ठग शब्द का प्रयोग आजकल प्राय: उन व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जो धोखे से रुपया छीन लेते हैं, लेकिन अंग्रेजी शासनकाल में ठग, डाकुओं और हत्यारों का एक समूह था जो निर्दोष तथा अरक्षित व्यक्तियों को लूट कर निर्वाह करते थे। सम्भवत: ठगों के लिए सबसे उपयुक्त शब्द ‘फांसीगर’ था। इस शब्द की उत्पत्ति रूमाल के फंदे से हुई है, जिससे ठग अपने शिकार का गला घोंट देते थे। ठगों का पहला नियम यह था कि कत्ल करते वक्त एक बूंद भी खून नहीं बहना चाहिए। दूसरा नियम यह कि किसी भी कीमत पर औरत या फिर बच्चे की हत्या नहीं होनी चाहिए। ठगों का तीसरा नियम था कि जब धन मिलने की उम्मीद कत्तई न हो तब हत्या बिल्कुल नहीं होनी चाहिए।
भारतीय इतिहास में ठगों के सन्दर्भ में सर्वप्रथम उल्लेख वर्ष 1357 ई. में जियाउद्दीन बरनी की रचना तारीख-ए-फिरोजशाही में मिलता है। तारीख-ए-फिरोजशाही में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के द्वारा तकरीबन 1000 ठगों को कैद कर लखनौती या गौड़ भेजे जाने की घटना का वर्णन है। इनमें से किसी भी ठग को सुल्तान जलालुद्दीन ने कोई कठोर दंड नहीं दिया वरन इन ठगों को यह आदेश दिया कि वे केवल लखनौती में ही रहेंगे और दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों में किसी को परेशान नहीं करेंगे।
वास्तव में मुगल साम्राज्य के पतन के समय जब पुलिस व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई तो उस समय ठगों को अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाने का अवसर मिल गया। मार्ग असुरक्षित हो गए। ठगों ने अपने समूह बना लिए और इनकी संख्या भी काफी बढ़ गई। छोटे-छोटे रियासतों के पदाधिकारी इनसे निपटने में असफल रहे और प्राय: इन्हीं के साथ मिल गए। अवध (संयुक्त प्रांत) से लेकर zहैदराबाद तक, राजपूताना तथा बुन्देलखण्ड के समस्त क्षेत्रों में ठगों ने आतंक मचा रखा था।
साल 1839 में प्रकाशित किताब 'कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग' से हमें हिन्दुस्तानी ठगों के बारे में सबसे दिलचस्प और पुख़्ता जानकारी मिलती है। तकरीबन साढ़े पांच सौ पन्नों की इस किताब को पुलिस सुपरिटेंडेंट फ़िलिप मीडो टेलर ने लिखा है।
अपनी किताब में टेलर ने लिखा है, "अवध से लेकर दक्कन तक ठगों का जाल फैला था, उन्हें पकड़ना इसलिए बहुत मुश्किल था क्योंकि वे बहुत ख़ुफ़िया तरीके से काम करते थे। ठग अपना काम योजना बनाकर और बेहद चालाकी से करते थे ताकि किसी को शक न हो। इसी वजह से ठगों को आम जनता से अलग करना बेहद मुश्किल काम था"
ठगों का मजहब
ठगी का धंधा सैकड़ों वर्षों तक केवल इसलिए जीवित रहा क्योंकि ठगों के गिरोह में हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के अनुयायी सम्मिलित थे। ठग लोग प्राय: मां काली या भवानी की पूजा करते थे। ठग अपने शिकार का सिर काटकर मां भवानी के चरणों में बलि के रूप में चढ़ाते थे। ठगों का ऐसा विश्वास था कि उनका धन्धा विधि का विधान है तथा उनके शिकार की मृत्यु उनके भाग्य में उसी प्रकार लिखी होती थी। ठगों का ऐसा भी मानना था कि मां काली ने उन्हें धरती पर लोगों के संहार के लिए भेजा है।
