मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात भारत में जिन क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ, उनमें मराठे सबसे प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे। मराठा शक्ति के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के समय से ही मुगलों और मराठों के संघर्ष चलते आ रहे थे। औरंगजेब ने मराठों को नियंत्रित करने का भरपूर प्रयास किया किन्तु उसके अक्षम उत्तराधिकारियों के समय मराठा शक्ति का अनवरत विकास होता रहा।
18वीं शताब्दी में तीन पेशवाओं- बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव प्रथम और बालाजी बाजीराव ने मराठा शक्ति के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया था। इन्हीं के प्रयासों के चलते मराठा इतने शक्तिशाली हो गए कि वे मुगलों को पदच्युत कर दिल्ली पर कब्जा करने का स्वप्न देखने लगे। लेकिन दुर्भाग्यवश पानीपन के तृतीय युद्ध (14 जनवरी 1761 ई.) में मराठा शक्ति को गहरा आघात लगा। इस मौके का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने मराठा शक्ति को सर्वदा के लिए नष्ट कर दिया।
मराठों का गृह-क्लेश
मराठों के आपसी कलह ने अंग्रेजों को मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का मौका प्रदान किया। 1761 ई. में माधवराव पेशवा बना। वह एक कुशल सेनापति एवं योग्य कूटनीतिज्ञ था। 11 वर्षों की शासनावधि में उसने मराठों की खोई हुई शक्ति को बहुत हद तक पुनर्गठित किया। निजाम, मैसूर, रूहेले, राजपूत, जाट यहां तक कि मुगल बादशाह शाहआलम भी उसके प्रभाव में आ गए। माधवराव की बढ़ती शक्ति से अंग्रेज भी सशंकित हो उठे और किसी सुयोग्य मौके की ताक में रहने लगे जिससे कि मराठों की शक्ति नष्ट की जा सके।
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सौभाग्य से अंग्रेजों को यह मौका भी बहुत जल्द ही मिल गया। 1772 ई. में पेशवा माधवराव की मृत्यु के साथ ही मराठों में गृह कलह प्रारम्भ हो गया। माधवराव का छोटा भाई नारायणराव पेशवा बना जिसकी आयु अभी 17 साल ही थी। 1773 ई. में नारायण राव की हत्या करवाकर उसका चाचा रघुनाथ राव पेशवा बन बैठा। किन्तु नाना फड़नवीस का शक्तिशाली दल रघुनाथ राव का विरोधी था और नारायण राव के मरणोपरान्त जन्मे पुत्र माधवनारायण राव को पेशवा बनाना चाहता था। नाना फड़नवीस अपने इस उद्देश्य में सफल हो गया लिहाजा रघुनाथ राव भागकर बम्बई पहुंच गया और ईस्ट इंडिया कम्पनी से सहायता मांगी। इस प्रकार अंग्रेजों को मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का मनोवांछित मौका मिल गया।
अंग्रेजों का मराठों के साथ प्रथम युद्ध (1775-1782)
सूरत की सन्धि- (1775 ई.) - मराठों के नेता नाना फड़नवीस के सम्मुख स्वयं को प्रभावहीन पाकर रघुनाथ राव ने बम्बई जाकर ईस्ट इंडिया कम्पनी से सहायता मांगी। इधर बम्बई की ब्रिटीश सरकार रघुनाथ राव को अपने अधिकार में लेकर पूना पर आधिपत्य जमाने को उत्सुक थी। इसलिए बिना कलकत्ता कौंसिल की अनुमति लिए उसने रघुनाथ राव के साथ 7 मार्च 1775 ई. को सूरत की सन्धि की। इस सन्धि के अनुसार, बम्बई की सरकार ने रघुनाथ राव को पेशवा बनाने एवं सैनिक सहायता देने का वचन दिया। सेना का खर्च रघुनाथ राव को वहन करना था साथ ही सालसेट, बसीन नगर, भड़ौंच और सूरत कम्पनी को मिलने थे। रघुनाथ राव ने यह भी वचन दिया कि वह पूना दरबार से कोई भी संधि करेगा तो उसमें अंग्रेजों को सम्मिलित करेगा। इस प्रकार मई 1775 ई. में रघुनाथ राव की सहायता के लिए कर्नल कीटिंग के अधीन एक सेना भेजी गई। अर्रास नामक स्थान पर नाना फड़नवीस और अंग्रेजी सेना के मध्य युद्ध हुआ लेकिन कोई विशेष परिणाम नहीं निकला।
