हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप के पास महज 7000 सैनिक बचे थे जबकि कुम्भलगढ़, गोगुंदा, उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था। ऐसे में महाराणा प्रताप ने जंगलों की शरण ली। चूंकि बचपन के दिनों से ही प्रताप ने भील और गरासिया जनजाति के लोगों से रिश्ता बनाए रखा था, ये लोग जंगलों में छिपने, बिना आवाज किए चलने, भेष बदलने और जंगल में क्या खाना है, इन सबमें महारत हासिल थी। चूंकि महाराणा प्रताप ने भीलों को जागीरें भी बांटी थी, जिसके चलते वो इनके प्रति अपनी निष्ठा रखते थे।
इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा के मुताबिक भीलों की सहायता से महाराणा प्रताप ने जंगल में रहते हुए मुगल सेना के खिलाफ छापामार युद्ध की शुरूआत की। चूंकि महाराणा की आर्थिक स्थिति कमजोर हो चुकी थी, ऐसे में चूलिया ग्राम के नजदीक दोलाप गांव में भामाशाह और उसके भाई ताराचंद ने महाराणा प्रताप को 25 लाख रुपए और दो हज़ार स्वर्ण अशर्फियां दी। भामाशाह द्वारा दिए गए इस धन से तकरीबन 25 हजार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी। इस प्रकार महाराणा प्रताप ने राजपूतों, कोल-भीलों को संगठित कर 40000 घुड़सवार सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार की।
वर्ष 1582 ई. में वर्षा ऋतु समाप्त होते ही महाराणा प्रताप ने पश्चिमी मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित मुगल चौकियों और थानों के विरुद्ध कार्रवाई शुरू कर दी। इस क्रम में अक्टूबर 1582 में विजयदशमी के दिन महाराणा प्रताप ने दिवेर पर आक्रमण किया। कुम्भलगढ़ से करीब 40 किलोमीटर दूर अरावली पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित दिवेर वर्तमान में राजसमंद जिले में स्थित है। हांलाकि यह जगह पहले मेवाड़ के ही अधीन था। दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को दो भागों में बांट दिया। एक सैन्य टुकड़ी की कमान खुद अपने हाथों में ले रखी थी जबकि दूसरी सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व अमरसिंह कर रहे थे। इस युद्ध में स्थानीय रावत राजपूतों ने भी मुगल सेना पर भीषण प्रहार किए थे। जबकि मुगल सेना का सेनापति अकबर का चाचा सुल्तान खान था, जो कि दिवेर का किलेदार भी था। सुल्तान खान युद्ध के शुरूआत में एक हाथी पर सवार था, लेकिन जब महाराणा प्रताप ने अपने भाले से हाथी पर प्रहार किया तो वह घोड़े पर सवार हो गया। दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने अनुपम शौर्य का प्रदर्शन किया था। अमरसिंह ने अपने भाले से इतना जबरदस्त प्रहार किया था कि मुगल सेनापति सुल्तान खान को चीरते हुए घोड़े के आर-पार निकलकर जमीन में धंस गया था। सुल्तान खान की ऐसी दुर्गति देखकर मुगल सेना में भयंकर भगदड़ मच गई। मेवाड़ के योद्धाओं ने मुगल सेना को अजमेर तक खदेड़ दिया था। कहा जाता है कि दिवेर के जंग में मेवाड़ी राजपूतों ने मुगल सेना को गाजर-मूली की तरह काटकर रख दिया था। विजयदशमी के दिन महाराणा प्रताप के समक्ष तकरीबन 36 हजार मुगल सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। दिवेर में मिली निर्णायक जीत के बाद महाराणा प्रताप ने एक ही दिन में 36 मुग़ल चौकियों पर अपना अधिकार कर लिया।
