ऋग्वैदिक काल में स्त्रियां भी वैदिक शिक्षा प्राप्त करती थीं तथा वह भी यज्ञ-होम आदि करती थीं। ऋग्वैदिक काल में पुत्री का भी उपनयन संस्कार होता था। वैदिककालीन महिलाओं को स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार था। लड़कियां अविवाहित भी रह सकती थीं बतौर उदाहरण- विदुषा महिला घोषा। ऋग्वेद के आठवें मंडल में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, निवावरी, अपाला, आत्रेयी, शचि, पौलोमी, काक्षावृति, इन्द्राणी एवं विश्वतारा जैसी विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है। घोषा, लोपामुद्रा तथा अपाला ने अनेक ऋचाओं की रचना भी की थी अत: इन महिलाओं को ‘ऋषि’ कहा गया है। अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा को ऋग्वेद के रचनाकारों में से एक माना जाता है। इस स्टोरी में हम आपको परम विदुषी महिला लोपामुद्रा से जुड़ी जानकारी देने का प्रयास करेंगे।
संक्षिप्त जीवन परिचय
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 से 191 तक के सूक्तों की रचना करने वाले महर्षि अगस्त्य की पत्नी का नाम लोपामुद्रा था। विदर्भराज निमि अथवा क्रथपुत्र भीम ने लोपामुद्रा का पालन-पोषण किया था, इसलिए इन्हें वैदर्भी भी कहा गया है। लोपामुद्रा को 'वरप्रदा' और 'कौशीतकी' भी कहा गया है। राजकुल में उत्पन्न विदर्भराज की कन्या लोपामुद्रा विवाह के पश्चात राजषी वेश त्यागकर महर्षि अगस्त्य की तरह वल्कल और मृगचर्म धारण करती थीं। अगस्त्य ऋषि व लोपामुद्रा के पराक्रमी पुत्र का नाम 'दृढस्यु' था। वहीं लोपामुद्रा को दक्षिण भारत में पांडय राजा मलयध्वज की पुत्री बताया गया है। दक्षिण भारत में लोपामुद्रा का नाम कृष्णेक्षणा है व इनके पुत्र का नाम इध्मवाहन था। ऋग्वेद की अनेक ऋचाएं लोपामुद्रा के द्वारा लिखी गई हैं।
देवगुरु बृहस्पति के द्वारा लोपामुद्रा की प्रशंसा
परम सुन्दरी तथा राजसी वैभव त्यागकर ऋषि महिला के रूप में वेदों की ऋचाएं लिखने वाली लोपामुद्रा का व्यक्त्वि यह दर्शाता है कि वह एक निष्काम कर्मयोग का पालन करने वाली एक पतिव्रता स्त्री थीं। पति के पदचिह्नों का अनुसरण करने वाली लोपामुद्रा वैदिक मंत्र द्रष्टा होने के साथ-साथ यज्ञ-होम आदि सम्पन्न कराने में प्रवीण थीं। ब्रह्माण्ड पुराण के मुताबिक, भगवान हयग्रीव ने महर्षि अगस्त्य को ललिता सहस्त्रनाम स्त्रोत के बारे में बताया था। अत: लोपामुद्रा ने अपने पति अगस्त्य के साथ ललिता सहस्त्रनाम स्त्रोत का प्रचार-प्रसार किया था ताकि गृहस्थ के जीवन में सुख-शांति तथा समृद्धि बनी रहे।
एक प्रसंग के मुताबिक एक बार देवगुरु बृहस्पति देवगणों के साथ महर्षि अगस्त्य के आश्रम पहुंचे। इसके बाद बृहस्पति ने देखा कि अगस्त्य ऋषि का आश्रम फूलों से आच्छादित तथा होम-धूप, सुगन्ध आदि से युक्त था। तब देवगुरु बृहस्पति ने महर्षि अगस्त्य से कहा कि हे महर्षि! आप धन्य हैं। आपकी पत्नी लोपामुद्रा एक पतिव्रता स्त्री हैं और उनकी चर्चा करना भी पुण्यदेने वाला है।
लोपामुद्रा की वैदिक उपलब्धियां
ऋग्वेद के 179वें सूक्त में महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा के बीच हुए संवाद की जानकारी मिलती है। वाल्मीकि रामायण के मुताबिक, वनवास के दौरान श्रीराम अपनी पत्नी सीता तथा अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि अगस्त्य तथा लोपामुद्रा से मिलने उनके आश्रम गए थे। जहां महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को उपहारस्वरूप दैवीय धनुष तथा अक्षय तूणीर दिए थे। इसके अतिरिक्त श्रीराम को पूछने पर उन्होंने कहा कि इसी दंडकवन में पंचवटी नाम का एक स्थान है, जहां निवास करते हुए आप दक्षिण से होने वाले राक्षसों के आक्रमणों को रोक सकते हैं।
