विनायक दामोदर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ के पत्र ‘तलवार’ (जो पेरिस में प्रकाशित हुआ करता था) में एक लेख लिखा था कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए भारत एक बार पुन: उठे और पराधीनता से मुक्ति के लिए भारतीय जनता द्वारा किया जाने वाला स्वातन्त्र्य युद्ध यशस्वी हो, यही ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखे जाने का उद्देश्य है। वीर सावरकर ने 1907 ई. में जब अपने ग्रन्थ ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ की रचना मराठी भाषा में पूर्ण की, उस समय उनकी उम्र महज 23 साल थी। लन्दन में ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ (अभिनव भारत की ही एक शाखा) की बैठकों में विनायक दामोदर सावरकर अपने ग्रन्थ ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ के अध्यायों का अंग्रेजी अनुवाद करके अपने भाषणों के माध्यम से प्रस्तुत किया करते थे।
वीर सावरकर का महान ग्रन्थ क्रांति के दिनों में कितना प्रभावी और अमूल्य था, इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार ने इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने से पूर्व ही इसे प्रतिबन्धित कर दिया था, जो कि विश्व की एक अनुपम घटना थी। जब वीर सावरकर को यह बात पता चली तो उन्होंने ‘लन्दन टाइम्स’ में एक पत्र लिखकर अंग्रेजी सरकार की कटु आलोचना की थी।
जानकारी के लिए बता दें कि वीर सावरकर का यह महान ग्रन्थ 1857 की महाक्रांति से जुड़े समस्त महावीरों की रोमांचकारी गौरवगाथा से परिपूर्ण है। यही वजह है कि 1930-31 में सत्याग्रह के दिनों में इस ग्रन्थ के कतिपय अध्यायों की साइक्लोस्टाइल प्रतियां मुम्बई में बोरी बन्दर (वर्तमान में छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) पर ब्रिकी की गई थीं। चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने भी इस ग्रन्थ को गुप्त रूप से प्राप्त कर पढ़ा था। यहां तक कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने जब आजाद हिन्द फौज की कमान अपने हाथों में ली तब नेताजी के मलाया पहुंचने पर उन्हें इस महान ग्रन्थ की एक प्रति प्राप्त हो गई। नेताजी ने इस ग्रन्थ का पूर्ण उपयोग किया और उन्होंने ‘दिल्ली चलो’ का महान जयघोष भी इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड से लिया था।
विनायक दामोदर सावरकर के महान ग्रन्थ ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ के तृतीय खण्ड में महाक्रान्ति के जिन महावीरों का रोमांचकारी विवरण प्रस्तुत किया गया है, उनमें एक अध्याय रानी लक्ष्मीबाई का भी है। इस अध्याय में वीर सावरकर ने रानी लक्ष्मीबाई की दिनचर्या, वेशभूषा तथा मंदिर दर्शन के बारे में जो कुछ भी लिखा है, उसे पढ़कर आप चकित रह जाएंगे।
“मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी”
रानी लक्ष्मीबाई (मणिकर्णिका) का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ था। विवाह के पश्चात रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन दुर्भाग्यवश चार महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। कुछ समय बाद राजा गंगाधर राव ने एक पुत्र आंनद राव (दामोदर राव) को गोद लिया। विवाह के दो साल बाद बीमारी के कारण राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई, उस वक्त रानी लक्ष्मीबाई महज 25 वर्ष की थी।
इस मौके का फायदा उठाकर गर्वनर जनरल लार्ड डलहौजी ‘राज्य हड़प नीति’ (गोद निषेध सिद्धांत) के तहत झांसी को ब्रिटिश हुकूमत में मिलाने के लिए तत्पर हुआ। तब रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी बुलन्द आवाज में कहा- “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी”। रानी के इस हुंकार के बाद सम्पूर्ण बुन्देलखंड विशेषकर सागर, नौगांव, बांदा, बानापुर, शाहगढ़, कालपी में महाक्रान्ति की ज्वाला के लक्षण दिखने लगे। रानी लक्ष्मीबाई जिन दिनों झांसी के सिंहासन पर विराजमान होकर राज्य संचालन कर रही थी, उन दिनों रानी की दिनचर्या कुछ इस प्रकार से बताई गई है-
