
18वीं शताब्दी में यूरोपीय समाज एक प्रगतिशील समाज में परिवर्तित हो चुका था, जबकि इसके विपरीत भारत अपने अन्धविश्वास तथा कुरीतियों के कारण एक निश्चल, रूढ़िवादी एवं जर्जर समाज का चित्र प्रस्तुत करता था। यद्यपि 19वीं शताब्दी में भारतीय समाज के नवनिर्माण एवं धार्मिक विचारों को तर्कसंगत बनाने के लिए सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों का दौर प्रारम्भ हुआ।
सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आन्दोलनों के दौर में भारत के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हें ही ‘राष्ट्रीय चेतना का पथ प्रदर्शक’ तथा ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ माना जाता है। देश में धर्म सुधार का प्रारम्भ बंगाल से हुआ और इस आन्दोलन का नेतृत्व सर्वप्रथम राजा राममोहन राय ने किया।
राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज
राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.) को ‘भारतीय पुनर्जागरण का प्रभात तारा’(morning star), ‘भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’, ‘बंगाल में नव-जागरण का पितामह’ तथा ‘सुधार आन्दोलनों का प्रवर्तक’ कहा जाता है। उनका जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के हुगली जिले में राधानगर नामक गांव में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रेन्च, लैटिन, ग्रीक तथा हिब्रू जैसी भाषाओं के जानकार राजा राममोहन राय इस्लाम के एकेश्वरवाद, सूफीमत के रहस्यवाद, ईसाई धर्म के नीतिशास्त्र तथा पश्चिम के उदारवादी बुद्धिवाद से प्रभावित थे।
पटना तथा वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने के बाद राजा राममोहन राय ने दस वर्ष तक ईस्ट इंडिया कम्पनी में जॉन डिग्बी के अधीन भी कार्य किया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, जातिवाद आदि का जमकर विरोध किया। जबकि विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया। राममोहन राय ने पूर्व और पश्चिम के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया।
— राजा राममोहन राय ने अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए साल 1809 में फारसी भाषा में ‘तुहफात-उल-मुवाहिदीन’ (एकेश्वरवादियों का उपहार) प्रकाशित की। यह मूर्ति पूजा के विरूद्ध एक लेख है।
— राजा राममोहन राय 1814 ई. में कलकत्ता में रहने लगे, जहां अपने युवा समर्थकों की मदद से हिन्दू धर्म में एकेश्वर मत के प्रचार हेतु 1815 ई. में ‘आत्मीय सभा’ का गठन किया जिसमें द्वारिकानाथ ठाकुर भी शामिल थे।
— राजा राममोहन राय ने 20 अगस्त 1828 ई. को कलकत्ता में ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। राजा राममोहन राय का ‘ब्रह्म समाज’ उनके द्वारा पूर्व में गठित ‘आत्मीय सभा’ का ही रूपान्तरण था।
— आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा से प्रभावित ‘ब्रह्म समाज’ हिन्दू धर्म में पहला सुधार आन्दोलन था। ब्रह्म समाज का प्राथमिक उद्देश्य हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराईयों का खण्डन कर एकेश्वरवाद का प्रचार-प्रसार करना था। हांलाकि ब्रह्म समाज का प्रभाव उच्च वर्ग के शिक्षितों तक ही सीमित रहा। मध्यम वर्ग इसकी तरफ आकर्षित नहीं हुआ।
— मानववाद तथा विश्वबन्धुत्व में प्रबल आस्था रखने वाले राजा राममोहन राय का स्वतंत्रता के बारे में मत था कि भारत को तत्काल स्वतंत्र न करके भारतीयों को प्रशासन में हिस्सेदारी देनी चाहिए, एक तरह से वह ब्रिटिश शासन के समर्थक थे।
— राजा राममोहन राय पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक थे, उन्होंने कहा कि “प्राच्य शिक्षा प्रणाली से देश कूप-मण्डूक ही बना रहेगा।”
— राजा राममोहन राय ने साल 1819 में मद्रास के विद्वान सुब्रह्मण्यम शास्त्री को मूर्ति पूजा के प्रश्न पर हुए शास्त्रार्थ में पराजित किया।
— राजा राममोहन राय की पुस्तक ‘ईसा के नीति वचन-शांति और खुशहाली’, हिन्दू उत्तराधिकार नियम तथा ‘प्रीसेप्ट्स आफ जीसस’ का प्रकाशन क्रमश: 1820, 1822 तथा 1823 ई. में हुआ।
— साल 1817 में कलकत्ता में ‘हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना में राजा राममोहन राय ने डेविड हेयर की खूब मदद की थी।
— राजा राममोहन राय ने 1825 ई. में ‘वेन्दान्त कॉलेज’ व ‘वेदान्त सोसाइटी’ की स्थापना की। साल 1821 में राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में ‘यूनिटेरियन कमेटी’ का गठन किया।
— राजा राममोहन राय ने 1821 ई. में बांग्ला साप्ताहिक ‘संवाद कौमुदी’ अथवा ‘प्रज्ञा का चांद’ का प्रकाशन शुरू किया। ‘संवाद कौमुदी’ किसी भी भारतीय द्वारा प्रकाशित प्रथम भारतीय समाचार पत्र था। जबकि 1822 ई. में फारसी साप्ताहिक ‘मिरातुल अखबार’ था जिसमें राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं प्रकाशित होती थीं।
— राजा राममोहन राय ने उपनिषदों का बांग्ला में अनुवाद किया तथा सामाजिक - धार्मिक कुरीतियों का विरोध करने के लिए 1822 ई. में ‘चन्द्रिका’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।
— राजा राममोहन राय के प्रयासों से ही गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक ने 4 दिसम्बर 1829 को अधिनियम -17 पारित करके सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
— राजा राममोहन राय ने शासकीय भाषा के लिए फारसी की जगह अंग्रेजी भाषा का समर्थन किया था ताकि लोगों में नवजागरण आ सके।
— मुगल बादशाह अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की थी। बादशाह अकबर द्वितीय ने ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में अपनी पेन्शन बढ़ाने की बातचीत के लिए राजा राममोहन राय को 1830 ई. में इंग्लैण्ड भेजा था।
— राजा राममोहन राय के पिता रमाकांत राय को भी बंगाल के नवाब से ‘राय रायां’ की उपाधि मिली थी।
— राजा राममोहन राय ऐसे पहले भारतीय एवं ब्राह्मण थे, जिन्होंने समुद्र पारकर यूरोप की धरती (इंग्लैण्ड तथा फ़्रांस की यात्रा) पर कदम रखा और हिन्दू रूढ़िवाद के उस मत को तोड़ा कि समुद्र यात्रा करना पाप है।
— राजा राममोहन राय आजीवन हिन्दू ही रहे और यज्ञोपवीत पहनते रहे किन्तु 1833 ई. में 27 सितम्बर को ब्रिस्टल में उनकी अकाल मृत्यु हो गई। ब्रिस्टल में ही राजा राममोहन राय की समाधि है, जिस पर विग्रहराज चतुर्थ द्वारा रचित ‘हरिकेलि’ नाटक का अंकन भी है।
— नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि दी।
— राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज का संचालन द्वारकानाथ टैगोर और पंडित रामचन्द्र विद्या वागीश ने किया। द्वारकानाथ टैगोर के तत्पश्चात उनके पुत्र देवेन्द्र नाथ टैगोर (रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता) ने ब्रह्म समाज का संचालन अपने हाथों में ले लिया।
— देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 1839 ई. में ‘तत्वबोधिनी सभा’ तत्पश्चात 1840 ई. में ‘तत्वबोधिनी स्कूल’ की स्थापना की। तत्वबोधिनी स्कूल के सदस्य थे- राजेन्द्र लाल मित्र, ईश्वचन्द्र विद्यासागर, ताराचन्द्र चक्रवर्ती तथा प्यारे चन्द्र मित्र।
— ब्रह्म समाज के सदस्य केशवचन्द्र सेन ने ‘सत्संग सभा’, ‘भारतीय सुधार समाज’, ‘नवविधान समाज’, ‘ब्रह्म प्रतिनिधि सभा’ आदि की स्थापना की। 1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने प्रथम भारतीय दैनिक ‘इंडियन मिरर’ का सम्पादन किया।
— देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 1862 ई. में केशवचन्द्र सेन को ‘ब्रह्म समाज’ का आचार्य नियुक्त किया। केशवचन्द्र सेन की वाकपटुता तथा उदारवादी विचारों ने इस आन्दोलन को लोकप्रिय बना दिया और शीघ्र ही बंगाल के अतिरिक्त इसकी शाखाएं उत्तर प्रदेश, पंजाब, मद्रास में खोल दी गई।
— 1865 ई. में देवेन्द्रनाथ से मतभेद होने पर केशवचन्द्र सेन को संगठन के साथ-साथ आचार्य पद से भी निष्कासित कर दिया गया। साल 1865 में ब्रह्म समाज का पहला विभाजन हुआ। देवेन्द्रनाथ टैगोर वाले समूह ने स्वयं को ‘आदि ब्रह्म समाज’ कहा।
— देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ‘आदि ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। आदि ब्रह्म समाज का नारा था ‘ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है’। हांलाकि केशवचन्द्र सेन के विचार देवेन्द्र टैगोर के सुधारों तथा विचारों से ज्यादा क्रांतिकारी थे। केशवचन्द्र सेन ने स्त्री शिक्षा के लिए ‘इंडियन रिफॉर्म एसोसिएशन’ की स्थापना की।