ठग लोग शुभ मूहूर्त देखकर, विधि-विधान से मां काली की पूजा-पाठ करके अक्सर दुर्गा पूजा से लेकर होली के बीच में अपने वारदात को अंजाम देते थे। चूंकि तेज गर्मी अथवा बरसात के मौसम में मुसाफिर भी कम ही चलते थे, ऐसे में इन दिनों में ठग भी शान्त पड़े रहते थे।
अनेक कलाओं में पारंगत थे ठग
सामान्य तौर पर ठगों का गिरोह 20 से 50 तक का होता था लेकिन कभी-कभी इनकी संख्या 400 तक पहुंच जाती थी। ये क्रूर ठग एक-एक दर्जन व्यक्तियों की एक ही समय में हत्या कर देते थे। वे आम तौर पर तीन दस्तों में चलते थे, एक पीछे, एक बीच में और एक आगे। ज्यादातर ठग अनेक कलाओं में प्रवीण थे, जैसे- गाना-बजाना, भजन-कीर्तन, नात-क़व्वाली आदि। कुछ ठग अनेक भाषाएं भी जानते थे, वे अपने जरूरत के हिसाब से बाराती, तीर्थयात्री, जायरीन व नकली शवयात्रा निकालने वाले बन जाते थे। जरूरत पड़ने पर ठग कभी-कभी सिपहसालार, मौलवी, पंडित, सेठ बनकर अपने शिकार से मिलते थे। ठग दिनभर में कई बार अपना रूप बदलने में माहिर थे और शिकार को इस बात की तनिक भी भनक नहीं लगने देते थे।
कोड वर्ड का इस्तेमाल करते थे ठग
ठग लोगों का निशाना अक्सर तीर्थयात्री होते थे। ठग लोग पहले मुसाफिरों की टोली में शामिल हो जाते थे, इसके बाद उनसे मेलजोल बढ़ाकर उनका भरोसा जीत लेते। ठग कई-कई दिन इंतजार भी करते थे और मौका देखकर अपने काम को अंजाम देते थे।
ठग लोगों की अपनी भाषा थी जिसे ‘रामसी’ कहा जाता था। यात्रियों को लूटने से पहले ठगों की टुकड़ी शकुन और अपशकुन का भी खासा ध्यान रखती थी, जैसे- क़ौव्वे के बोलने तथा उड़ने, बिल्लियों के झगड़ने, उल्लू के बोलने, मोर के चिल्लाने तथा लोमड़ी आदि के दिखने पर अपने हिसाब से मतलब निकालते थे। अपने शिकार को लूटकर उसकी हत्या करने से कुछ क्षण पूर्व ठगों का सरदार ‘हुक्का पिलाओ’ अथवा ‘सुर्ती खा लो’ जैसे इशारों का इस्तेमाल करता था। इसके तुरन्त बाद ही ठग लोग शिकार पर हमला कर देते थे।
ठगों को खतरे से आगाह कराने के लिए मुसाफिरों की टोली के पीछे भी एक गिरोह चलता था, जो इस बात की निगरानी रखता था कि कोई पीछे से तो नहीं आ रहा है। खतरा दिखने पर ठग लोग भागने के लिए ‘लोपी खान आ गया’ अथवा “लुचमुन सिंह आ गया” जैसे कोर्ड वर्ड का इस्तेमाल करते थे।
शिकार को ठिकाने लगाने में प्रवीण थे ठग
ठगों के दल पूरी तरह से संगठित थे। कुछ लोग भेदिए का कार्य करते थे, कुछ गला घोंटने में माहिर थे तथा कुछ कब्रें खोदकर मृतकों को तुरन्त ठिकाने लगा देते थे। मुसाफिरों की टोली के सबसे आगे भी ठगों का एक ऐसा दल रहता था। एक बार शिकार की पहचान हो जाने पर कारवां में शामिल ठग अगले दस्ते को यह बताता था कि कितने लोगों के लिए कब्रें खोदनी हैं। ठग लोग रामसी भाषा में कब्र को ‘बेल’ कहते थे। कब्र खोदने के लिए जिस कुदाल का इस्तेमाल होता था, उसे कस्सी कहा जाता था। ठग अपने साथ एक छोटा सा झोला लेकर भी चलते थे जिसे ‘लुटकुनिया’ कहते थे।
