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What revolutionary changes did Dr. Ambedkar want in the society through Hindu Code Bill?

हिन्दू कोड बिल के जरिए समाज में कौन-कौन से क्रांतिकारी बदलाव चाहते थे डॉ.अम्बेडकर?

भारत के आजादी मिलने तक हिन्दू समाज कई रूढ़िवादी परम्पराओं को जारी रखे हुए था। बतौर उदाहरण- समाज में पुरुष और महिला तलाक के अधिकार से वंचित थे। मर्दों को बहुविवाह की आजादी थी, विधवाएं पुनर्विवाह नहीं कर सकती थीं। इतना ही नहीं विधवाओं को उनकी संपत्ति से भी वंचित रखा गया था।

बता दें कि आजाद भारत में डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने 11 अप्रैल 1947 को संविधान सभा के समक्ष हिंदू कोड बिल पेश किया था। इस बिल के तहत बिना वसीयत किए मृत्यु को प्राप्त होने वाले हिंदू पुरुषों और महिलाओं की संपत्ति के बंटवारे के संबंध में कानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव किया गया था। 

यह विधेयक मृतक की विधवा पत्नी, पुत्र और पुत्री को उसकी संपत्ति में बराबर का अधिकार देता था। इसके अतिरिक्त पुत्रियों को पिता की संपत्ति में अपने भाईयों से आधा हिस्सा प्राप्त होता। हिन्दू कोड बिल सांस्कारिक व सिविल दो प्रकार के विवाहों की मान्यता दे रहा था। हिन्दू समाज में पुरूषों को बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान था। इतना ही नहीं हिन्दू महिलाओं को समाज में तलाक का अधिकार मिल रहा था।

हिन्दू समाज में पति-पत्नी के बीच तलाक के सात आधार प्रावधान में थे जैसे- परित्याग, रखैल बनाना, धर्मांतरण, असाध्य मानसिक रोग,  कुष्ठ रोग, संक्रामक यौन रोग व हिंसा जैसे किसी भी एक कारण पर कोई भी शख्स तलाक ले सकता था।

वास्तव में देखा जाए तो हिन्दू कोड बिल समाज में व्याप्त ऐसी तमाम कुरीतियों को दूर करने जा रहा था, जिसे परम्परा के नाम पर हिन्दू कट्टरपंथी जिन्दा रखना चाहते थे। ऐसे में डॉ. अम्बेडकर के हिन्दू कोड बिल का जोरदार विरोध हुआ। अम्बेडकर के बौद्धिक तर्क और पं. नेहरू का समर्थन भी बेअसर साबित हुआ। बता दें कि हिन्दू कोड बिल 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया।

डॉ.अम्बेडकर ने 1951 में हिन्दू कोड बिल को संसद के समक्ष पेश किया। संसद में इस बिल के पेश होते ही अंदर और बाहर विद्रोह के स्वर गूंजने लगे। बहुसंख्यक हिंदू समाज में पुराने रीति-रिवाजों को बदलने वाले हिन्दू कोड बिल को लेकर संसद में तीन दिन तक जोरदार बहस चली।

संसद में कांग्रेस तथा जनसंघ का हिन्दूवादी वर्ग संसद के अंदर ही जमकर विरोध कर रहा था। हिन्दू कोड बिल का विरोध संसद के बाहर भी उग्र स्वरूप धारण किए हुए था। संत करपात्री जी महाराज ने हजारों साधु-संतों और श्रद्धालुओं के साथ संसद तक मार्च निकाला। इस संसद मार्च को रोकने के लिए पुलिस को बल प्रयोग भी करने पड़े। लाठीचार्ज के दौरान करपात्री जी महाराज का दंड टूट गया।

वर्ष 1948 से 1951 के दौरान हिन्दू कोड बिल के विरोध में पूरे देश में लगातार जलसे, धरने और विरोध प्रदर्शन होते रहे। देश के हिंदू नेताओं और हिंदू संगठनों का कहना था कि इस बिल के  जरिए उनके धर्म को भ्रष्ट किया जा रहा है और यह एक बड़ी साजिश है।