पुरन्दर की सन्धि (1776 ई.)- कलकत्ता कौंसिल जो उच्चतम परिषद थी, को बम्बई से सूरत सन्धि की प्रतिलिपि उस समय मिली जब अर्रास का युद्ध आरम्भ हो चुका था। ऐसे में कलकत्ता कौंसिल ने सूरत सन्धि को अस्वीकार कर दिया और इस युद्ध को अन्यायपूर्ण घोषित कर दिया। कलकत्ता कौसिंल ने कर्नल अपटन को पूना भेजा जिसने 1 मार्च 1776 ई. को पुरन्दर की सन्धि की। इस सन्धि के अनुसार, कम्पनी रघुनाथ राव का पक्ष नहीं लेगी लेकिन सालसेट कम्पनी के पास ही रहने दिया जाएगा। रघुनाथ राव को पेंशन देकर गुजरात भेज दिया गया। पूना दरबार से अंग्रेजों को क्षतिपूर्ति के रूप में 12 लाख रूपया भी मिला। हांलाकि यह सन्धि अस्थाई सिद्ध हुई क्योंकि लन्दन के डायरेक्टर्स ने सूरत की सन्धि को स्वीकृति दे दी तथा पुरन्दर की सन्धि को अस्वीकार कर दिया। ऐसे में बम्बई कौंसिल ने उत्साहित होकर सूरत संन्धि को पुनर्जीवित कर दिया।
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मराठों के प्रति वारेन हेस्टिंग्स की नीति- जहां एक तरफ अंग्रेज पूर्ववत रघुनाथ राव की सहायता कर रहे थे वहीं नाना फड़नवीस का फ्रांसीसियों के साथ सम्बन्ध बढ़ता जा रहा था। चूंकि नाना फड़नवीस का फ्रांसीसियों के साथ सम्बन्ध अंग्रेजों के लिए घातक हो सकता था अत: बम्बई की तरफ से एक सेना भेजी गई जिसे मराठों ने तलगांव के युद्ध में पराजित कर दिया। इसके बाद बाध्य होकर अंग्रेजों ने जनवरी 1779 ई. में बड़गांव की सन्धि की जिसके अनुसार समस्त विजित प्रदेश मराठों को लौटा दिए गए। अंग्रेजों ने अब रघुनाथ राव का पक्ष लेना बन्द कर दिया। पुरन्दर की सन्धि समाप्त कर दी गई। अंग्रेजों की सहायता के लिए बंगाल से आने वाली सेना को रोक दिया गया। हांलाकि वारेन हेस्टिंग्स इस अपमान को आसानी से स्वीकार करने वाला नहीं अत: उसने मराठों से युद्ध जारी रखने का फैसला किया। हेस्टिंग्स ने सेना के दो दल भेजे। एक सैन्य टुकड़ी कैप्टन पोफस के अधीन ग्वालियर पर आक्रमण करने के लिए तथा दूसरा सैन्य दल जनरल गाडर्ड के अधीन पूना पर आक्रमण करने के लिए। जनरल गाडर्ड मध्य भारत को रौंदता हुआ और अनेक स्थानों पर मराठों को पराजित करता हुआ 1780 ई. में अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया। यहां तक कि उसने गुजरात को भी रौंद डाला और बड़ौदा के गायकवाड़ को अपनी तरफ मिला लिया। कैप्टन पोफस ने भी ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। उसने सिपरी में सिन्धिया को करारी शिकस्त दी। इस प्रकार इन विजयों से अंग्रेजों की खोई हुई प्रतिष्ठा पुन: स्थापित हो गई।
सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) - उपरोक्त अनेक हारों से मराठे बौखला उठे। महादजी सिन्धिया के प्रयासों के फलस्वरूप अंग्रेजों तथा मराठों के बीच 17 मई 1782 ई. में सालबाई की सन्धि हुई, जिसने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध को समाप्त किया। दोनों पक्षों ने विजित क्षेत्र लौटा दिए। केवल सालसेट और एलीफैन्टा द्वीप अंग्रेजों के पास रहे। अंग्रेजों ने रघुनाथ राव की जगह माधवराव नारायण को पेशवा स्वीकार कर लिया। पेशवा की तरफ से रघुनाथ राव को पेन्शन मिलने लगी। यमुना नदी के पश्चिम के क्षेत्र पर सिन्धिया का पुन: अधिकार स्थापित हो गया। गौरतलब है कि इस सन्धि से प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध से पूर्व की स्थिति स्थापित हो गई। यद्यपि कम्पनी की प्रतिष्ठा बच गई परन्तु उसे भारी वित्तीय हानि उठानी पड़ी। हांलाकि अंग्रेजों को मराठों की सम्पूर्ण शक्ति का पता चला गया और 20 वर्षों तक दोनों पक्षों के बीच शान्ति बनी रही।
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लार्ड वेल्जली और मराठे
गर्वनर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस के विपरीत लार्ड वेल्जली ने देशी राज्यों के प्रति उग्र नीति अपनाई।1798 ई. में सर जॉन शोर के पश्चात मार्क्विस आफ वेल्जली भारत का गवर्नर जनरल बना। भारत आगमन के समय 37वर्षीय वेल्जली ने तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ‘सहायक सन्धि’ की नीति अपनाई। इस सहायक सन्धि के जाल में अंतत: मराठों को भी फंसना पड़ा। मराठा मंडल की पांच प्रमुख शक्तियों में ‘पूना का पेशवा, बड़ौदा का गायकवाड़, ग्वालियर का सिन्धिया, इंदौर का होल्कर तथा नागपुर का भोंसले’ ही शेष बचे थे, पेशवा इनका नेता था। 18वीं शताब्दी के अंत तक प्रमुख प्रभावशाली और योग्य मराठा सरदारों की मृत्यु हो चुकी थे। मराठा मंडल छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो चुका था और इनके बीच आपसी संघर्ष भी जारी थे। इन परिस्थितियों में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध ने मराठों की शक्ति को तोड़कर रख दिया।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1806 ई.)-
पूना में नाना फड़नवीस की मार्च 1800 में मृत्यु हो गई। पूना के तत्कालीन ब्रिटिश रेजीडेन्ट कर्नल पामर के अनुसार, “नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ ही मराठों में सूझबूझ भी समाप्त हो गई।” पेशवा बाजीराव ने अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए मराठा सरदारों में झगड़े करवाए। दौलतराव सिन्धिया तथा यशवंतराव होल्कर दोनों ही पूना में अपनी श्रेष्ठता जमाना चाहते थे। इसमें सिन्धिया सफल रहा तथा बाजीराव पर सिन्धिया का प्रभुत्व जम गया। 12 अप्रैल 1800 ई. को गर्वनर जनरल ने मराठा पेशवा से सहायक सन्धि का प्रस्ताव रखा जिसे बाजीराव द्वितीय ने अस्वीकार कर दिया।
बाद में पूना की परिस्थितियों ने गम्भीर रूप धारण कर लिया। 1801 ई. में पेशवा ने यशवंतराव होल्कर के भाई विट्ठूजी की निर्मम हत्या कर दी। ऐसे में होल्कर ने पूना पर आक्रमण न केवल पेशवा और सिन्धिया की सेनाओं को पराजित किया बल्कि पूना पर अधिकार भी कर लिया। उसने अमृतराव के पुत्र विनायक राव को पूना की गद्दी पर बैठा दिया। बाजीराव द्वितीय ने भागकर बसीन में शरण ली और अंग्रेजों के साथ सहायक सन्धि स्वीकार कर ली।
बसीन की सन्धि (सहायक सन्धि, 31 दिसम्बर 1802 ई.)-
- सन्धि के अनुसार, पेशवा ने पूना में भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की सेना रखना स्वीकार किया।
- अंग्रेजी सैन्य खर्च के लिए पेशवा ने 26 लाख रुपए की वार्षिक आमदनी वाले क्षेत्र (गुजरात, ताप्ती तथा नर्मदा के मध्य के प्रदेश व तुंगभद्रा नदी के समीपवर्ती प्रदेश) कम्पनी को दे दिए।
