गंगा के किनारे बसा अति प्राचीन शहर गाजीपुर न केवल जनश्रुतियों बल्कि ऐतिहासिक सन्दर्भों में अपने धार्मिक एवं राजनीतिक स्वरूप को लेकर हमेशा से क्रांतिकारी रहा है। आध्यात्मिक नगरी काशी की तुलना में लोग इस शहर को लहुरी काशी के नाम से भी पुकारते हैं। गाजीपुर का प्राचीन नाम गाधिपुरी था। इसे महर्षि विश्वामित्र के पिता राजा गाधी ने बसाया था। पूर्व काल में गाजीपुर को महर्षि विश्वामित्र, भगवान् परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि तथा महर्षि कण्व की तपोस्थली होने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है।
यदि हम गाजीपुर के राजनीतिक स्वरूप की बात करें तो इस शहर ने भारत की चुनिन्दा शख्सियतों को अपने पास बुलाने के लिए बाध्य किया है। कवीन्द्र ऋषि रविन्द्र नाथ टैगोर ने इसकी गुलाबी फिजा में प्रवास कर ‘मानसी’ और ‘नौका डूबी रे’ जैसी अनोखी साहित्यक कृतियों की रचना की। भारतीय मुक्ति संग्राम के प्रारम्भिक चरण में गाजीपुर के लंका मैदान में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक जनसभा को सम्बोधित कर पूरे जिले को ब्रिटीश हुकूमत के खिलाफ हूंकार भरने की प्ररेणा दे गए। यहां तक कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने भी अपने जर्मनी प्रवास से ठीक चार माह पहले मूसलाधार बारिश में शहर के टाउनहाल मैदान में विशाल जनसमूह को सम्बोधित किया था। इसी क्रम में भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा स्वामी विवेकानंद भी अपने आध्यात्मिक और लौकिक प्रश्नों की खोज में इस शहर में साढ़े तीन माह तक प्रवास कर चुके हैं।
स्वामी विवेकानन्द का गाजीपुर आगमन
स्वामी विवेकानन्द को स्वामी पवहारी बाबा की अद्भुत शक्तियों जानकारी गिरनार पर्वत पर दो संन्यासियों से मिली थी, ये दोनों संन्यासी कभी चोर थे जो स्वामी पवहारी बाबा के प्रभाव से संन्यासी बन गए। ऐसे में गाजीपुर के अद्भुत संत और अलौकिक शक्तियों के धनी स्वामी पवहारी बाबा से मिलने की इच्छा लिए स्वामी विवेकानन्द मुगलसराय (अब पं. दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन), दिलदारनगर होते हुए ताड़ीघाट पहुंचे। जाड़े की ठिठुरती ठंड और भूख-प्यास से व्याकुल स्वामी विवेकानन्द अभी कुछ सोचते इससे पूर्व ही उनके सम्मुख एक संत हाथ में भोजन की थाल लिए उपस्थित हुए और विवेकान्द से भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया तथा उनकी भूख-प्यास मिटाने के बाद वहां से अदृश्य हो गए। नाव द्वारा गंगा नदी पारकर विवेकानन्दजी ने 21 जनवरी 1890 ई. को गाजीपुर की पावन धरती पर अपने कदम रखे। स्वामी विवेकानन्द गाजीपुर में अपने मित्र गगन चंद्र चटर्जी के यहां ठहरे थे, जो उन दिनों अफीम फैक्ट्री में बड़े पद पर कार्यरत थे।
स्वामी विवेकानन्द ने लिखा अपने मित्र प्रमदादास को पत्र
स्वामी विवेकानन्द प्रतिदिन गंगा स्नान के बाद सुबह पांच बजे स्वामी पवहारी बाबा के दर्शनों की सद्इच्छा लिए कुर्था स्थित उनके आश्रम पहुंच जाते थे और शाम को सूर्यास्त होने तक उनकी प्रतीक्षा करते और फिर वापस लौट जाते। यह सिलसिला तकरीबन दो महीने तक चला अत: स्वामी विवेकानन्दजी यह सोचकर निराश होने लगे कि शायद अब उनकी मुलाकात स्वामी पवहारी बाबा से नहीं होगी क्योंकि स्वनिर्मित गुफा में समाधिस्थ बाबाजी महीनों से साधनारत थे। ऐसे में स्वामी विवेकानन्द ने कोलकाता निवासी अपने प्रिय मित्र प्रमदादास को पत्र लिखा, - “इनसे भेंट होना बहुत ही कठिन है, वे अपनी गुफा से बाहर नहीं निकलते। उनके आश्रम के चारों तरफ अंग्रेजों की छावनीनुमा ऊंची दिवारें हैं, अन्दर बगीचा है,वहां जाकर प्रतिदिन सर्दी की मार खाकर लौटता हूं।”
जब स्वामी विवेकानन्द को हुए पवहारी बाबा के दर्शन