हिन्दू कोड बिल को लेकर डॉ. अम्बेडकर बहुत ज्यादा गंभीर थे। उनका कहना था कि “मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से ज्यादा दिलचस्पी हिन्दू कोड बिल को लागू कराने में है।” वर्ष 1948 में हिन्दू कोड बिल को पहली बार संविधान सभा पेश किया गया। चूंकि इस बिल को उग्र विरोध का सामना करना पड़ रहा था ऐसे में कानून मंत्री अंबेडकर ने 5 फरवरी 1951 को हिंदू कोड बिल को संसद में दोबारा पेश किया, इस दौरान संसद में तीन ​दिन तक बहस चली।

हिन्दू कोड बिल का विरोध करने वालों का तर्क था कि चूंकि संसद के सदस्य जनता द्वारा चुने हुए नहीं है इसलिए इतने बड़े विधेयक को पास करने का नैतिक अधिकार उनके पास नहीं है, इसके अतिरिक्त यह तर्क भी दे रहे थे कि यह काननू सिर्फ हिन्दूओं के लिए ही क्यों बनाया जा रहा है, इसे दूसरे धर्मों पर भी लागू किया जाए। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद भी इस बिल के पक्ष में नहीं थे। इसके लिए राजेन्द्र प्रसाद ने पं. नेहरू को कई पत्र भी लिखे थे। जब 17 सितंबर 1951 को संसद में हिन्दू कोड बिल पर चर्चा हुई तो विरोध और बहस से बचने के लिए प्रधानमंत्री नेहरू ने हिंदू कोड बिल को चार हिस्सों में बांटने की घोषणा की। अब डॉ. अम्बेडकर को लगा कि पं. नेहरू ने हालात से समझौता कर लिया है। ऐसे में आहत होकर भीमराव अम्बेडकर ने कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

हिन्दू कोड बिल के विरुद्ध हो रहे जबरदस्त विरोध को देखते हुए पं. नेहरू इस बात को अच्छी तरह से समझ चुके थे कि बिना जनादेश के इस कानून को पारित कराना आसान काम नहीं है। ऐसे में 1952 के आम चुनाव में कांग्रेस ने हिंदू कोड बिल के मुद्दे पर चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से विजयश्री मिली। ​तत्पश्चात देश की पहली लोकसभा ने कई संशोधनों को समाहित करते हुए 1955-56 में हिंदू कोड बिल पास किए। इसमें हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदू सक्सेशन (उत्तराधिकार) एक्ट, हिंदू माइनॉरिटी एक्ट एंड गार्डियनशिप एक्ट और हिंदू एडॉप्शंस एंड मेंटिनेंस एक्ट शामिल थे।

गौरतलब है कि हिंदू मैरिज एक्ट के तहत तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार और बहुविवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके ठीक एक साल बाद यानि 1956 ई. में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम लागू हुए। इन सभी कानूनों में महिलाओं को समाज में समता का अधिकार, महिलाओं को संपत्ति में अधिकार मिला। यहां तक कि लड़कियों को गोद लेने पर भी जोर दिया गया।

जबकि हिन्दू कोड बिल में दत्तक ग्रहण को लेकर दो नए प्रावधान निर्धारित किए गए। पहला यह कि यदि पति दत्तक ग्रहण करना चाहता है तो इसमें पत्नी की सहमति अनिवार्य होगी और दूसरा यह कि ​यदि कोई विधवा दत्तक ग्रहण करना चाहती है तो उसके पति के द्वारा किसी प्रकार का सकारात्मक संदेश अथवा लिखित प्रमाण पत्र दिया गया हो ताकि भविष्य में किसी तरह के मुकदमे से बचाव बना रहे।

हिन्दू कोड बिल के आखिरी हिस्से में हिंदू सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लोगों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में रखा गया था। हांलाकि इनके प्रावधानों कुछ खास अंतर नहीं किया गया था। हां, इतना जरूर कहा जा सकता है कि हिन्दू कोड बिल एक ऐसा मसौदा था जिसमें महिलाओं की स्थिति सुधारने की अपार क्षमता थी।