मां जाह्नवी के तट पर अपने ऐतिहासिक वैभव से सुसम्पन्न पावन काशी संसार की सबसे प्राचीन नगरी मानी जाती है। मान्यता है कि काशी का प्रलयकाल में भी लोप नहीं होता है क्योंकि यह भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित है। काशी का उल्लेख वेदों तथा पुराणों में भी स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। मत्स्य पुराण के मुताबिक, भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं कि “मैं इस क्षेत्र को कभी नहीं त्यागता हूं।” इसीलिए काशी का एक नाम ‘अविमुक्त क्षेत्र’ भी है।
काशीराज का संक्षिप्त परिचय : वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक
ऋग्वैदिक काल में काशी के राजा दिवोदास के द्वारा क्षेमक नामक एक दैत्य के वध का उल्लेख किया गया है। वहीं वाल्मीकि रामायण के अनुसार, त्रेता युग में अयोध्या के चक्रवर्ती राजा दशरथ ने अपने अश्वमेध यज्ञ में काशी नरेश को आमंत्रित किया था। वहीं एक अन्य प्रसंग में भगवान श्रीराम के द्वारा काशी नरेश पर कुपित होने की भी कथा आती है।
महाभारत के आदि पर्व में हस्तिनापुर के महारथी भीष्म के द्वारा काशी नरेश की तीन राजकुमारियों अम्बा, अम्बिका अम्बालिका के स्वयंवर से हरण करने की भी कथा आती है। इसीलिए महाभारत के युद्ध में काशी राज पांडवों की तरफ से लड़े थे।
बौद्ध ग्रन्थ के ‘अंगुत्तर निकाय’ तथा जैन ग्रन्थ के ‘भगवती सूत्र’ में सोलह महाजनपदों की सूची मिलती है। इन सोलह महाजनपदों में काशी का नाम प्रथम स्थान पर उल्लेखित है- काशी, कौशल, अंग, मगध, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरू, पांचाल, मत्स्य, सूरसेन, अस्मक, अवन्ति, गान्धार, कम्बोज। मध्यकाल में तुर्कों तथा मुगलों के द्वारा काशी क्षेत्र पर आक्रमण और आधिपत्य का संक्षिप्त वर्णन देखने को मिलता है।
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राजा बलवन्त सिंह
आधुनिक भारत के इतिहास में बक्सर युद्ध (1764) के पश्चात ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के गर्वनर लॉर्ड क्लाइव तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला के बीच हुई इलाहाबाद की सन्धि (अगस्त 1765) में गाजीपुर और बनारस की जागीर राजा बलवन्त सिंह को मिली थी। ऐसे में राजा बलवन्त सिंह महज पांच साल ही शासन कर सके और 1770 में उनकी मृत्यु हो गई और उनके बड़े बेटे राजा चैत सिंह काशी यानि बनारस के राजसिंहासन पर बैठे।
बनारस के राजा चैत सिंह से ही शुरू होती है इस राजवंश के दत्तक पुत्रों की कहानी। ऐसे में आपके मन में भी यही सवाल कौंधता होगा कि आखिर काशी राजवंश को दत्तक पुत्रों के सहारे ही शासन क्यों करना पड़ा? जी हां, ऐसा सोचना बिल्कुल लाजिमी है, दरअसल राजा चैत सिंह को काशी के एक सिद्ध अघोरी कीनाराम बाबा ने क्रोधित होकर श्राप दे दिया था। राजा चैत सिंह के क्षमा-प्रार्थना करने पर अघोरेश्वर कीनाराम बाबा ने श्राप मुक्ति का भी उपाय बताया था, इसके लिए यह रोमांचक स्टोरी जरूर पढ़ें।
राजा चैत सिंह को अघोरेश्वर कीनाराम बाबा का श्राप
