आधुनिक भारत के इतिहास में ‘प्लासी का युद्ध’ बंगाल में अंग्रेजों की एक ऐसी विजय थी जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी का भाग्य बदलकर रख दिया। कहा जाता है कि प्लासी युद्ध के कारण ही इंग्लैण्ड संसार की एक बड़ी शक्ति बन गया। अब इंग्लैण्ड पूर्वी समस्या में विशेष भूमिका निभाने लगा। प्लासी युद्ध के पश्चात इंग्लैण्ड को मॉरीशस तथा आशा अन्तरीप को विजय करने तथा उन्हें अपना उपनिवेश बनाने पर बाध्य होना पड़ा।
इतिहासकार जी. बी. मालेसन के मुताबिक इस जीत के अगले ही दिन अंग्रेज बंगाल, बिहार और उड़ीसा के स्वामी बन गए। प्लासी के युद्ध ने ब्रिटेन के नागरिकों में गर्व की भावना का संचार किया। ऐसा कहा जाता है कि अमरीका के छिन जाने के बाद प्लासी के युद्ध ने ब्रिटेनवासियों को सान्तवना दी थी। बंगाल में अंग्रेज सर्वोच्च बन चुके थे, इस प्रान्त का नवाब केवल नाम मात्र का था, वह कम्पनी की कठपुतली बन चुका था। अब हम थोड़ा प्रकाश डालना चाहेंगे कि प्लासी की लड़ाई से अंग्रेज किस प्रकार से अनन्त साधनों के स्वामी बन गए?
आप बंगाल प्रान्त की समृद्धि अन्दाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि सूबा-ए-बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद की हैसियत उस समय के लंदन से कहीं ज्यादा थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले गर्वनर रॉबर्ट क्लाइव मुर्शिदाबाद के बारे में लिखता है, "मुर्शिदाबाद शहर उतना ही लंबा, चौड़ा, आबाद और धनवान है, जितना लंदन। अंतर केवल इतना है कि लंदन के धनाढ्य आदमी के पास जितनी संपत्ति हो सकती है उससे कहीं ज्यादा मुर्शिदाबाद में अनेकों के पास है"।
यह सच है कि बंगाल उन दिनों भारत का सबसे धनाढ्य प्रान्त था और उद्योग तथा व्यापार में सबसे आगे था। बंगाल पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों को जो पहली किस्त मिली वह 8 लाख पौंड की थी, जो चांदी के सिक्कों के रूप में थी। लार्ड मैकाले के अनुसार, यह धन कलकत्ता को एक सौ से अधिक नावों में भरकर लाया गया। बंगाल के धन का ही प्रभाव था कि ईस्ट इंडिया कम्पनी ने दक्षिण विजय कर लिया और उत्तरी भारत को अपने प्रभाव में ले लिया। ऐसे में प्लासी के युद्ध की चर्चा करना लाजिमी है।
बता दें कि 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील की दूरी पर स्थित प्लासी गांव में आमों के बगीचे में ईस्ट इंडिया कम्पनी और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना के बीच आमना-सामना हुआ। हांलाकि प्लासी के युद्ध का सामरिक महत्व कुछ नहीं था। यह एक छोटी सी झड़प थी जिसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी के कुल 65 सैनिक तथा नवाब के 5000 सैनिक काम आए।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के सेना में 950 यूरोपीय पैदल सैनिक, 100 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2100 भारतीय सैनिक थे। दूसरी तरफ बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की 50000 सेना का नेतृत्व विश्वासघाती सेनापति मीरजाफर कर रहा था।
नवाब की एक अग्रगामी टुकड़ी का नेतृत्व मीर मदान तथा मोहन लाल कर रहे थे, जिन्होंने अपने पहले आक्रमण में अंग्रेज सैनिकों तथा रॉबर्ट क्लाइव को आम के पेड़ों के पीछे छुपने पर बाध्य कर दिया। तभी भाग्य ने अंग्रेजी सेना का साथ दिया। तेज बारिश शुरू हो गई। ब्रिटिश कमांडरों ने सतर्कता दिखाते हुए तारपोलिन से अपने गोले-बारूद और तोपों को ढक दिया। लेकिन नवाब के सैनिक यह होशियारी नहीं कर पाए। लिहाजा बारिश में तोप के बड़े-बड़े गोले भीगकर गोबर हो गए। बारिश रूकी और एक बार फिर से युद्ध शुरू हुआ। जब नवाब के सैनिकों ने बारिश में भीगे इन गोलों को तोप में डालकर चार्ज किया तो सारे फुस्स...।
दूसरी तरफ अंग्रेजों की तोपें आग उगल रही थीं, लिहाजा नवाब के सैनिक ढेर होने लगे थे। इस परिस्थिति में नवाब सिराजुद्दौला ने अपने प्रमुख अधिकारियों से मंत्रणा की। विश्वासघाती मीरजाफर ने सेना की कमान सैन्य प्रमुखों के हाथ में सौंपकर नवाब को युद्ध क्षेत्र से हटने को कहा उसकी चाल चल गई। नवाब सिराजुद्दौला 2000 घुड़सवारों के साथ मुर्शिदाबाद लौट गया। मीरजाफर एक तरफ खड़ा होकर चुपचाप देखता रहा, आखिरकार सुबह शुरू हुई ये जंग शाम होने से पहले ही खत्म हो गई।
जंग खत्म होते ही विश्वासघाती सेनापति मीरजाफर ने रॉबर्ट क्लाइव को बधाई दी। मीर जाफर 25 जून को मुर्शिदाबाद लौट गया तथा उसने स्वयं को बंगाल का नवाब घोषित कर दिया। नवाब सिराजुद्दौला को बन्दी बना लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई। मीरजाफर ने अंग्रेजों को उनकी सेवाओं के बदले 24 परगनों की जमींदारी से पुरस्कृत किया तथा रॉबर्ट क्लाइव को 2,34000 पाउंड की निजी भेंट दी। 50 लाख रूपया सेना तथा नाविकों को पुरस्कार के रूप में दिए। बंगाल की सभी फ्रांसीसी बस्तियां अंग्रेजों को सौंप दी गईं। साथ ही यह भी निश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी (टैक्स) नहीं देनी होगी। इस जंग के बाद बंगाल अंग्रेजों के अधीन हो गया फिर देश की आजादी के बाद ही स्वतन्त्र हो सका।