विदुषी लोपामुद्रा द्वारा रचित ऋग्वेद में 2 छंद देवी रति को समर्पित हैं जो कि पति-पत्नी सम्बन्धों के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य की व्याख्या करते हैं। यहां तक कि तंत्र शास्त्र में प्रयुक्त हादी विद्या ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इंद्र और शिव के अतिरिक्त लोपामुद्रा द्वारा अपनाई जाने वाली प्राचीन विद्या है। इसके अतिरिक्त पंचदशी मंत्र की कल्पना भी लोपामुद्रा के द्वारा की गई थी। वर्तमान में उपलब्ध पंचदशी मंत्र इस प्रकार है- 'कईला ह्रीं हसकहला ह्रीं सकल क्रीं। पंचदशी मंत्र महा त्रिपुरसुंदरी से जुड़ा है। महा त्रिपुरसुंदरी से लोपामुद्रा को ज्ञान और वरदान दोनों मिला था। कुछ विद्वानों का मानना है कि इस मंत्र को लोपामुद्रा ने भगवान मन्मध को बताया था।
लोपामुद्रा का सामाजिक जीवन
पति-पत्नी के बीच गहरे बंधन, प्रेम और त्याग की प्रतीक विदुषी लोपामुद्रा का जीवन ऋग्वैदिक काल से लेकर आज की युवा पीढ़ी के लिए भी प्रेरणास्रोत है। अत्यन्त सुन्दर व परम विदुषी लोपामुद्रा का प्रौढ़ ऋषि अगस्त्य से शादी करना इस बात को दर्शाता है कि उन्होंने अपने पिता विदर्भराज की आज्ञा अनुसरण किया था। अर्थात् सांसारिक जीवन व्यतीत करते हुए योग का वरण करना लोपामुद्रा की अद्भुत विशेषता थी। महर्षि अगस्त्य के तपस्वी जीवन के बीच वे वन के पेड़-पौधों व जानवरों के साथ समय व्यतीत करने के अतिरिक्त वनवासी बालकों को शिक्षा प्रदान करने का काम करती थीं। आनन्द रामायण में ऋषि महिला लोपामुद्रा के पास कभी न खत्म होने वाले अन्न के अक्षय पात्र का उल्लेख मिलता है। लोपामुद्रा की अक्षय थाली इस बात की प्रतीक है कि वह समाज के प्रत्येक बेसहारा और निर्धन व्यक्तियों को भोजन कराती थीं।
महर्षि अगस्त्य : एक दृष्टि में
वैदिक ऋषि अगस्त्य की तपोभूमि दक्षिण भारत है और वहां उन्हें अगतियार के नाम से जाना जाता है। सप्तर्षियों में से एक ऋषि अगस्त्य ने देवगणों के अनुरोध पर काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और वहीं दंडकवन में अपना आश्रम बना लिया। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों के रचयिता ऋषि अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं।
अगस्त्य ऋषि ने श्रीराम को दिग्विजयी धनुष, अक्षय तूणीर के अतिरिक्त रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए ‘आदित्य ह्दय स्त्रोत’ भी बताया था। पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार देव-असुर संग्राम के दौरान देवताओं ने वृत्तासुर नामक एक दैत्य का वध कर दिया लेकिन कुछ राक्षस समुद्र की अथाह गहराई में जाकर छिप गए। इसके बाद देवताओं ने महर्षि अगस्त्य से अपनी चिन्ता व्यक्त की तत्पश्चात महर्षि अगस्त्य ने समुद्र का सारा जल पी लिया जिससे राक्षसों के दिखते ही देवगणों नें उनका वध कर दिया।
एक दूसरी पौराणिक कथा में यह वर्णन मिलता है कि मेरू पर्वत की ऊंचाई देखकर ईष्यावश विंध्य पर्वत ने अपनी ऊंचाई इतनी ज्यादा बढ़ा ली कि सूर्य-चन्द्रमा उसके पीछे छिप गए जिससे चारों तरफ अंधेरा छा गया। इसके बाद देवगणों ने उत्तर भारत में निवास कर रहे ऋषि अगस्त्य से इस समस्या का निवारण करने की प्रार्थना की। तब ऋषि अगस्त्य ने विंध्य पर्वत से कहा कि तुम अपनी ऊंचाई कम करो, मुझे दक्षिण में जाना है। महान ऋषि अगस्त्य की आज्ञा से विंध्य पर्वत ने अपनी ऊंचाई कम कर ली जिससे सूर्य-चन्द्रमा पुन: चमकने लगे। ऋषि अगस्त्य दक्षिण चले गए और वहीं अपनी तपोभूमि बना ली फिर कभी लौटे ही नहीं और न ही विंध्य ने अपनी ऊंचाई कभी बढ़ाई।
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