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- पेशवा ने सूरत नगर कम्पनी को दे दिए तथा निजाम से चौथ वसूलने का अधिकार छोड़ दिया तथा गायकवाड़ के विरूद्ध युद्ध न करने का वचन दिया।
- समस्त वैदेशिक मामले कम्पनी के अधीन कर दिए गए।
- पेशवा ने अपनी सेना से सभी अंग्रेज विरोधी और यूरोपीय लोगों को सेवानिवृत्त कर दिया।
- इतना ही नहीं पेशवा ने वचन दिया कि वह गायकवाड़ तथा निजाम से अपने झगड़ों का निपटारा अंग्रेजों की सहायता से करेगा। इस प्रकार इस सन्धि से पेशवा की स्वतंत्रता की समाप्त हो गई और वह अंग्रेजों की कठपुतली मात्र बन गया।
अंग्रेजों का सिन्धिया और भोंसले के साथ संघर्ष- सहायक सन्धि मराठों के लिए अपमान का विषय थी, इसलिए भोंसले ने अंग्रेजों को युद्ध की चुनौती दी। हांलाकि गायकवाड़ तथा होल्कर अलग ही रहे। फिर क्या था, वैल्जली तथा लेक ने दक्षिण तथा उत्तरी भारत में मराठों को परास्त कर उन्हें अपमानजनक सन्धियां करने पर बाध्य किया। देवगांव की सन्धि के तहत भोंसले ने कटक और वर्धा नदी के पश्चिम भाग अंग्रेजों को दे दिए। यहां तक कि 1803 ई. में अंग्रेजों ने सिन्धियां और भोंसले की सम्मिलित सेनाओं को असई के युद्ध में पराजित कर दिया। अरगांव के युद्ध में भी सेनापति वैल्जली ने उन्हें मात दे दी।
कैप्टन लेक की अगुवाई वाली सेना ने उत्तर भारत के लासवाड़ी में सिन्धिया की सेना को करारी शिकस्त दी और अलीगढ़, दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया। इन पराजयों से झुब्ध होकर भोंसले और सिन्धिया ने सूर्जी-अर्जुन गांव की सन्धि की। इस सन्धि के तहत मराठों ने गंगा तथा यमुना के बीच के क्षेत्र कम्पनी को दे दिए। इसके साथ ही जयपुर, जोधपुर तथा गोहद की राजपूत रियासतों पर अपना प्रभुत्व छोड़ दिया। यहां तक कि अहमदनगर का किला, भड़ौंच, गोदावरी तथा अजन्ता घाट भी कम्पनी को दे दिए।
होल्कर के साथ युद्ध- जिस समय सिन्धिया और भोंसले अंग्रेजों के साथ संघर्षरत थे, होल्कर तमाशा देख रहा था। जब वैल्जली ने होल्कर के समक्ष भी सहायक सन्धि का प्रस्ताव रखा तो उसने अस्वीकार कर दिया और भरतपुर के जाट रियासत से मदद लेकर अंग्रेजों का कड़ा मुकाबला किया। होल्कर को कई युद्धों में हार का मुंह देखना पड़ा। इंदौर पर अंग्रेजों का अधिकार होने की वजह से वह भागकर भरतपुर के राजा के पास चला गया। ऐसे में जनरल लेक ने भरतपुर दुर्ग को कई बार जीतने का प्रयास किया लेकिन वह असफल रहा। वैल्जली की अग्रगामी नीति से असंतुष्ट होकर तथा कम्पनी के बढ़ते खर्च से घबराकर संचालकों ने उसे वापस बुला लिया। इसके पश्चात कम्पनी के अस्थाई गवर्नर जनरल जॉर्ज बार्लो ने जनवरी 1806 ई. में राजघाट की सन्धि कर ली, इसी के साथ द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त हो गया। बता दें कि राजघाट की सन्धि के तहत मराठा सरदार ने चम्बल नदी के उत्तरी प्रदेश, बुन्देलखण्ड छोड़ दिए। इसके अलावा पेशवा तथा कम्पनी के मित्रों पर भी अपना अधिकार छोड़ दिया। हांलाकि द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध ने मराठों की शक्ति को बुरी तरह कुचल दिया था लेकिन वे अभी पूर्णत: पराजित नहीं हुए थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी को मराठों के साथ शीघ्र ही तीसरा युद्ध भी लड़ना पड़ा जिसमें मराठे अंतिम रूप से पराजित हो गए।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18 ई.)
