
भारत के बेहद चर्चित सोशल मीडिया इन्फल्यूएन्शर एवं शिक्षक खान सर द्वारा कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को लेकर दिया गया बयान इन दिनों सुर्खियों में बना हुआ है। खान सर ने एक साक्षात्कार में कहा था कि “कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की गलती थी कि वह कश्मीर को स्विट्जरलैंड बनाना चाहते थे। खान सर ने कहा कि उनके घर के रिश्तेदारों को पाकिस्तान लेकर गया है, तब जाकर इन्होंने आत्मसमर्पण किया।”
इसके आगे खान सर ने यह भी कहा कि “भारत 15 अगस्त को स्वतंत्र हुआ लेकिन उन्होंने 26 अक्टूबर को दो महीने बाद सरेंडर किया। खान सर ने अपने इंटरव्यू में कहा कि हरि सिंह मतलबी इंसान थे।”
खान सर के उपरोक्त टिप्पणी के बाद बजरंग दल ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, वहीं डोगरा शाही परिवार की रितु सिंह ने कहा कि “कल मैं उनके बयान के बारे में पढ़-सुन रही थी, मेरा मानना है कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।”
अब सवाल यह उठता है कि खान सर ने महाराजा हरि सिंह को लेकर जो टिप्पणी की है, आखिर उसमें कितना दम है? यह जानने के लिए कश्मीर के महाराजा हरि सिंह से जुड़ी इस स्टोरी को जरूर पढ़ें।
कश्मीर को स्वतंत्र रखने का निर्णय कितना उचित था ?
भारत में 562 रियासतें थी और उनके अधीन 7,12,508 वर्गमील का क्षेत्र था। 3 जून 1947 को माउंटबैटन योजना ने यह स्पष्ट कर दिया कि रियासतों को यह अधिकार होगा वे पाकिस्तान अथवा भारत किसी में सम्मिलित हो सकती हैं। गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबैटन ने किसी एक रियासत अथवा अनेक रियासतों के संघ को तीसरी ईकाई के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया।
उन दिनों सरदार वल्लभभाई पटेल रियासती विभाग के कार्यवाहक थे, उन्होंने भारतीय रियासतों की देशभक्ति को ललकारते हुए उनसे अनुरोध किया कि वे भारतीय संघ में सम्मिलित हो जाएं। इस प्रकार 15 अगस्त 1947 तक 136 क्षेत्राधिकारी रियासतें भारत में सम्मिलित हो गईं।
अब हम बात करतें हैं कश्मीर रियासत की, साल 1941 की जनगणना के मुताबिक, कश्मीर में 77 फीसदी मुसलमान, 20 फीसदी हिन्दू तथा 2.77 फीसदी सिख एवं बौद्ध थे। आजादी के समय मुस्लिम बाहुल्य आबादी वाले कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह हिन्दू थे।
लार्ड माउंटबैटन के स्पष्ट निर्देश के बावजूद महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर रियासत को स्वतंत्र रखने का निर्णय लिया था। हरि सिंह ने यह निर्णय लिया था कि कश्मीर न ही भारत का हिस्सा रहेगा और न ही पाकिस्तान का। अब आप स्वयं निर्णय कीजिए कि महाराजा हरि सिंह द्वारा कश्मीर को स्वतंत्र रखने का निर्णय कितना उचित था?
महाराजा हरि सिंह ने आजादी के 2 माह बाद क्यों सरेंडर किया
यह सच है कि कश्मीर के महाराजा हरि सिंह स्वतंत्र कश्मीर का स्वप्न देख रहे थे। वहीं मजहब के नाम पर देश का बंटवारा करने वाले पाकिस्तान की नजर कश्मीर पर टिकी हुई थी। सितम्बर 1947 में पाकिस्तान द्वारा अत्यधिक दबाव डाले जाने पर कश्मीर ने पाकिस्तान के साथ एक अस्थाई समझौता कर लिया किन्तु कुछ समय बाद ही पाकिस्तान के व्यवहार से महाराजा हरि सिंह को चिन्ता होने लगी।
दरअसल पाकिस्तान ने अस्थायी समझौते की शर्तों को पूरा नहीं किया तथा महाराजा हरि सिंह पर दबाव डालने के लिए सीमा पर झगड़ा करना आरम्भ कर दिया। इतना ही नहीं, कश्मीर को हड़पने की नियत से 22 अक्टूबर 1947 ई. को पाकिस्तानी सेना ने पठान कबायलियों की मदद से आक्रमण कर दिया। ट्रकों में भर-भरकर हजारों की संख्या में आए पठान कबालियों तथा पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों पर कब्जा करना शुरू कर दिया।
पाकिस्तानी सेना और पठान कबालियों के सामने महाराजा हरि सिंह की निजी सेना बहुत छोटी और कमजोर थी। ऐसे में लाचार होकर कश्मीर के प्रधानमंत्री सहायता मांगने के लिए दिल्ली आए। प्रख्यात इतिहासकार डॉ. यशपाल के मुताबिक, “प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो पहले से ही महाराजा हरि सिंह से निजी तौर पर नाराज चल रहे थे, ऐसे में उन्होंने यह कहकर टालने का प्रयास किया कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत वह सहायता तभी भेज सकते हैं जब कश्मीर का भारत में विलय हो जाए।”
फिर क्या था, महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को विलय किए हस्ताक्षर पं. जवाहरलाल नेहरू को भेज दिए। इस प्रकार पूरा कश्मीर वैधानिक रूप से भारत का अभिन्न अंग बन गया। पं. जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त करवा दिया। इसके बाद 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना ने कश्मीर से पाकिस्तानी आतातायियों को भगाना शुरू किया और शीघ्र ही कश्मीर घाटी को इनसे मुक्त करा लिया। हांलाकि तब तक कश्मीर के उत्तर पश्चिमी और पश्चिमी क्षेत्र पर पाकिस्तानी सेना कब्जा कर चुकी थी जिसे हम सभी ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ (POK) के रूप में जानते हैं।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि महाराजा हरि सिंह कश्मीर को स्वतंत्र बनाए रखना चाहते थे, किन्तु पाकिस्तानी हमले के बाद उन्हें बाध्य होकर विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े। हांलाकि इतिहास की किसी भी प्रमाणिक पुस्तक में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है कि महाराजा हरि सिंह के रिश्तेदारों को पाकिस्तान लेकर गया, तब जाकर इन्होंने आत्मसमर्पण किया।
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