— केशवचन्द्र सेन ने सर्वप्रथम ‘संगत सभा’ की स्थापना की। तत्पश्चात उनके प्रयासों से ही मद्रास में ‘वेद समाज’ तथा महाराष्ट्र में ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना हुई। 1872 ई. में केशवचन्द्र सेन ने ही अंग्रेजी सरकार से ‘ब्रह्म विवाह अधिनियम’ पारित करवाया। इसे ‘अन्तर्जातीय तथा विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ भी कहा जाता है।
— केशवचन्द्र सेन ने साल 1866 में ब्रह्म समाज से अलग होकर ‘भारतीय ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। चूंकि 1878 ई. में केशवचन्द्र सेन ने अपनी 13वर्षीय पुत्री का विवाह कूचविहार के अल्पवयस्क राजा से कर दिया, यह ब्रह्म विवाह अधिनियम का उल्लंघन था। जिसके चलते ‘भारतीय ब्रह्म समाज’ का 1878 ई. में विभाजन हो गया। तत्पश्चात शिवनाथ शास्त्री, आनन्द मोहन बोस आदि ने मिलकर ‘साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की।
— आनन्द मोहन बोस के सिद्धान्तों पर स्थापित ‘साधारण ब्रह्म समाज’ के सदस्य थे- आनन्द मोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल, द्वारकानाथ गांगुली, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि।
— साधारण ब्रह्म समाज का उद्देश्य जाति प्रथा, मूर्ति पूजा का विरोध तथा नारी मुक्ति का समर्थन करना था। इसके अतिरिक्त साधारण ब्रह्म समाज जनसामान्य के कल्याण, नारी शिक्षा, अकाल राहत कोष, अनाथालयों के स्थापना की दिशा में भी प्रयासरत था।
— आनन्द मोहन बोस ‘साधारण ब्रह्म समाज’ के प्रथम अध्यक्ष थे। जनसाधारण को शिक्षित करने के लिए साधारण ब्रह्म समाज ने ‘तत्व कौमुदी’, ‘ब्रह्म जनमत’, ‘इंडियन मैसेन्जर’, ‘संजीवनी’, ‘नव भारत’, ‘मॉडर्न रिव्यू’ तथा ‘प्रवेश’ जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया।
राजा राममोहन राय द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
1. तुहफात-उल-मुवाहिदीन (एकेश्वरवादियों का उपहार) 2. ईसा के नीति वचन-शांति और खुशहाली (1820 ई.) 3. हिन्दू उत्तराधिकारी नियम (1822 ई.) 4. प्रीसेप्ट्स आफ जीसस (1823 ई.) 5. ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन 6. संवाद कौमुदी (बंगाली भाषा में) 7. प्रज्ञाचांद (बंगाली भाषा में) 8. मिरातुल अखबार (फारसी भाषा में) 9. बुद्धि दर्पण (फारसी भाषा में)
विशेष — ‘संवाद कौमुदी’ किसी भारतीय द्वारा संचालित, सम्पादित तथा प्रकाशित प्रथम भारतीय समाचार पत्र था।
भारतीय पुनर्जागरण में ‘ब्रह्म समाज’ की भूमिका
राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने भारतीय पुनर्जागरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई धर्म से प्रभावित वह भारतीय जो हिन्दू धर्म से अपना बन्धन लगभग तोड़ चुका था, उसने ब्रह्म समाज में शरण ली।
ब्रह्म समाज ने अवतारवाद, बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा त्याग दी तथा वर्ण व्यवस्था की आलोचना की। हांलाकि कर्म सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म के विषय में अपना निश्चित मत प्रकट करके प्रत्येक ब्रह्म समाजी को मानने अथवा न मानने की अनुमति प्रदान की। ब्रह्म समाज का यह मानना था कि धर्मग्रन्थों को मानवीय अन्तरात्मा तथा तर्क के उपर नहीं माना जा सकता।
समाज सुधार के क्षेत्र में ब्रह्म समाज का हिन्दू धर्म पर प्रभाव हुआ। इन्होंने बहुत से अन्धविश्वासों तथा हठधर्म को अस्वीकार कर दिया। ब्रह्म समाज ने बहुविवाह, सती प्रथा, बाल विवाह तथा पर्दा प्रथा को समाप्त करने तथा स्त्री शिक्षा एवं विधवा विवाह के लिए सार्थक प्रयत्न किए। किन्तु जातिवाद तथा अस्पृश्यता को रोकने में वे अधिक सफल नहीं हुए।
निष्कर्षत: ब्रह्म समाज का प्रभाव शिक्षित वर्ग तक ही सीमित था। इसका दार्शनिक पक्ष अनपढ़ आदमी की समझ से बाहर था, अत: साधारण जनता इसे नहीं समझ सकी। ब्रह्म समाज का कार्यक्षेत्र भी मुख्यत: उच्च वर्गों तक ही सीमित रहा। सती प्रथा जैसी कुरीति ऊंची जातियों में ही व्याप्त थी जबकि नारी शिक्षा व मुक्ति नीची जाति के लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती थी।