इतिहासकार कर्नल टाड ने दिवेर के युद्ध को ‘प्रताप के गौरव का प्रतीक’ माना और ‘मेवाड़ का मैराथन’ की संज्ञा दी। महाराणा प्रताप जब कुम्भलगढ़ की तरफ गए तो कुम्भलगढ़ किले की सुरक्षा में तैनात मुगल सैनिक किले को छोड़कर भाग खड़े हुए। इस प्रकार कुम्भलगढ़ पर अधिकार करने के पश्चात महाराणा प्रताप ने जावर पर भी अधिकार कर लिया।
इस प्रकार कुम्भलगढ़, गोगुंदा, बस्सी, चावंड, मदारिया,मोही और उदयपुर पर मेवाड़ियों का फिर से कब्जा हो गया। कुल मिलाकर महाराणा प्रताप ने सिर्फ चित्तौड़ को छोड़कर मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए। यह भी कह सकते हैं कि महाराणा प्रताप ने मेवाड़ का 85 फीसदी भूभाग मुगलों से आजाद करा लिया।
मुगल सम्राट अकबर ने 5 दिसम्बर 1584 ई. को आमेर से भारमल के छोटे पुत्र जगन्नाथ कछवाहा को प्रताप के विरुद्ध भेजा लेकिन जगन्नाथ कछवाहा को भी इसमें कुछ भी सफलता हाथ नहीं लगी अपितु मांडलगढ़ में जगन्नाथ कछवाहा की मृत्यु हो गई। अब महाराणा प्रताप ने आमेर के मान सिंह और जगन्नाथ कछवाहा से प्रतिशोध लेने के लिए आमेर राज्य के एक संपन्न कस्बे मालपुरा को लूटा व झालरा तालाब के निकट नीलकंठ महादेव मंदिर का निर्माण करवाया। 1585 ई. में महाराणा प्रताप ने चावण्ड से लूणा राठौड़ को खदेड़कर उस सारे क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और चावण्ड को अपनी आपातकालीन राजधानी बनाया और अपने महल आदि के साथ ही चामुण्डा माता का मंदिर बनवाया।
बता दें कि जगन्नाथ कछवाहा की असफलता के बाद अकबर ने अपने किसी भी सेनानायक को मेवाड़ की ओर नहीं भेजा। महाराणा प्रताप के आखिरी 12 वर्ष शान्तिपूर्ण व्यतीत हुए किन्तु निरन्तर युद्धों के कारण प्रताप का शरीर निर्बल हो चुका था। एक दिन 1597 ई. में धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हुए महाराणा प्रताप के पैर में चोट लगी जिसके कारण 19 जनवरी 1597 ई. को उनकी चावंड में मृत्यु हो गई। चावंड से 11 मील दूर बांडोली गांव के निकट बहने वाले नाले के तट पर महाराणा का दाह संस्कार किया गया जहां पर खेजड़ बांध के किनारे 8 खम्भों की छतरी आज भी हमें उस महान योद्धा की याद दिलाती है।
महाराणा प्रताप के आत्मविश्वास, अदम्य साहस, असीम धैर्य, महावीरता और परिश्रम से स्वयं बादशाह अकबर भी प्रभावित था। मेवाड़ के इस महान आत्मा के निधन की खबर जब मुगल सम्राट अकबर को दी गई तो वह भी स्तब्ध रह गया और प्रताप के गुणों को स्मरण करते हुए उसकी आंखों से आंसू निकल आए। अकबर की मनोदशा का वर्णन उसके दरबार में उपस्थित दुरसा आढ़ा ने कुछ इस प्रकार से किया-
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी
उपरोक्त पंक्तियों का भावार्थ- “तूने अपने घोड़े को शाही दाग नहीं लगने दिया, तूने अपनी पगड़ी कभी किसी दूसरे के सामने नहीं रखी। तू अपने राज्य की धुरी को अपने बाएं कंधे से ही चलाता रहा, तू न तो नौरोज में गया और न ही शाही डेरों में। तू शाही झरोखों के नीचे नहीं गया, प्रत्युत तेरी श्रेष्ठता के कारण दुनिया दहलती थी। अत: हे प्रताप सिंह तेरी मृत्यु पर बादशाह अकबर ने दांतों के बीच अपनी जीभ दबाई, नि:श्वासें छोड़ीं और उसकी आंखों में आंसू भर आए। हे गहलोत राणा प्रताप वास्तव में तेरी ही विजय हुई।”