के बाद भी युद्ध की झड़पें बन्द नहीं हो रही थीं। इस मसले को सुलझाने के लिए सोवियत संघ की मध्यस्थता में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री अयूब खान के बीच 11 जनवरी 1966 ई. को ताशकन्द में एक समझौता हुआ, जो विश्व इतिहास में ताशकंद समझौता के नाम से विख्यात है। ताशकन्द समझौते के महज 12 घंटे के भीतर ही शास्त्रीजी की मौत हो गई थी। ऐसा कहा जाता है कि शास्त्रीजी की मौत हार्ट अटैक से हुई थी लेकिन मौत के बाद शास्त्रीजी का शरीर नीला पड़ गया था जिससे कुछ लोगों ने आशंका जताई थी कि शायद उनके खाने में जहर मिला दिया गया था।
ताशकन्द समझौते के दौरान लाल बहादुर शास्त्री की एक तस्वीर उम्मीद से ज्यादा वायरल हुई क्योंकि इस तस्वीर में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौजूदगी का दावा किया जाता है। जी हां, आप चौंक गए होंगे। दरअसल फेस मैपिंग टेक्नोलॉजी के जरिए इस तस्वीर को लेकर यह दावा किया गया है कि 1966 में ताशकंद समझौते के दौरान लाल बहादुर शास्त्री के साथ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी मौजूद थे।
टाइम्स इंडिया में प्रकाशित खबर के अनुसार, इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस और ब्रिटेन हाईकोर्ट में नील मिलर ने इस तस्वीर के सम्बन्ध में जो एक्सपर्ट ओपनियन रखा है, उसके मुताबिक जिस व्यक्ति की फेस मैपिंग की गई है उसमें नेता जी सुभाष चंद्र बोस और वो आदमी दोनों एक ही हैं।
नील मिलर के अनुसार, तस्वीर में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ जो व्यक्ति मौजूद है उसका चेहरा, कान, नाक, होंठ, दाड़ी और माथे में काफी समानताएं हैं। रिपोर्ट में यह कहा गया है कि ताशकंद में खींची गई इस तस्वीर में दिख रहे व्यक्ति और नेताजी के चेहरे में काफी समानताएं हैं। रिपोर्ट में इस बात की भी तस्दीक की गई है कि यदि पिक्चर क्वालिटी और भी बेहतर होती तो यह दावे के साथ कहा जा सकता था कि लाल बहादुर शास्त्री के साथ दिखने वाला शख्स नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ही हैं।
लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र संजयनाथ सिंह का बयान भी काफी सुर्खियों में रह चुका है। मीडिया को दिए बयान में उन्होंने कहा था कि “शास्त्री जी ने अपनी मौत से एक घंटे पहले किसी से बात की थी और कहा था कि भारत आकर एक ऐसी बात का खुलासा करेंगे जिसे विपक्षी शेष बातें भूल जाएंगे।”
3- क्या गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी ही थे सुभाष चन्द्र बोस ?
सत्तर के दशक में गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में आए थे। गुमनामी बाबा कहां से आए थे, इसकी सटीक जानकारी अभी तक किसी को नहीं पता है। हां, इतना अवश्य है कि फैजाबाद के सिविल लाइंस स्थित ‘राम भवन’ में रहने वाले गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी की पहचान ज्यादातर लोग सुभाष चन्द्र बोस के रूप में करते हैं।
साल 1985, तारीख 16 सितम्बर को गुमनामी बाबा की मौत हो गई। इसके बाद उनका दाह संस्कार बेहद गोपनीय तरीके से फौज व प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों की मौजूदगी में गुफ्तार घाट के कंपनी गार्डेन के पास किया गया जहां उनकी समाधि भी बनी है। गुमनामी बाबा कोई न कोई बड़ी शख्सियत थे क्योंकि इस सैन्य संरक्षित क्षेत्र में आज तक किसी का भी अंतिम संस्कार नहीं हुआ।
गुमनामी बाबा की रहस्यमयी जिंदगी
स्थानीय लोगों के मुताबिक, बतौर किराएदार गुमनामी बाबा सबसे पहले अयोध्या की ‘लाल कोठी’ में रहे। इसके बाद वे बस्ती रहने चले गए लेकिन वहां कुछ दिन रहने के पश्चात पुन: अयोध्या वापस आ गए। बताते हैं कि गुमनामी बाबा ने कुछ वर्षों तक रामकिशोर पंडा के घर भी अपना समय व्यतीत किया। इसके बाद उन्होंने अपना ठिकाना बदल लिया और अयोध्या सब्जी मंडी स्थित ‘लखनऊवा हाता’ में रहने लगे। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वह फैजाबाद स्थित ‘राम भवन’ के पिछवाड़े वाले दो कमरों में रहने लगे। स्थानीय लोगों का कहना है कि गुमनामी बाबा से हर कोई नहीं मिल सकता था। दुर्गापूजा के अवसर पर या फिर 23 जनवरी (सुभाष चन्द्र बोस जयंती) को कुछ लोग गुमनामी बाबा से मिलने आते थे।