तीन माह इन्तजार करने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने भगवान शिव के साक्षात अंश पवहारी बाबा से मिलने के लिए आश्रम परिसर में बनी उस गुफा में जाने का निर्णय लिया जहां बाबा महीनों से समाधि लगाए बैठे थे। गुफा में जाकर देखा तो स्वामी विवेकान्द को उनके गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी समाधि लगाए नजर आए। स्वामी विवेकानन्द को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, इसलिए वे घबड़ाकर उस गुफा से बाहर आ गए। कुछ देर बाद, स्वामी विवेकानन्दजी ने दोबारा उस गुफा में जाने की हिम्मत जुटाई और जाकर देखा तो स्वामी पवहारी बाबा ने कहा, नरेन्द्र! मुझमें और रामकृष्ण में कोई अन्तर नहीं है, ऐसे में तुम्हारे मन में गुरु बदलने की इच्छा कहां से जागृत हुई? तत्पश्चात स्वामी विवेकान्द ने कहा कि आप तो वही अद्भुत संत हैं, जो मुझे भूख-प्यास से व्याकुल देख भोजन कराया था।
स्वामी पवहारी बाबा ने कहा-मुझे आपकी व्याकुलता देखी नहीं गई, इसलिए मैंने मां गंगा से आपके लिए भोजन की विनती की तो उन्होंने मुझे प्रसाद दिया और मैंने आपको प्रसाद ग्रहण करा दिया। इस मुलाकात के दौरान स्वामी पवहारी बाबा ने स्वामी विवेकानन्द के अनेक प्रश्नों का समाधान किया। स्वामी विवेकानन्द जब गाजीपुर से लौटे तब तकरीबन साढ़े तीन महीने बीत चुके थे। गाजीपुर प्रवास के ठीक तीन वर्ष बाद यानि 11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में ओजस्वी भाषण दिया जिससे पूरी दुनिया में भारत की छवि बदल गई।
स्वामी विवेकानन्द जब भारत भ्रमण के दौरान अल्मोड़ा में थे तब उनके मित्र गगनचंद्र चटर्जी (जिनके यहां स्वामी जी गाज़ीपुर प्रवास के दौरान रहा करते थे ) ने पत्र के माध्यम स्वामी पवहारी बाबा के ब्रम्हलीन होने की सूचना दी। स्वामी पवहारी बाबा के ब्रम्हलीन होने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने बंगला भाषा में उनकी जीवनी लिखी।
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में
स्वामी विवेकानंद ने ‘कर्मयोग’ में लिखा है- “भारत वर्ष में एक बहुत बड़े महात्मा गाजीपुर जनपद के कुर्था के सिद्ध संत पवहारी बाबा हैं। अपने जीवन में मैंने जितने बड़े-बड़े महात्मा देखें उनमें से वे एक है। वे एक बड़े अदभुत व्यक्ति हैं। कभी किसी को उपदेश नहीं देते यदि तुम उनसे कोई प्रश्न पूछो भी तो भी वे उसका कुछ उत्तर नहीं देते। गुरु का पद ग्रहण करने में वे बहुत संकुचित होते हैं। यदि तुम उनसे आज एक प्रश्न पूछो और उसके बाद कुछ दिन प्रतीक्षा करो तो किसी दिन बातचीत में वे उस प्रश्न को उठाकर बड़ा सुंदर प्रकाश डालते हैं। उन्हीं ने मुझे एक बार कर्म का रहस्य बताया था। उन्होंने कहा, ‘साधन और सिद्धि को एक रुप समझो’ अर्थात साधनाकाल में साधन में ही मन प्राण अर्पण कर कार्य करो क्योंकि उसकी चरम अवस्था का नाम ही सिद्धि है।” (अधिक जानकारी के लिए स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा लिखित ‘कर्मयोग’ नामक विख्यात लघुग्रन्थ आप रामकृष्ण मिशन से प्राप्त कर सकते हैं।)
सिद्ध संत पवहारी बाबा का संक्षिप्त जीवन परिचय
स्वामी पवहारी बाबा का जन्म वर्ष 1840 में जौनपुर जिले के प्रेमपुर में अयोध्या तिवारी के घर हुआ। पवहारी बाबा के बचपन का नाम हरभजन दास था। छोटी चेचक के प्रकोप से बाल्यावस्था में ही हरभजनदास के एक आंख की रोशनी चली गई थी। बावजूद इसके परिवार में सबसे सुन्दर दिखने वाले हरभजनदास की शिक्षा के लिए अयोध्या तिवारी ने उन्हें अपने भाई लक्ष्मीनारायण के पास भेजा जो घर-बार त्यागकर आजीवन ब्रह्मचर्य का संकल्प ले चुके थे।
वैष्णव संत रामानुज की श्री परंपरा को मानने वाले लक्ष्मीनारायण गाजीपुर के कुर्था में आकर रहने लगे थे। ऐसे में बालक हरभजन दास भी यहीं आ गए और अपने चाचा लक्ष्मीनारायण के सान्निध्य में वेदों तथा शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। 1856 में लक्ष्मीनारायण का निधन हो गया।
