इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार, 26 अगस्त 1914 को बंगाल में क्रांतिकारियों को एक बड़ी सफलता मिली। कलकत्ता की रोडा फर्म से शिरीष चंद्र पाल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने दिन के उजाले में ही एक बड़ी लूट को अंजाम दिया था जिसमें उन्हें 50 माउजर सी96 तथा 46000 कारतूस प्राप्त हुए।
कोलकाता के व्यस्त इलाके बीबीडी बाग से क्रांतिकारियों ने इस आर्म्स डकैती को इतनी होशियारी से अंजाम दिया था कि ब्रिटिश अधिकारियों को इस घटना की खबर तीन दिन बाद लगी। आधुनिक भारत के इतिहास में इस लूट कांड को ‘रोडा आर्म्स डकैती’ (Rodda Arms Heist) के नाम से जाना जाता है। उस वक्त इस घटना को दैनिक अखबार स्टेट्समैन ने ‘ग्रेटेस्ट डेलाइट रॉबरी’ (दिनदहाड़े सबसे बड़ी डकैती) कहा था।
माउजर सी96 का क्रांतिकारियों में वितरण
रौलट रिपोर्ट (पृष्ठ संख्या-56) के मुताबिक, “50 माउजर सी96 में से 44 पिस्तौलें लगभग तुरंत ही बंगाल के 9 विभिन्न क्रांतिकारी समूहों को वितरित कर दी गईं थी।” यह सुनिश्चित है कि 1914 के बाद डकैती, हत्या अथवा डकैती-हत्या के प्रयास जैसे तकरीबन 54 घटनाओं में माउजर सी96 पिस्तौलों का इस्तेमाल किया गया था। हांलाकि बंगाल में कुछ अन्य क्रांतिकारी घटनाएं भी हुईं लेकिन इनमें रोडा फर्म से लूटी गई माउजर पिस्तौलें शामिल नहीं थीं। मन्मथनाथ गुप्ता ने अपनी किताब ‘They Lived Dangerously’ में इस बात का उल्लेख किया है कि “कैसे चन्द्रशेखर आजाद ने माउजर पिस्तौल चलाना सीखते समय गलती से उन्हें गोली मार दी थी”।
लेखक सत्येन्द्रनाथ गंगोपाध्याय के मुताबिक, 1930 के दशक में चटगांव हथियार डकैती में भी कम से कम एक माउजर का इस्तेमाल किया गया था। रासबिहारी बोस भी एक माउजर पिस्तौल अपने साथ रखते थे। गदर षडयंत्र के दौरान भी रोडा फर्म से लूटी गई माउज़र सी96 का ही इस्तेमाल किया गया था।
इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने वाली बात है कि भगत सिंह और चन्द्र शेखर आज़ाद के पास भी जर्मन माउज़र सी96 मौजूद थीं, हांलाकि अंतिम दिनों में इन दोनों के पास कोल्ट पिस्तौलें थीं। 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश सिपाहियों से मुठभेड़ के दौरान चन्द्रशेखर आजाद के हाथों में माउजर नहीं बल्कि कोल्ट पिस्टल थी जबकि कई फिल्मों तथा किताबों में नाटकपूर्ण तरीके से यह साबित करने की कोशिश की गई है कि उस वक्त चन्द्रशेखर आजाद के हाथों में माउजर था।
इतना ही नहीं, आपको यह भी याद दिला दें कि रामप्रसाद 'बिस्मिल', अशफाक उल्ला खाँ, शचीन्द्रनाथ बख्शी तथा चन्द्रशेखर आजाद ने महज़ 4 माउज़र पिस्तौलों के दम पर 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन के पास ‘आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर’ ट्रेन को रोककर सरकारी खजाना लूट लिया था।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह बात साबित होती है कि रास बिहारी बोस तथा बाघा जतिन से लेकर भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां सहित लगभग सभी क्रांतिकारियों ने अपने संघर्ष के दौरान रोडा फर्म से लूटी गई माउजर सी96 पिस्तौल का इस्तेमाल किया था।