द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध तक मराठे पस्त हो चुके थे, उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा दोनों को भारी क्षति पहुंची थी। इनके सबके बावजूद मराठों ने अभी हार नहीं मानी थी। पेशवा अंग्रेजों के चंगुल में फंसकर कसमसा रहा था। अत: उसने 1817 ई. में सभी मराठों सरदारों को संगठित कर मराठों के पुराने गौरव को स्थापित करने का प्रयास किया, परन्तु इस संकट की घड़ी में भी मराठे एकजुट नहीं हो सके।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध की शुरूआत गर्वनर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज के आने पर हुई। उसने फिर आक्रान्ता का रूख अपनाया तथा भारत में अंग्रेजों की सर्वश्रेष्ठता बनाए रखने का प्रयत्न किया। वर्ष 1805 के पश्चात शान्तिकाल में मराठे स्वयं को सुदृढ़ बनाने के बजाय आपसी कलह में व्यस्त रहे।
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हेस्टिंग्ज के पिण्डारियों के विरूद्ध अभियान से मराठों के प्रभुत्व को चुनौती मिली क्योंकि अधिकांश मराठा सरदारों के सेना में पिण्डारी मौजूद थे अत: दोनों दल युद्ध में खिंच आए। पिण्डारियों के विरूद्ध अभियान के कारण हेस्टिंग्ज ने नागपुर के राजा को मई, 1816 में, पेशवा को जून, 1817 में तथा सिन्धिया को नवम्बर 1817 में अपमानजनक सन्धियां करने पर मजबूर कर दिया।
विवश होकर पेशवा ने एक बार फिर से अंग्रेजों के बन्धन से मुक्ति पाने का प्रयास किया। इस क्रम में पेशवा की किर्की के स्थान पर, भोंसले की सीताबर्डी के स्थान पर तथा होल्कर की महीदपुर के स्थान पर पराजय नसीब हुई। मराठों की पूरी सेना अंग्रेजी सेना से हार गई। बाजीराव द्वितीय को पेशवा की गद्दी से उतार दिया गया। पेशवा पद समाप्त हो गया। पेशवा को 18 लाख रुपए वार्षिक की पेन्शन देकर बिठूर (कानपुर के पास) में रहने को कहा गया। पूना का एक भाग शिवाजी के वंशज को देकर शेष भाग सतारा में प्रतिस्थापित कर दिया गया। शेष छोटे-छोटे राज्य कम्पनी के अधीन हो गए।
पेशवाओं से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
पेशवा- राजा का प्रधानमंत्री, सरकारी पत्रों तथा दस्तावेजों पर राजा के नीचे पेशवा की मुहर लगती थी।
मजूमदार- आय-व्यय का निरीक्षक।
मिरासदार- जमींदार।
पाटिल- गांव का मुखिया।
कुलकर्णी- भूमि का लेखा-जोखा रखता था।
चौगुले- पटेल का सहायक तथा कुलकर्णी के लेखों की देखभाल करता था।
बारह वलूटे- गांव की औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।
मामलतदार एवं कामविसदार- ग्रामों में कर निर्धारण पटेल के परामर्श से करते थे। इसके अतिरिक्त ये जिले में पेशवा के प्रतिनिधि होते थे।
देशमुख - मामलतदार के उपर नियंत्रण रखते थे।
देशपांडे- इनकी पुष्टि के बिना कोई भी लेखा स्वीकार नहीं किया जाता था।
- पेशवाओं की शक्ति का उत्थान शाहूजी व राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई के बीच जारी गृह युद्ध के दौरान हुआ।
- ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ को शाहूजी महाराज का पेशवा बनने का अवसर मिला।
- 1719 ई.में बालाजी विश्वनाथ मराठों की सेना लेकर दिल्ली पहुंचे औैर मुगल बादशाह फर्रूखसियर को हटाने में सैयद बन्धुओं की मदद की।
- इतिहासकार रिचर्ड टेम्पेल ने मुगल सूबेदार हुसैन अली और बालाजी विश्वनाथ के बीच 1719 ई. में हुई सन्धि को मराठा साम्राज्य के मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी है।
- बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद पेशवा का पद पैतृक हो गया। शाहू ने बालाजी विश्वनाथ के पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त किया।
- मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए बाजीराव प्रथम ने कहा, “हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर आक्रमण करना चाहिए, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जाएंगी।”