अपने चाचा लक्ष्मीनायण के देहावसान से व्यथित हरभजन दास आध्यात्मिक शांति के लिए तीर्थाटन पर निकल गए। पूरी, रामेश्वरम, द्वारिका, बद्रीनाथ भ्रमण करते हुए गिरनार पर्वत भी उन्होंने कुछ दिन तपस्या की। भारत भ्रमण के बाद जब हरभजनदास आश्रम में लौटे तब वह 18 साल के थे। उनका मुख मण्डल और आध्यात्मिक तेज देखते ही बनता था। स्थानीय नागारिकों के अनुसार, गांव के कुछ लोगों को छोड़कर उन्हें किसी ने देखा नहीं था क्योंकि वे अक्सर महीनों साधना में लीन रहा करते थे। दरवाजे के अंदर या पर्दे के पीछे से ही संवाद करते थे। भोजन में काली मिर्च और कई-कई दिनों तक निराहार रहते थे इसलिए जनसामान्य के बीच वह पवहारी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
चांदी से बनी विग्रह की मूर्तियां और स्वर्ण अक्षरों में हस्तलिखित गीता
स्वामी पवहारी बाबा ने स्वर्ण अक्षरों में 194 पन्ने की ‘गीता’ लिखी है। बाबा की इस अद्भुत कृति को पुरातत्व विभाग में पंजीकृत कराया गया है। ऐसी मान्यता है कि स्वर्ण अक्षरों में वहीं लिख सकता है जिसे परम तत्व की प्राप्ति हो। इतना ही नहीं, कुर्था स्थित मंदिर में विद्यमान भगवान श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण की चांदी का विग्रह पवहारी बाबा ने स्वयं तैयार किया था। इसके अतिरिक्त भगवान का सिंहासन भी बाबा ने अपने हाथों से बनाया था जो आज भी मंदिर में रखा हुआ है। एक बात और विस्मय करती है कि स्वामी पवहारी बाबा जैसे सिद्ध संत ने आश्रम परिसर में अपने हाथों से 40 फीट गहरा कुआं खोद दिया था, जो आज भी पूरी तरह से संरक्षित है। कुएं में उपलब्ध पानी को देखकर ऐसा लगता है जैसे अभी कुछ ही वर्ष पूर्व इसे खोदा गया है। कहते हैं बाबा जब कुआं खोद रहे थे तब उनके परिश्रम को देखकर श्रमिक भी हैरान थे। आश्रम परिसर में मौजूद यह कुंआ आज भी भक्तों के बीच कौतूहल का विषय बना हुआ है।
भंडारे में मां गंगा को निमंत्रण
स्वामी पवहारी बाबा ने एक दिन अपने बड़े भाई गंगा तिवारी को बुलाकर कहा कि कलिकाल प्रचंड हो रहे हैं ऐसे में वह स्वयं यहीं सूक्ष्म रूप में रहना चाहते हैं। इस अवसर पर एक विशाल भंडारे का आयोजन किया जाए। ज्येष्ठ मास की आमावस्या के दिन भंडारे का आयोजन किया गया लेकिन सबसे बड़ी समस्या भंडारे में आने वाले अतिथियों के लिए पानी को लेकर थी। इसलिए गंगा तिवारी को चिंतित देखकर स्वामी पवहारी बाबा ने अपने हाथ से एक पत्र लिखा और बोले कि मां गंगा को निमंत्रण दे आइए। करीब डेढ़ किमी दूर बह रहे मां गंगा का जलप्रवाह भंडारे के दिन आश्रम तक आ पहुंचा। इसका उल्लेख अफीम फैक्ट्री के गजेटियर 1898 में दर्ज है। भंडारे के दिन अफीम फैक्ट्री में तीन दिन की छुट्टी घोषित कर दी गई, क्योंकि सभी श्रमिक जेठ महीने की तपती गर्मी में बाढ़ आने की सूचना से मां गंगा का पानी देखने आश्रम पहुंच गए थे।
गंगाजल को घी में परिवर्तित कर दिया
मंदिर के मुख्य पुजारी के मुताबिक, भंडारे के दौरान घी कम पड़ गया। जब बाबा को इस स्थिति से अवगत कराया गया तो उन्होंने कहा कि मां गंगा का जल कड़ाही में डाला जाए। गंगाजल कड़ाही में डालते ही घी में परिवर्तित हो जाता था। भंडारा संपन्न होने के बाद पवहारी बाबा ने मां गंगा की चुनरी व घी से विदाई की थी। इसके बाद मां गंगा अपने पूर्ववत स्थान पर लौट गई थी। इसके बाद स्वामी पवहारी बाबा ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे से अग्नि प्रज्वलित कर स्वयं को भस्मीभूत कर लिया और सर्वदा के लिए ब्रह्मलीन हो गए। तभी से हर साल कुर्था स्थित आश्रम परिसर में भंडारे का आयोजन होता है।
स्वामी पवहारी बाबा के उपदेश
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