रोडा आर्म्स डकैती की योजना
कलकत्ता के वैनसिटार्ट रो में स्थित रोडा फर्म में काम करने वाले कालिदास मुखर्जी ने क्रांतिकारियों के इशारे पर श्रीश मित्रा को नौकरी दिलवाई थी। श्रीश मित्रा ने रोडा एंड कंपनी में ‘जेट्टी क्लियरिंग क्लर्क’ के पद पर इतनी निष्ठा से काम किया था कि अगस्त 1913 से अगस्त 1914 के बीच उसने तकरीबन 40 बार कंपनी के माल को कस्टम्स हाउस से गोदाम तक पहुंचाया था। अत: क्रांतिकारियों के मुखबिर बने श्रीश मित्रा को जिस दिन 50 माउजर सी96 पिस्तौल और 46000 माउजर कारतूस के इडेंट ऑर्डर प्राप्त हुए, उसने तुरंत अनुकूलचंद्र मुखर्जी से उनके घर पर मुलाकात की। उसी रात अनुकूल चंन्द्र इस मामले पर प्राथमिक चर्चा करने के लिए श्रीश मित्रा को गिरींद्र नाथ के घर ले गए। अगले दिन सुबह हरीश सिकदर के घर पर एक और बैठक हुई, इसमें श्रीश पॉल के साथ हरीश सिकदर, अनुकूल चंद्र मुखर्जी और गिरींद्र नाथ बनर्जी समेत अन्य लोग भी शामिल थे।
इन क्रांतिकारियों की मूल योजना क्या थी, इस मुद्दे पर कुछ दावा नहीं किया जा सकता है लेकिन यह सुनिश्चित है कि श्रीश मित्रा ने रोडा फर्म के हथियारों से भरे स्टॉक को गायब करने के लिए डकैती की योजना पहले से बना रखी थी। 17 जून के आसपास मदन बराल लेन स्थित जिम्नाजियम में कई बैठकें हुईं। इसके बाद 15 जुलाई को मलंगा लेन में एक और बैठक हुई।
चूंकि 26 अगस्त 1914 को रोडा एंड कंपनी की तरफ से पिस्टल और कारतूस रिलीज होने थे। इससे कुछ दिन पहले रात 9 से 10 बजे के बीच अंतिम निर्णायक बैठक लालबाजार के पीछे ‘चाटावाला’ नाम की एक बेहद संकरी गली में हुई थी। इस अंतिम बैठक में युगान्तर पार्टी से नरेंद्र नाथ भट्टाचार्य, बारिसाल पार्टी से नरेन घोष, सुरेश चक्रवर्ती व मुक्ति संघ से श्रीश पाल, हरिदास दत्ता, खगेन दास तथा अटोम्मनाती समिति से जुगांतर पार्टी के अनुकूल मुखर्जी, श्रीश मित्रा उर्फ हाबू, बिमान घोष, जगतपति गुप्ता और आशुतोष रॉय शामिल हुए थे।
इस निर्णायक बैठक में श्रीश पाल ने प्रस्ताव रखते हुए वहां उपस्थित सदस्यों से कहा कि “श्रीश मित्रा उर्फ हाबू से मिली सूचना मुताबिक बहुत जल्द ही हथियारों की एक बड़ी खेप कलकत्ता के कस्टम हाउस में पहुंचेगी। इन हथियारों के साथ 50 माउजर पिस्तौल और 50 शोल्डर स्टॉक की खेप है जो पिस्तौल को कार्बाइन के रूप में इस्तेमाल करने में मदद करती है। साथ ही, ऐसी पिस्तौलों के अनुकूल 46000 कारतूस भी खेप में शामिल हैं। इन हथियारों को ब्रिटिश सरकार द्वारा बहुत जल्द ही तिब्बत पहुंचाए जाने की योजना है। उन्होंने आगे कहा कि अब तक मिली सूचना के मुताबिक इन हथियारों को जहाज से उतार दिया गया है और कस्टम विभाग से अनुमति मिलने का इंतजार किया जा रहा है। इसके तुरंत बाद ही इन हथियारों को वैनसिटार्ट रो स्थित रोडा एंड कंपनी के गोदाम में पहुंचाया जाएगा। अंत में श्रीश पाल ने यह प्रस्ताव रखा कि यदि हथियारों के इस जखीरे को रोडा फर्म तक पहुंचने से पहले रोक लिया जाए तो इन हथियारों को इस्तेमाल क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए किया जा सकता है।”