राजा बलवन्त सिंह के बाद उनके बड़े बेटे राजा चैत सिंह साल 1770 में बनारस के अगले राजा बने। राजा चैत सिंह की स्वतंत्र गतिविधियों को देखते हुए ईस्ट इंडिया कम्पनी बनारस रियासत पर अपनी नजर बनाए हुए थी। एक दिन बनारस के रामनगर किले में भगवान शंकर का रूद्राभिषेक चल रहा था। इस धार्मिक कार्यक्रम में राजा चैत सिंह सहित अन्य गणमान्य लोग उपस्थित थे। बता दें कि इस किले से कुछ ही दूरी पर अघोरेश्वर कीनाराम बाबा रहा करते थे। हांलाकि इस धार्मिक कार्यक्रम में कीनाराम बाबा को आमंत्रित नहीं किया गया था। बावजूद इसके कीनाराम बाबा अपने गधे और बिल्ली के साथ किले के द्वार पर पहुंचकर द्वारपाल से राजा चैत सिंह तक खुद के आने का संदेश भिजवाया।
तत्पश्चात अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जैसे ही कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे उनकी वेश-भूषा को देखकर राजा और उनके दरबारियों ने उन पर व्यंग्य कसा और कहा कि यहां विद्वानों की जरूरत है, यहां औघड़ों का कोई काम नहीं है। कहते हैं कि इस व्यंग्य से क्रोधित होकर बाबा कीनाराम ने अपने गधे को डंडे से मारा और वह वेद का उच्चारण करना शुरू कर दिया। यह चमत्कार देख वहां उपस्थित सभी लोग बाबा कीनाराम के पैरों में गिर पड़े फिर भी कीनाराम बाबा का क्रोध शान्त नहीं हुआ। उन्होंने कहा-“ राजा तुमने अपने अहंकार में चूर होकर मेरा अपमान किया है, इसलिए तेरा वंश नहीं चलेगा। आज के बाद इस किले में चिड़िया और चमगादड़ ही निवास करेंगे।”
बाबा कीनाराम के श्राप से भयभीत होकर राजा चैत सिंह ने उनसे बहुत क्षमा-याचना की। इसके बाद अघोरेश्वर कीनाराम बाबा ने कहा कि मैंने जो कह दिया है, उसे वापस तो नहीं ले सकता लेकिन जब 11वें पीठाध्श्वर के रूप में बाल रूप में आऊंगा और 30 वर्ष की उम्र में युवा स्वरूप हासिल करने पर इस राजवंश को श्रापमुक्त कर दूंगा। इसके बाद से लेकर काशी नरेश विभूति नारायण सिंह (1970 में इंदिरा गांधी के सरकार ने राजा की उपाधि समाप्त कर दी) तक यह राजघराना दत्तक पुत्रों के सहारे ही चलता रहा।
गर्वनर वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा चैत सिंह से अनावश्यक धन वसूली की कोशिश
बता दें कि बनारस के राजा चैत सिंह अवध के नवाब के आश्रित थे। 1775 में अवध के नवाब शुजाउद्दौला की मृत्यु के बाद नवाब आसफुद्दौला पर ईस्ट इंडिया कम्पनी ने दबाव डाला और राजा चैत सिंह अब कम्पनी का आश्रित बन गया। बनारस की सन्धि के अनुसार, राजा चैतसिंह 22.5 लाख रुपए वार्षिक कर पहले अवध के नवाबों को देता था, अब कम्पनी को देने लगा।
कम्पनी को जब धन की कमी महसूस हुई तो गर्वनर वारेन हेस्टिंग्ज ने 1778 में राजा चैत सिंह से 5 लाख रुपया युद्ध कर तथा 2 लाख रुपया जुर्माने के रूप में मांगा। 1780 में राजा चैत सिंह ने 2 लाख रुपया घूस के रूप में भेज दिया ताकि उसे अतिरिक्त रूपया न मांगा जाए। वारेन हेस्टिंग्ज से घूस तो स्वीकार कर लिया लेकिन 5 लाख रुपया और 2000 सैनिक टुकड़ी की मांग की। राजा चैत सिंह के आनाकानी करने और क्षमा-याचना पत्र को वारेन हेस्टिंग्ज ने अवज्ञा माना तथा राजा चैत सिंह पर 50 लाख रुपए का जुर्माना ठोक दिया तथा स्वयं एक सेना लेकर बनारस की ओर चल पड़ा। बनारस पहुंचते ही वारेन हेस्टिंग्स ने गोला दीनानाथ के निकट स्थित माधोदास सातिया के बाग में पड़ाव डाला। इसके बाद वारेन हेस्टिंग्स ने चैत सिंह को बन्दी बना लिया। इस बात की खबर जैसे ही चैत सिंह की सेना और बनारस की जनता को लगी उन्होंने सबसे पहले चैत सिंह को बन्दी बनाने वाले अंग्रेज सैनिकों को मार डाला तत्पश्चात अनेक अंग्रेज अफसरों की हत्या कर दी। वारेन हेस्टिंग्स को लगा कि अब उसकी जान बचने वाली नहीं है, ऐसे में वह स्त्री भेष में पालकी में बैठकर चुनार के किले की तरफ भागा।
आज भी बनारस की गलियों में यह पंक्तियां गूंजती हैं- ‘घोड़े पे हौदा, हाथी पे जीन, ऐसे भागा, वारेन हेस्टिंग्स। वारेन हेस्टिंग्स ने दोबारा बनारस पर आक्रमण किया, इस बार राजा चैत सिंह की हार हुई और वे रामनगर किले से भागकर ग्वालियर जा पहुंचे और फिर कभी दोबारा बनारस नहीं लौट पाए और वहीं 29 मार्च 1810 को उनकी मृत्यु हो गई। राजा चैत सिंह की छतरी ग्वालियर में आज भी मौजूद है। इतिहासकार यशपाल के मुताबिक, ब्रिटिश कम्पनी ने राजा चैत सिंह की जगह उनके अल्प वयस्क भतीजे महीप नारायण सिंह को राजा बना दिया। राजा महीप नारायण सिंह ने 40 लाख रुपए वार्षिक कम्पनी को देना स्वीकार कर लिया।
राजा महीप नारायण सिंह (दत्तक)
राजा चैत सिंह को बनारस रियासत से पदच्युत करने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उनके भतीजे महीप नारायण सिंह (चैत सिंह की बहन राजकुमारी पद्मा कुंवर के बेटे) को इस शर्त पर राजा बनाया कि उन्हें कम्पनी की शर्तों पर काम करना होगा तथा प्रत्येक वर्ष 40 लाख रुपए कम्पनी को देने होंगे।
राजा चैत सिंह की ही तरह महीप नारायण सिंह ने कम्पनी प्रशासन को सहयोग देने में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई लिहाजा कम्पनी ने 1794 में उनके राजस्व वाले चार क्षेत्रों को सीधे शासन में स्थानांतरित कर दिया। बदले में कम्पनी ने महीप नारायण सिंह को मुआवजे के रूप में प्रति वर्ष 1 लाख रुपये और सरकार का कोई अधिशेष राजस्व देना शुरू किया। साल 1796 में महीप नारायण सिंह का निधन हो गया और उनके सबसे बड़े पुत्र उदित नारायण सिंह बनारस की गद्दी पर बैठे।
राजा उदित नारायण सिंह
राजा महीप नारायण सिंह के निधन के पश्चात उनके सबसे बड़े पुत्र उदित नारायण सिंह बनारस रियासत की गद्दी पर बैठे। अपने पूर्वजों की ही तरह प्रखर राष्ट्रवादी होने के कारण ब्रिटिश कम्पनी उन्हें एक अक्षम प्रशासक घोषित करने पर तुली हुई थी। राजा उदित नारायण सिंह ने अपने शासनकाल में किसानों को कर से मुक्त रखा तथा तैयार माल को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापारिक चौकियों की स्थापना की। इतना ही नहीं शहर में आयतित माल पर बहुत कम कर लगाया। ऐसे में जनता का प्यार और सम्मान हासिल करने में वह सफल रहे। इसके ठीक विपरीत अंग्रेजी राज्य ने काशी नरेश की अधिकतर जमीनें जब्त कर ली और किसानों का बुरी तरह से शोषण करना शुरू कर दिया।
