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Confrontation with Gandhi in Tripuri session and Subhash Chandra Bose's resignation from Congress

त्रिपुरी अधिवेशन में महात्मा गांधी से टकराव और सुभाषचन्द्र बोस का कांग्रेस से इस्तीफा

नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जन्मतिथि 23 जनवरी, 1897 है। सुभाष के पिता जानकीनाथ बोस ए​क नामी वकील थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था। सुभाष बोस के कुल नौ भाई-बहन थे। ओडिशा के कटक में जन्मे नेताजी ने कलकत्ता के मशहूर प्रेसिडेंसी कॉलेज में एड​मिशन लिया था। प्रेसिडेन्सी कॉलेज में जब एक अंग्रेज टीचर ने एक छात्र के साथ दुर्व्यवहार किया तब नेताजी ने प्रधानाध्यापक से मिलकर मांग की कि वह टीचर अपने इस दुर्व्यवहार के लिए माफी मांगें। लिहाजा सुभाष बाबू को ही कॉलेज से निकाल दिया गया। इसके बाद नेताजी ने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से स्नातक किया और यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान प्राप्त किया।

​बता दें कि सुभाष चंद्र बोस ने जब लंदन में आईसीएस की परीक्षा दी तो वहां उन्हें मेरिट लिस्ट में चौथा स्थान मिला। चूंकि नेताजी के दिलो-दिमाग पर स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने गहरा प्रभाव डाला थाऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी नहीं कर पाए और 22 अप्रैल 1921 को इन्होंने त्यागपत्र दे दिया।

सुभाष चंद्र बोस ने जब आईसीएस का पद ठुकरा दिया तो उनके पिता बहुत नाराज हुए। उन्हें सुभाष के किए की वजह ही समझ में नहीं आ रही थी। पिता की हालत देखकर उनके बड़े भाई शरतचंद्र बोस ने सुभाष को एक खत लिखा और बताया कि उनके पिता इस फैसले से बहुत नाराज हैं। पत्र पढ़कर सुभाष असमंजस में पड़ गए। लौटती डाक से उन्होंने बड़े भाई को लिखा, ‘इंग्लैंड के राजा के लिए वफादारी की कसम खाना मेरे लिए मुश्किल था। मैं खुद को देश सेवा में लगाना चाहता था। मैं देश के लिए कठिनाइयां झेलने को तैयार हूंयहां तक कि अभावगरीबी और मां-पिता की नाखुशी तक सहने को तैयार हूं।

सिविल सेवा से इस्तीफा देने के बाद बोस भारत वापस आ गए। उन दिनों सुभाष बाबू के बड़े भाई शरत चंद्र बोस की गिनती कलकत्ता के एक धनी वकीलों तथा कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं में होती थी। ऐसे में सुभाष बाबू अपने बड़े भाई शरत चन्द्र बोस के साथ महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाले असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गए।

साल 1921 में  पं. जवाहर लाल नेहरूमोतीलाल नेहरूमहात्मा गाँधी अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ कांग्रेस के विशेष सत्र में भाग लेने कलकत्ता आए थे, उन दिनों सुभाष चन्द्र बोस अपने राजनीतिक गुरू देशबन्धु चितरंजन दास के साथ काम कर रहे थे।

बोस ने 1921 में ही चित्तरंजन दास की स्वराज पार्टी द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र 'फॉरवर्ड' के संपादन का कार्यभार संभाला। 1923 में बोस को अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष और साथ ही बंगाल राज्य कांग्रेस का सचिव चुना गया। वर्ष 1925 में क्रांतिकारी आंदोलनों से संबंधित होने के कारण उन्हें माण्डले कारागार में भेज दिया गया जहाँ वह तपेदिक की बीमारी से ग्रसित हो गए।

मशहूर इतिहासकार रुद्रांग्शु मुखर्जी अपनी किताब 'नेहरू एंड बोस पैरेलल लाइव्स' में लिखते हैं कि 1927 तक सुभाष चंद्र बोस भारतीय राजनीति में अपने पैर जमा चुके थे। इस दौरान वे ब्रिटिश भारतीय जेलों में अपनी पहली सज़ा भी काट चुके थे। हांलाकि कांग्रेस के कई अन्य प्रमुख नेता गाँधी के नेतृत्व को स्वीकार कर चुके थे लेकिन सुभाष बाबू अभी भी गांधी के असर में पूरी तरह से नहीं आए थे। वर्ष 1930 के दशक के मध्य में बोस ने यूरोप की यात्रा की। उन्होंने पहले शोध किया तत्पश्चात् द इंडियन स्ट्रगल नामक पुस्तक का पहला भाग लिखाजिसमें उन्होंने वर्ष 1920-1934 के दौरान होने वाले देश के सभी स्वतंत्रता आंदोलनों को कवर किया।

साल 1936 में महात्मा गांधी के कहने पर पं. जवाहरलाल नेहरू को लखनऊ में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष चुन लिया गया। जब दिसंबर, 1936 में फ़ैज़पुर कांग्रेस सम्मेलन में पं. नेहरू को दोबारा पार्टी अध्यक्ष चुनने का प्रस्ताव आया तो सरदार पटेल ने उनका ज़ोरदार विरोध किया।