झांसी के राजमहल में रानी लक्ष्मीबाई की दिनचर्या
रानी लक्ष्मीबाई प्रात: पांच बजे जागकर इत्र से परिपूर्ण सुगन्धित जल से स्नान करती थीं। उसके बाद वस्त्र धारण करती थीं। साधारण तथा सफेद चंदेरी साड़ी पहनना रानी बेहद पसन्द करती थीं। तत्पश्चात पूजा पर बैठ जाती। विधवा होते हुए भी रानी लक्ष्मीबाई तुलसी वृन्दावन में तुलसी की पूजा करती। उसके बाद पार्थिव पूजा होती। दरबारी संगीतज्ञ साम गायन करते थे। फिर कथावाचक कथा सुनाते थे। कथावाचन की समाप्ति के बाद क्षेत्रीय सरदार वन्दना करते।
राज दरबार में संचालन के समय साढ़े सात सौ दरबारियों में जब कोई भी अनुपस्थित रहता तो दूसरे दिन रानी लक्ष्मीबाई अपनी तीक्ष्ण स्मरणशक्ति का परिचय देती हुई उसके अनुपस्थिति का कारण पूछती। पूजापाठ के बाद रानी सुबह का नाश्ता करती। यदि कोई विशेष काम नहीं होता था तो वह नाश्ते के बाद एक घंटे आराम करती थी।
उसके बाद रेशमी वस्त्रों से ढंके भेट में मिले उपहार जो चांदी के थालों में रखे होते थे, रानी के सामने पेश किये जाते थे। उनमें से पसन्द की वस्तुएं रानी स्वीकार करती थीं अन्यथा नौकरों में वितरण करने के लिए महल के कर्मचारियों को दी जाती।
राजदरबार में रानी की वेशभूषा
रानी लक्ष्मीबाई प्रतिदिन अपराह्न तीन बजे पुरुषवेश में दरबार में बैठती थीं। उस समय उनकी वेशभूषा कुछ इस प्रकार होती- पायजामा, गहरे नीले रंग की कोट, सिर पर टोपी और उस पर सुन्दर सी पगड़ी बांधती, साथ ही रत्नजटित तलवार धारण करती। इस वेश में वह साक्षात गौरी प्रतीत होती थीं।
पुरुष वेश के अतिरिक्त कभी-कभी स्त्री वेश के भी वस्त्र पहनती। विधवा होने के बाद सौभाग्य अलंकरण नथनी आदि वह धारण नहीं करती थीं। कलाई में हीरे की चूड़ियां, गले में मोतियों का हार और कनिष्ठा अंगुली में हीरे की अंगूठी रहती। बालों का जूड़ा बांधती साथ ही सफेद साड़ी और सफेद कंचुकी पहनती थीं। इस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई राजदरबार में कभी पुरुष अथवा कभी स्त्री वेश में बैठती।
दरबारी लोग उन्हें प्रत्यक्ष नहीं देख पाते थे। उनका कमरा अलग होता था, जिसका दरवाजा दरबार में खुलता था। सोने के बेलबूटों से सज्जित द्वार पर चिक पड़ी रहती थी। कमरे में मुलायम गद्दी पर तकिए के सहारे बैठती थीं। द्वार पर सोने-चांदी के आवरण में लिपटे दो दंड धारण किए दो दरबान खड़े रहते।
दीवान लक्ष्मणराव उस कमरे के सम्मुख महत्वपूर्ण कागजों को लेकर खड़े रहते और उनके पास दरबार का अमात्य (वित्त विभाग का प्रमुख) बैठता। बुद्धिमान रानी लक्ष्मीबाई के निर्णय स्पष्ट तथा संक्षिप्त और निश्चित रहते। वह कभी-कभी अपने हाथ से आज्ञाएं लिखतीं। न्याय के समय वे बहुत सावधान रहतीं। दीवानी तथा फौजदारी के निर्णय बड़ी योग्यता के साथ करती थीं।
महालक्ष्मी मंदिर के दर्शन
रानी लक्ष्मीबाई भक्तिभाव के साथ प्रत्येक मंगलवार तथा शुक्रवार के दिन कुल देवी महालक्ष्मी के दर्शन करने मंदिर जाती थीं। यह मंदिर एक तालाब के किनारे स्थित था। तालाब में सुन्दर कमल खिले रहते। मंदिर जाते समय रानी की शोभा देखते ही बनती थी, वह कभी पालकी में तो कभी घोड़े पर बैठकर जाती थीं।
पुरुष वेश में साफे का छोर पीठ पर लहराकर शोभा पाता था। उनके आगे राजध्वज मारू बाजे के साथ चलता था। इस ध्वज के पीछे तकरीबन 200 गोरे घुड़सवार रहते। रानी लक्ष्मीबाई के आगे-पीछे सौ-सौ घुड़वार चलते...कभी-कभी पूरी सेना जुलूस में रानी के साथ होती थी। रानी लक्ष्मीबाई के निकलते ही नगाड़ा और शहनाई बजने लगते।
पूजा-अर्चना करने के बाद रानी लक्ष्मीबाई अपने हाथों से लोगों को भोजन परोसती थी, इसके बाद गरीबों को कपड़े बाटती थीं। केवल रानी लक्ष्मीबाई ही नहीं वरन झांसी के आम नागरिक भी देवी महालक्ष्मी के परमभक्त थे। वर्तमान में झांसी का यह महालक्ष्मी मंदिर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है।
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