हांलाकि उदित नारायण सिंह ने बनारस सन्धि को रद्द करने के लिए याचिका दायर की थी लेकिन कम्पनी ने उन पर कुप्रबन्धन का आरोप लगाते हुए शेष जमीनें भी जब्त कर ली। बावजूद इसके उदित नारायण सिंह 96 परगनों की जमींदारियां खरीदने में सफल रहे। साल 1830 में राजा उदित नारायण सिंह ने रामनगर प्रसिद्ध रामलीला शुरू करवाई जो आज तक प्रत्येक वर्ष आयोजित की जाती है। 4 अप्रैल 1835 को 65 वर्ष की उम्र में राजा उदित नारायण सिंह का निधन हो गया। इसके बाद उनके दत्तक पुत्र ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह काशी के नए राजा बने।
राजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह (दत्तक )
ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह 13 साल की उम्र में काशी के राजा बने। साल 1867 में राजा ईश्वरी प्रसाद सिंह को कम्पनी ने व्यक्तिगत रूप से 13 तोपों की सलामी दी तथा ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया। उन्हें वायसराय की विधान परिषद का सदस्य भी बनाया गया। योग गुरू श्यामा चरण लाहिड़ी के शिष्य ईश्वरी प्रसाद सिंह को आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु हश्चिन्द्र का गुरु भी कहा जाता है। राजा ईश्वरी सिंह विद्वान होने के साथ-साथ कवि भी थे। उन्होंने बनारस में सम्पूर्णानंद संस्कृत कॉलेज (वर्तमान में विश्वविद्यालय) की स्थापना की। बनारस स्कूल ऑफ़ आर्ट और पहला हिन्दी थियएटर प्रारम्भ करने का श्रेय राजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह को ही जाता है। साल 1889 में काशी नरेश ईश्वरी सिंह को ‘महामहिम’ की उपाधि दी गई। 67 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई तत्पश्चात उनके दत्तक पुत्र प्रभु नारायण सिंह बनारस के नए राजा बने।
राजा प्रभु नारायण सिंह (दत्तक)
बनारस के राजा प्रभु नारायण सिंह को साल 1891 में ‘नाइट’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं उन्हें भारतीय सेना में कर्नल की मानद उपाधि से सुशोभित किया गया। इसके अतिरिक्त प्रथम विश्व युद्द के दौरान उनके द्वारा की गई सेवाओं के लिए उन्हें 1921 में ‘नाइट ग्रैंड कमांडर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द स्टार ऑफ़ इंडिया’ से सम्मानित किया गया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए राजा प्रभु नारायण सिंह ने 1300 एकड़ भूमि दान में दी थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने मिसेज एनी बेसेन्ट को कामाक्षा में हिंदू कॉलेज की स्थापना के लिए भूमि दान दी थी। संस्कृत, फ़ारसी और अंग्रेजी में पारंगत राजा प्रभुनारायण सिंह ने ईश्वरी मेमोरियल चिकित्सालय की भी स्थापना की। उनके द्वारा योग समाधि जाकर बिना एनेस्थीसिया के ही ऑपरेशन करवाने की घटना काफी चर्चा में रही थी। साल 1931 में 75 वर्ष की आयु में राजा प्रभुनारायण सिंह परलोक गमन कर गए। इसके बाद उनके इकलौते पुत्र आदित्य नारायण सिंह बनारस की गद्दी पर बैठे।
राजा आदित्य नारायण सिंह
बनारस के राजा आदित्य नारायण सिंह ने महज सात साल तक ही शासन किया। परन्तु इसी अवधि में उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किए। आदित्य नारायण सिंह ने ज्ञानपुर और भदोही में डिग्री कॉलेजों की स्थापना की। अनेक संस्कृत विद्यालयों के अलावा रामनगर और भदोही में नि:शुल्क अस्पताल भी बनवाए। उन्होंने सुंदरपुर में बी.एच.यू. के खर्चों के रखरखाव के लिए अपनी निजी जमीन भी दी थी चूंकि आदित्य नारायण सिंह की कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने अपने एक दूर के चचेरे भाई (प्रभु नारायण सिंह की रानी के भतीजे) विभूति नारायण सिंह को गोद ले लिया। साल 1939 में 64 वर्ष की उम्र में आदित्य नारायण का निधन हो गया।