इसके बाद नरेंद्र नाथ भट्टाचार्य (बाघा जतिन के बेहद करीबी) और नरेन घोष ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए इनकार कर दिया कि डलहौजी स्क्वायर जैसे इलाके में इतनी बड़ी डकैती को अंजाम देना एक तरह का पागलपन होगा। नरेंद्र नाथ भट्टाचार्य और नरेन घोष की अस्वीकृति क्रांतिकारियों के लिए एक झटका थी बावजूद इसके श्रीश पाल सहित टीम के अन्य सदस्य इस योजना पर काम करने के लिए तैयार हो गए। योजना के मुताबिक डलहौजी चौराहे पर नियुक्त आईबी. पर निगरानी रखने का काम सुरेश चक्रवर्ती, जगतपति गुप्ता, बिमान घोष और आशुतोष रॉय को सौंपा गया। डकैती को अंजाम देने वाली टीम में स्वयं श्रीश पाल, हरिदास दत्ता और खगेन दास के साथ हाबू उर्फ श्रीश मित्रा शामिल थे।
बैलगाड़ी के जरिए चुराई गई थी हथियारों की बड़ी खेप
26 अगस्त, 1914 को सुबह 10 बजे श्रीश मित्रा ने अपने सीनियर मिस्टर प्रिक को हर बार की तरह रिपोर्ट किया। इसके बाद जब छह बैलगाड़ियां कस्टम हाउस से निकली तब आसमान में काले बादल छाए हुए थे, बीच-बीच में हल्की बारिश भी हो रही थी। योजना के मुताबिक, क्रांतिकारियों की सातवीं बैलगाड़ी को ऐसे टैग करना था जैसे कि वह बाकी गाड़ियों का हिस्सा हो। श्रीश मित्रा को इस सातवीं बैलगाड़ी पर ही माउजर पिस्तौल, शोल्डर स्टॉक और कारतूस की पूरी खेप अपलोड करनी थी।
ऐसे में कस्टम हाउस से निकलने के बाद छह बैलगाड़ियाँ लेन के अंदर रोडा एंड कंपनी के गोदाम की ओर चली गईं। श्रीश मित्रा भी इन गाड़ियों के साथ गोदाम की ओर चले गए। लेकिन हरिदास दत्त द्वारा संचालित सातवीं बैलगाड़ी वैनसिटार्ट की तरफ मुड़ने की बजाय सीधे निकल गई। हथियारों से लदी यह सातवीं बैलगाड़ी जब आयरनयार्ड पहुंची तब बारिश होने के कारण सड़क पर भी बहुत कम लोग दिख रहे थे। उस वक्त दिन के तीन बज रहे थे। आयरनयार्ड के सामने लकड़ी के बक्से उतारे गए जहां अनुकूल चंद्र मुखर्जी, बिपिन बिहारी गांगुली और अन्य सदस्य पहले से ही प्रतिक्षा कर रहे थे।
इसी बीच सातवीं बैलगाड़ी का पता लगाने के बहाने श्रीश मित्रा भी अपने कार्यालय से वापस मलंगा लेन की तरफ भागे और मलंगा लेन स्थित गिरिन्द नाथ बनर्जी के घर पहुंचे। ठीक उसी वक्त श्रीश पाल भी वहीं पहुंच गए। ये दोनों लोग वेश बदलकर सायं पांच बजे वाली दार्जिलिंग मेल से रंगपुर के लिए रवाना हो गए। पूर्व योजना के मुताबिक हथियारों के मलंगा लेन पहुंचते ही कुछ स्टील ट्रंक खरीदे गए तथा खेप बक्सों को कालिदास बसु की कार में लादकर भुजंग भूषण धर (प्रेसीडेंसी कॉलेज में एमएससी के छात्र) के घर पहुंचाया गया। इसके बाद प्रत्येक स्टील ट्रंक में 1000 कारतूस और तीन माउजर पिस्तौल भरकर क्रांतिकारियों के विभिन्न समूहों को पहुंचाया जाता था। खाली लकड़ी के बक्सों और पैकिंग कागजात रात में ही जला दिए गए ताकि अगले दिन अंग्रेजी पुलिस को कोई भी सुराग नहीं मिले।
गौरतलब है कि उन दिनों मारवाड़ियों को अराजनीतिक तथा ब्रिटिश सरकार के प्रति बेहद वफादार माना जाता था अत: हथियारों के इन बक्सों को हिंदू छात्रावास, लॉ कॉलेज के अतिरिक्त मारवाड़ी सहायक समिति के सदस्य हनुमान प्रसाद पोद्दार तथा ओंकारमल सराफ व प्रसिद्ध व्यवसायी जी.डी. बिड़ला के घर अस्थायी रूप से रखा गया था जिन्हें बाद में नियत स्थानों पर पहुंचा दिया गया।
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