‘राम भवन’ के मालिक शक्ति सिंह का सनसनीखेज बयान
राम भवन के मालिक शक्ति सिंह का कहना है कि गुमनामी बाबा 3 साल (1982-85) तक ‘राम भवन’ में रहे लेकिन मैं कभी उन्हें ठीक ढंग से देख नहीं पाया। गुमनामी बाबा बांग्ला, हिन्दी, अंग्रेजी और जर्मन भाषा फर्राटेदार तरीके से बोलते थे। गुमनामी बाबा जब बीमार थे, तो कुछ लोग बेहद गोपनीय तरीके से उनसे मिलने आते थे। कुछ लोग तो रात में कार से उनसे मिलने आते थे और सुबह होने से पहले ही चले जाते थे।
सुभाष चन्द्र बोस से जुड़े लेटर और टेलीग्राम
गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी की मौत के बाद उनके कमरे से कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज मिले जिससे यह प्रश्नचिह्न खड़ा होता है कि सम्भवत: गुमनामी बाबा ही सुभाष चन्द्र बोस थे। गुमनामी बाबा के बक्से से कुछ ऐसे पत्र मिले जिसे नेताजी के परिजनों ने लिखा है। इसके बाद कुछ समाचार पत्र भी मिले जिनमें नेताजी से जुड़ी खबरें प्रकाशित हैं। कुछ ऐसे लेटर और टेलीग्राम भी हैं जिनमें आजाद हिंद फौज के कमांडर पवित्र मोहन राय सहित सुनील दास गुप्ता या सुनील कृष्ण गुप्ता के 23 जनवरी को या फिर दुर्गा पूजा में आने की बात लिखी गई है। पबित्र मोहन राय ने एक पत्र में गुमनामी बाबा को कभी स्वामी जी तो कभी भगवन जी कहा है।
कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज
— गुमनामी बाबा के कमरे से सुभाष चन्द्र बोस सहित उनके परिजनों की फैमिली फोटो मिली है। इस फोटो के उपरी पंक्ति में (बाएं से दाएं) सुधीरचंद्र बोस, शरतचंद्र बोस, सुनीलचंद्र और सुभाषचंद्र बोस हैं। जबकि बीच की लाइन में सुभाष चंद्र बोस के पिता जानकीनाथ बोस, मां प्रभावती देवी और तीन बहनें तथा पोते-पोतियां मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त भी कई अन्य फैमिली फोटो मिले हैं। इन तस्वीरों के सम्बन्ध में ‘राम भवन’ के मालिक शक्ति सिंह का कहना है कि सुभाष चन्द्र बोस के भाई सुरेशचंद्र बोस की बेटी ललिता 4 फरवरी 1986 को यहां आईं थीं और उन्होंने इन तस्वीरों की पहचान की थी।
— इन तस्वीरों के अतिरिक्त गुमनामी बाबा के बक्से से रोलेक्स, ओमेगा और क्रोनोमीटर की तीन घड़ियां, तीन सिगार केस, आजाद हिंद फौज की यूनीफार्म, रुद्राक्ष की कुछ मालाएं तथा एक गोल फ्रेम वाला वैसा ही चश्मा भी मिला है जैसा सुभाष चन्द्र बोस पहना करते थे। बता दें कि ठीक वैसी ही रोलेक्स घड़ी सुभाष चन्द्र बोस हमेशा अपनी जेब में रखा करते थे। इसके अतिरिक्त बक्से में पड़े एक झोले से अंग्रेजी तथा बांग्ला भाषा में प्रकाशित 8-10 साहित्यिक किताबें भी मिलीं हैं।
चर्चित किताब ‘कॉनन्ड्रम : सुभाष बोसेज़ लाइफ आफ्टर डेथ’
मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक भगवनजी यानी गुमनामी बाबा और नेताजी सुभाषचंद्र बोस में काफी समानताएं थीं। जबकि विष्णु सहाय (रिटायर्ड जस्टिस) आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि गुमनामी बाबा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस नहीं थे। साल 2019 में प्रकाशित चंद्रचूड़ घोष और अनुज धर की चर्चित किताब ‘कॉनन्ड्रम : सुभाष बोस लाइफ आफ्टर डेथ’ के मुताबिक विष्णु सहाय आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया जाना चाहिए क्योंकि यह आयोग मुख्य उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दस्तावेजों, प्रत्यक्षदर्शियों तथा फोरेंसिक साक्ष्य को अपना आधार नहीं बनाया। घोष और धर का कहना है कि गुमनामी बाबा जबतक जीवित रहे, उन्होंने तत्कालीन आरएसएस प्रमुख सहित नेताजी के सहयोगियों तथा अन्य लोगों से सम्पर्क बनाए रखा।
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