कब्र खोदने से पहले ठग लोग कुदाल (कस्सी) की बकायदा पूजा करते थे। कुदाल को गुड़, दही और शराब से नहलाकर उस पर पान-फूल चढ़ाया जाता था। इसके बाद कुदाल को टीका लगाकर नारियल फोड़ने की रस्म होती थी, नारियल फूटने पर ठग लोग ‘देवी माई की जै’ बोलते थे। ठग लोग गहरी कब्र खोदते थे क्योंकि मृतकों को एक ही कब्र में दफनाया जाता था। ठगों का अनुशासन इतना सफल और कठोर था कि असफल प्रयत्न का एक भी मामला ब्रिटीश सरकार के सन्मुख कभी नहीं आया।
गला घोंटने के लिए रूमाल का इस्तेमाल
ठगों की टोली में शामिल 12-15 तंदुरुस्त मर्द ऐसे होते थे जो केवल मुसाफिरों का गला घोंटने का काम करते थे। शिकार का गला घोंटने के लिए ठग पीले रूमाल का इस्तेमाल करते थे जिसमें गांठ बांधकर एक सिक्का लगा होता था। रूमाल को शिकार के गले में डालकर मरोड़ा जाता, जिससे दम घुटने से उसकी मौत हो जाती थी। रूमाल से गला घोंटकर हत्या करने की प्रक्रिया को ‘झिरनी’ कहा जाता था। मुसाफ़िरों की हत्या कर उसका सबकुछ लूटने के बाद लाशों को पहले से ही खुदी हुई कब्रों में इस तरकीब से डाला जाता था ताकि कम-से-कम जगह में ज्यादा लाशें आ सकें। कब्र को शीघ्रता से ढककर उस पर कांटेदार झाड़ियां लगा दी जाती थीं। ठग लोग पूरा का पूरा कारवां ही गायब कर देते थे, और अपने काम को अंजाम देने के बाद खुद भी गायब हो जाते थे।
उत्तर से लेकर दक्कन तक ठगों का आतंक
हिन्दुस्तान में उत्तर से लेकर दक्कन तक ठगों ने आतंक मचा रखा था। सैकड़ों कुख्यात ठग ऐसे थे जिनकी देखरेख में ठगी का धंधा चल रहा था। इनमें बहराम खां तथा आमिर अली जैसे शातिर ठगों का नाम ब्रिटीश रिकॉर्ड में दर्ज है।
ठगों के सरदार आमिर अली से जब पुलिस सुपरिटेंडेंट फ़िलिप मीडो टेलर ने पूछा कि अब तक तुमने कितने लोगों को मारा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे साहब, वो तो मैं पकड़ा गया, नहीं तो हज़ार पार कर लेता। आप लोगों ने 719 पर ही रोक दिया।" आमिर अली की निशानदेही पर 1838 ई. में बहराम खां की गिरफ्तारी हुई थी। बहराम खां का नाम दुनिया के सबसे खतरनाक सीरियल किलर के रूप में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज़ है। बहराम खां एक ऐसा ठगों का सरदार था जिसके दल में तकरीबन 2000 ठग काम करते थे। बहराम खां को जब पकड़ा गया तब वह 936 लोगों का क़त्ल कर चुका था।
ठगों के खात्मे के लिए कर्नल स्लीमैन की नियुक्ति
राहगीरों को लूटकर उनकी हत्या करने वाले ठगों के आतंक से मुक्ति पाने के लिए गर्वनर जनरल विलियम बैंटिक ने कर्नल स्लीमैन को नियुक्त किया। देश में ऐसा पहली बार हो रहा था कि ठगों के विरूद्ध कार्यवाही करने के लिए भारत की जनता ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया का साथ दिया।
स्थानीय रियासतों को भी इस अभियान में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया। कर्नल स्लीमैन ने तकरीबन 1500 ठगों को बन्दी बना लिया। अनेक ठगों को फांसी दे दी गई। शेष को आजीवन निर्वासित कर दिया गया। 1837 ई. के बाद संगठित रूप में ठगों का अन्त हो गया, यद्यपि इक्के-दुक्के दुश्चरित्र लोग यह कार्य करते रहे।
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