हमारे देश का प्रत्येक शहर अपनी एक खास मिठाई के लिए मशहूर है, जैसे- कोलकाता का रसगुल्ला और बंगाली खीर, मथुरा का पेंडा, आगरा का पेठा और जलेबी-रबड़ी, हाथरस का चमचम, बनारस की मलाईदार लस्सी, जौनपुर शहर की जलेबी और दादरी के कलाकंद बहुत फेमस हैं। ठीक वैसे ही डायमंड सिटी की एक खास मिठाई का नाम है घारी। जी हां, दोस्तों आप सूरत शहर घूमने आए हों और घारी खाना भूल गए, मतलब साफ है आपने कुछ भी नहीं खाया। जो लोग मिठाई खाने के शौकीन हैं, दावा है उन्हें ये मिठाई बहुत ज्यादा पसंद आएगी। सूरत की घारी मिठाई में ढेर सारा मावा, ड्राई फ्रूट्स, देशी घी और केसर मिलाया जाता है। यह मिठाई ज्यादातर त्यौहार के दिनों में ही बनाई जाती है।
हांलाकि सूरत की यह स्वादिष्ट मिठाई कब प्रचलन में आई, इसके बारे में अलग-अलग लोककथाएँ हैं। सूरत के स्थानीय लोगों के अनुसार, 1857 की महाक्रांन्ति से घारी का बेहद गहरा कनेक्शन है। हालाँकि यह महाक्रांति देश को आज़ाद कराने में सफल नहीं हुई, लेकिन इसने सूरत सहित पूरे देश को अतिस्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक मिठाई घारी का उपहार दिया।
इतिहास के मुताबिक, 1857 के महाक्रांन्ति की लपटों से गुजरात भी अछूता नहीं था। देश के अन्य प्रान्तों की तरह गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में विद्रोह की आग सुलग रही थी। इस दौरान महान क्रांतिकारी तात्या टोपे अपने सैनिकों के साथ सूरत पहुंचे थे। पतझड़ के मौसम के कारण तात्या टोपे और उनके साथ के क्रांतिकारियों का स्वास्थ्य ख़राब हो रहा था। ऐसे में सूरत के जाने-माने कंदोई (हलवाई) देवशंकर को स्वास्थ्यवर्धक मिठाइयाँ बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई। देवशंकर ने बहुत सोचा और शुद्ध घी में सूखे मेवों का उपयोग करके एक नई मिठाई बनाने का फैसला किया और इस मिठाई को घारी के नाम से जाना जाने लगा। इस प्रकार देवशंकर की बनाई घारी खाकर तात्या टोपे और उनके सैनिक शीघ्र स्वस्थ होने लगे। पतझड़ के मौसम में घारी उनके लिए टॉनिक बन गई।
त्यौहार 'चंदी पड़वा' के दिन घारी की विशेष डिमांड
त्यौहार 'चंदी पड़वा' के दिन यह परंपरा है कि सूरत के लोग केवल सफेद मिठाइयां खाते हैं और इसलिए घरों में दूध पोहा, खीर या घारी बनाई जाती है। संयोग से घारी मिठाई पूर्णिमा के चंद्रमा जैसी दिखती है। इसलिए सूरत के स्थनीय निवासियों में यह मिठाई सबसे लोकप्रिय है। त्यौहार 'चंदी पड़वा' से दो-तीन दिन पहले ही लोग घारी खरीदना शुरू कर देते हैं। एक अनुमान के मुताबिक सूरत शहरवासी तकरीबन 7 से 8 करोड़ रूपए के कीमत की घारी खरीदकर खा जाते हैं।
सूरती ‘घारी’ की वेरायटीज
घारी जितनी स्वादिष्ट होती है, इसे बनाने की विधि भी उतनी ही दिलचस्प होती है। घारी बनाने के लिए सूखे मेवे, शुद्ध घी, इलायची, मेथी आदि का उपयोग किया जाता है। अलग-अलग वैरायटी के हिसाब से इसमें इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों में मामूली बदलाव होते हैं लेकिन इसे बनाने की विधि एक ही होती है। सबसे पहले शाम को घारी की तैयारी की जाती है, इसमें पर्याप्त मात्रा में कच्चे बादाम, पिस्ता, केसर, इलायची आदि मिलाकर तैयार किया जाता है। इन सभी चीजों का मावा के साथ बराबर मात्रा में मिश्रण तैयार किया जाता है। वैसे तो घारी मिठाई विशेषरूप से देशी घी और सूखे मेवे से बनी होती है। बावजूद इसके इस शानदार मिठाई की कई वेरायटीज हैं जैसे-बादाम पिस्ता घारी, ड्राई फ्रूट घारी, केसर बादाम पिस्ता घारी, मावा घारी आदि।
सूरत शहर की सबसे पुरानी और विख्यात ‘घारी’ की दुकान
यदि आप भी अतिस्वादिष्ट मिठाई घारी खरीदना चाहते हैं तो सूरत शहर में कुछ खास दुकानें हैं जहां की घारी बहुत ही फेमस है। शाह जमनादास घारीवाला की दुकान सूरत शहर की सबसे पुरानी दुकान मानी जाती है। स्थानीय लोग इनकी दुकानों से ही घारी खरीदना पसंद करते हैं। शाह जमनादास घारीवाला की दुकानें सूरत शहर के चौटा बाजार, अडाजन और वराछा में मौजूद है।
डायमंड सिटी के नाम मशहूर सूरत शहर में मौजूद घारी की बेहद फेमस दुकान शाह जमनादास सी. घारीवाला की स्थापना 9 जुलाई 1899 को स्वर्गीय श्री जमनादास चुन्नीलाल घारीवाला द्वारा की गई थी। स्वर्गीय श्री जमनादास चुन्नीलाल ने घारी बनाकर बेचने की शुरूआत की। उन्होंने शुरुआत में सोजी (रवा) से घारी बनाना शुरू किया, हांलाकि उनकी घारी का स्वाद लोगों को बेहद पसंद था। लेकिन एक दिन एक संत ने घारी बनाने की विधि बदलने का सुझाव दिया और उनसे मुख्य सामग्री के रूप में मावा (खोया) का उपयोग करके घारी बनाने को कहा। फिर क्या था, जमनादास चुन्नीलाल घारीवाला ने मावे के मिश्रण से ऐसी घारी तैयार की जो आजतक लोगों की पसंदीदा मिठाई बनी हुई है।
सूरत के लोग ‘घारी’ के दीवाने हैं
सूरती लोग घारी के कितने दीवाने इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि त्यौहार 'चंदी पड़वा' के दिन इस शहर में तकरीबन 100 टन से ज्यादा घारी बिक जाती है। साल 2020 में 24 कैरट गोल्ड मिश्रित घारी तैयार की गई थी जिसकी कीमत 9000 रूपए प्रति किलो थी। घारी पर सोने का वर्क चढ़ाकर इसे गोल्ड घारी नाम दिया गया। प्रवासी गुजरातियों में भी घारी की बहुत ज्यादा डिमांड है।