सरदार वल्लभ भाई पटेल ने महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई को लिखे अपने पत्र में कहा कि पं. नेहरू एक सजे हुए दूल्हे के समान हैंजितनी भी लड़कियां देखेंसबसे शादी करने के लिए तैयार हैं। इतना ही नहीं पटेल ने यहां तक कहा कि यदि जवाहर लाल कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर बने रहते हैं तो उन्हें पार्टी की सदस्यता छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।

सन 1937 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए महात्मा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस का नाम सुझाया। बता दें कि जब तक जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष रहे तब सुभाष बोस या तो जेल में थे या विदेश में। साल 1938 में गुजरात के सूरत जिले के हरिपुरा गाँव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का हरिपुरा अधिवेशन, (51वां सत्र) आयोजित किया गया।

दरअसल हरिपुरा अधिवेशभारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। यह केवल गांधी और सुभाष के बीच का मुद्दा नहीं था बल्कि देश तथा कांग्रेस आगे चलकर किन नीतियों पर चलेगीइसका निर्णय था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में समाजवाद अथवा साम्यवाद के उदय ने हरिपुरा अधिवेशन को प्रभावित किया। क्योंकि पं. नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस दोनों ही समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे। 

उन दिनों महात्मा गांधी सक्रिय राजनीति से दूर रहकर हरिजन उत्थान के कार्यों में व्यस्त थेबावजूद इसके भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की हर गति​विधियों पर नजर बनाए हुए थे। चूंकि गांधी जी कांग्रेस में वामपंथी विचारधारा और हिसांत्मक विचारों से असहमत थे। बावजूद इसके सुभाष चन्द्र बोस के कार्यों से प्रभावित होकर गांधी ने 1938 में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता सुभाष बाबू को सौंप दी। बोस ने वर्ष 1938 (हरिपुरा) में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया। यह नीति गांधीवादी विचारों के अनुकूल नहीं थी।

चूंकि पं. जवाहर लाल नेहरू प्लानिंग कमेटी के अध्यक्ष थेप्लानिंग कमेटी के सदस्यों में बिड़लालाला श्रीराम और विश्वरैया आदि शामिल थे। रविन्द्रनाथ टैगोर की इच्छा थी कि सुभाष चन्द्र बोस एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष बने। ठीक इसके विपरीत महात्मा गांधी दोबारा सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के पक्ष में नहीं थे।

वर्ष 1939 में कांग्रेस के 52वें अधिवेशन के लिए जबलपुर में तिलवारा घाट के पास त्रिपुरी को चुना गया। यह पहला ऐसा अधिवेशन हुआजो किसी भवन के बजाय खुले स्थान में हुआ। इसकी तैयारियां कई महीने तक चली। इसके लिए पूरा एक नगर स्थापित किया गयाजिसका नाम विष्णुदत्त नगर था। एक नगर में जितनी सुख-सुविधाएं होनी चाहिएउतनी यहां जुटाई गई। चारों युगों का साक्षी रहा त्रिपुरी देश की आजादी के लिए भी महत्वपूर्ण साबित हुआ।

त्रिपुरी में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव हुआ। महात्मा गांधी के अधिकृत प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया थेजबकि उनके विरोध में नेताजी सुभाषचंद्र बोस मैदान में उतरे। गाँधी का विरोध होने के बावजूद सुभाष बोस की जीत हुई। उन्हें कुल 1580 मत मिले जबकि सीतारमैया सिर्फ़ 1377 लोगों का ही समर्थन ले पाए।

त्रिपुरी अधिवेशन के चुनाव परिणाम के बाद आए महात्मा गांधी के बयान ने एकबारगी सबको चौंका दिया। गाँधी ने कहाकि पट्टाभि सीतारमैया की हार मेरी हार है इतिहासकार रुद्रांग्शु मुखर्जी लिखते है कि महात्मा गांधी के इस बयान से सुभाष चन्द्र बोस को चोट पहुंची थी। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि कांग्रेस सदस्यों को गांधी के पक्ष या विपक्ष में वोट करने के लिए नहीं कहा गया था। सुभाष बाबू ने स्वीकार किया कि कुछ मौकों पर गांधी जी के साथ मेरे मतभेद रहे हैंबावजूद इसके मेरे अंदर उनके प्रति आदर-सम्मान में कोई कमी नहीं आई है। मेरी पूरी कोशिश यही रहेगी कि मैं भारत के इस महानतम व्यक्ति का विश्वास जीत सकूं।

चुनाव संपन्न हो जाने के बाद त्रिपुरी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि कार्यसमिति में सदस्यों की नियुक्ति गांधी जी की इच्छानुसार की जाएगीजो कांग्रेस अध्यक्ष को स्वीकार होगा। बावजूद इसके गांधी जी ने किसी भी सदस्य का नाम सुझाने से इनकार कर दिया। आखिरकार बाध्य होकर सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सुभाष चन्द्र बोस की जगह नया कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया।

इसके बाद 3 मई 1939 को सुभाष चन्द्र बोस ने आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक नाम से एक नई पार्टी का गठन कर लिया। लिहाजा अगस्त 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी तथा बंगाल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से सुभाष चन्द्र बोस को हटा दिया गया। इतना ही नहीं कांग्रेस के सभी पदों से उन्हें तीन वर्षों के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।