- लगभग सभी युद्धों में अजेय रहने वाले बाजीराव प्रथम को लड़ाकू पेशवा के रूप में स्मरण किया जाता है।
- बाजीराव प्रथम और दक्कन के निजाम के बीच 6 मार्च 1728 ई. को मुंशी शिवगांव की सन्धि हुई। इस सन्धि से दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। निजाम ने मराठों को चौथ और सरदेशमुखी देना स्वीकार कर लिया।
- बाजीराव प्रथम ने हिन्दू पादशाही का आदर्श रखा।
- बाजीराव प्रथम की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा बना।
- बालाजी बाजीराव के काल में पानीपत का तृतीय युद्ध (14 जनवरी 1761 ई.) लड़ा गया था।
- अहमदशाह अब्दाली के विरूद्ध मराठा सेना का नेतृत्व बालाजी बाजीराव का नाबालिग पुत्र विश्वास राव कर रहा था लेकिन वास्तविक सेनापति उसका चचेरा भाई सदाशिव राव भाउ था।
- मराठा फौज के तोपखाने का नेतृत्व इब्राहिम खां गर्दी कर रहा था।
- पानीपत के तृतीय युद्ध में विश्वास राव, सदाशिव राव, तुकोजी सिन्धिया सहित अनगिनत मराठा सरदार मारे गए थे।
पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों के पराजय की सूचना पेशवा बालाजी बाजीराव को एक व्यापारी ने कूट सन्देश के रूप में कुछ इस तरह से पहुंचाई थी- “दो मोती विलीन हो गए, बाइस सोने की मुहरें लुप्त हो गईं और चांदी तथा तांबे की तो पूरी गणना ही नहीं की जा सकती।”
- बालाजी बाजीराव की अकस्मात मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र माधव राव प्रथम पेशवा बना।
- माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद 17 वर्षीय नारायणराव पेशवा हुआ, लेकिन रघुनाथराव ने उसकी हत्या करवा दी।
- नारायणराव की हत्या के पश्चात नाना फड़नवीस के दल ने उसके पुत्र माधवराव नारायण को पेशवा नियुक्त किया।
- पेशवा माधवराव नारायण के शासनकाल में प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782 ई.) हुआ।
- माधवराव नारायण की मृत्यु के पश्चात रघुनाथ राव का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना।
- पेशवा बाजीराव द्वितीय के शासनकाल में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1806 ई.) और तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818 ई.) हुआ, इसके पश्चात मराठों का पतन हो गया।
मराठों द्वारा की गई ऐतिहासिक संन्धियां
22 जून, 1165 ई. पुरन्दर की सन्धि— मुगल सेनापति जयसिंह और शिवाजी के बीच।
1775 ई. सूरत की सन्धि— रघुनाथ राव और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच।
1776 ई. पुरन्दर की सन्धि— पेशवा माधवराव नारायण राव एवं अंग्रेज।
1779 ई. बड़गांव की सन्धि— पेशवा माधव नारायण राव एवं अंग्रेज।
1782 ई. सालबाई की सन्धि— पेशवा माधव नारायण राव एवं अंग्रेज।
31 दिसम्बर, 1802 ई.बसीन की सन्धि — पेशवा बाजीराव द्वितीय एवं अंग्रेज।
17 दिसम्बर 1803, देवगांव की सन्धि— भोंसले एवं अंग्रेज।
30 दिसम्बर 1803, सुर्जी-अर्जुन गांव की सन्धि— सिन्धिया एवं अंग्रेज।
1804 ई., राजापुर घाट की सन्धि— होल्कर एवं अंग्रेज।
13 जून 1817 ई., पूना की सन्धि— बाजीराव द्वितीय एवं अंग्रेज।
5 नवम्बर 1817 ई., ग्वालियर की सन्धि— दौलतराव सिन्धिया व अंग्रेज।
6 जनवरी 1818 ई., मंदसौर की सन्धि— होल्कर एवं अंग्रेज।
सम्भावित प्रश्न-
1- 1775-82 के मध्य मराठों एवं ईस्ट इंडिया कम्पनी के संबंधों का विश्लेषण कीजिए ?
2- गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स और मराठों के संबंध कैसे थे, वर्णन कीजिए?
3- लार्ड वैल्जली द्वारा मराठों के साथ की गई प्रमुख सहायक सन्धियों का उल्लेख कीजिए?
4- 1782-1818 ई. के बीच मराठों और ईस्ट इंडिया कम्पनी के सम्बन्धों का उल्लेख करें। इन घटनाओं का दोनों शक्तियों पर क्या प्रभाव पड़ा?
5- मराठों के पतन के उत्तरदायी कारणों की समीक्षा करें?
6- प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान हुई सूरत की सन्धि, पुरन्दर की सन्धि और सालबाई की सन्धि पर टिप्पणी लिखिए?