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राजा विभूति नारायण सिंह (दत्तक)
विभूति नारायण सिंह जब महज छह वर्ष के थे तभी आदित्य नारायण सिंह ने उन्हें गोद ले लिया था। आजादी के बाद राजा विभूति नारायण सिंह ने बनारस रियासत के भारत में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद 15 अक्टूबर 1947 को बनारस रियासत का उत्तर प्रदेश में विलय कर दिया गया। साल 1961 में रानी एलिजाबेथ द्वितीय के वाराणसी आगमन के दौरान वेदों-पुराणों में गहरी आस्था रखने वाले विभूति नारायण सिंह ने उनका भरपूर स्वागत किया था। वह आजीवन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के चांसलर के रूप में कार्यरत रहे। विभूति नारायण को बनारस की जनता कितना प्रेम करती थी इसका अंदाजा आप इसी बात से निकाल सकते हैं कि वे जिस राह से भी गुजरते थे लोग ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष करने लगते थे। 25 दिसंबर 2000 को, 73 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। वर्तमान में विभूति नारायण के पुत्र अनंत नारायण सिंह बनारस रियासत के इस परम्परा के वाहक हैं।
अघोरी संत अवधूत भगवान राम से की थी श्राप मुक्ति की प्रार्थना
काशी नरेश विभूति नारायण सिंह अपने राजवंश को अघोरेश्वर कीनाराम बाबा के श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए अघोरी संत अवधूत भगवान राम के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना की। इसके बाद अवधूत भगवान राम ने कहा कि जब अघोरेश्वर कीनाराम बाबा बाल रूप में 9 वर्ष की अवस्था में 11वें पीठाधीश्वर के रूप में आएंगे तभी श्राप से मुक्ति संभव है।
इसके बाद काशी का राजघराना उस पल का पूरी शिद्ददत से इंतजार करने लगा। सौभाग्य से वह दिन भी आया जब 10 फरवरी 1978 को 11वें पीठाधीश्वर के रूप में मात्र 9 साल की उम्र में अघोराचार्य सिद्दार्थ गौतम जी उपस्थित हुए और कीनारामा बाबा की गद्दी पर बैठे। साल 1999 में अघोराचार्य सिद्धार्थ गौतम जी जब 30 वर्ष की युवावस्था में प्रवेश कर गए तब काशी की राजकुमारी स्वागत की पूरी तैयारी के साथ प्रार्थना-याचना करने पहुंची। इसके बाद अघोराचार्य सिद्धार्थ गौतम ने राजमहल आने की बात कही। 30 अगस्त 2000 को पूरे महल को सजाया गया और अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी के स्वरूप अघोराचार्य सिद्धार्थ गौतम जी का आगमन हुआ। अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम को काशी के राजमहल के पूजन कक्ष में ले जाया गया जहां उन्होंने विधिवत पूजा पाठ के बाद काशी राजघराने को श्राप से मुक्त कर दिया। इसके बाद महाराज विभूति नारायण सिंह के पुत्र अनंत नारायण सिंह को दो पुत्रों की प्राप्ति प्रद्युम्न नारायण सिंह और अनिरुद्ध नारायण सिंह के रूप में हुई।
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