मुगल साम्राज्य के पराभव और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब में अराजकता फैल गई थी। अहमदशाह अब्दाली का पंजाब पर अधिकार केवल कर (Tax) एकत्रित करने मात्र तक ही सीमित था। देखा जाए तो यहां किसी का भी राज्य नहीं था। इन राजनीतिक परिस्थितियों के बीच सिक्ख मिसलों का उदय हुआ। पंजाब के बारह सिक्ख मिसलों में से एक शुकरचकिया मिसल ऐसी थी जिसका प्रभुत्व रावी और चिनाव के बीच कायम था।
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 2 नवम्बर 1780 ई. को शुकरचकिया मिसल के प्रमुख महासिंह के घर हुआ। रणजीत सिंह अभी बारह वर्ष के ही थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया। महासिंह के निधन के पश्चात वर्ष 1792 से 1797 तक सुकरचकिया मिसल का कार्यभार प्रतिशासन परिषद के हाथों में रहा, जिसके सदस्य इसकी माता, इसकी सास सदाकौर और दीवान लखपत राय थे। हांलाकि 1797 में रणजीत सिंह ने समस्त कार्यभार स्वयं संभाल लिया।
लेपेल ग्रिफिन के मुताबिक, “रणजीत सिंह एक बांका और आदर्श सैनिक था, जो शक्तिशाली, छरहरे शरीर वाला फुर्तीला, साहसी और धैर्यवान व्यक्ति था। शेर की भांति वीर, अपनी सेनाओं में प्राय: आगे होकर और साधारण सैनिक की तरह लड़ता था। वह अपने अभियानों की पूर्व-योजना बनाता था। वह युद्ध की भिन्न-भिन्न कलाओं से अच्छी प्रकार से परिचित था।”
रणजीत सिंह ने पंजाब को आपस में लड़ने वाले संघ के रूप में प्राप्त किया था, जो सरदारों के झगड़ों का शिकार था। इतना ही नहीं पंजाब को पठान और मराठे घेरे हुए थे तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी इस राज्य को अपने अधीन करने को तैयार बैठी थी। अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली का पोता जमानशाह भी स्वयं को पंजाब का स्वामी मानता था और पंजाब पर अपना प्रभुत्व दिखलाने के लिए इस पर कई आक्रमण किए। अत:18वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में जब सिक्ख मिसलें संघर्षरत थीं तथा अफगानिस्तान गृहयुद्ध में उलझ चुका था तब रणजीत सिंह ने अपनी तलवार की शक्ति से मध्य पंजाब में छोटे-छोटे राज्यों को संगठित करके एक बड़ा राज्य बना लिया।
बता दें कि 1798 ई. में जमानशाह ने पंजाब पर आक्रमण किया और वापस जाते हुए उसकी कुछ तोपें चिनाब में गिर गईं। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर वापस भिजवा दिया। बदले में जमानशाह ने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार करने की अनुमति दे दी। इतना ही नहीं जमानशाह की सहायता करने के बदले रणजीत सिंह ने ‘राजा’ की उपाधि भी प्राप्त कर ली।
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा राज्य विस्तार
वर्ष 1799 और 1802 ई. में रणजीत सिंह ने क्रमश: लाहौर (राजनैतिक राजधानी) और अमृतसर (धार्मिक राजधानी) पर अधिकार कर लिया। उसने अमृतसर को भंगी मिसल से छीना था। लाहौर और अमृसर को अपने अधीन करते ही रणजीत सिंह सिक्खों का महत्वपूर्ण सरदार बन गया।
सिक्खों की रामगढ़िया, कन्हैया और आहलूवालिया मिसलें रणजीत सिंह के झण्डे तले लड़ने में गौरव का अनुभव करने लगीं। रणजीत सिंह भी चाहता था कि वह सिक्खों का राजा बन जाए इसलिए उसने सतलुज के पार प्रदेश फिरोजपुर और लुधियाना को भी जीतना चाहा। इस उद्देश्य से 1806 ई. में रणजीत सिंह 20000 की सेना के साथ पटियाले तक आ गया। दोलधी नगर, पटियाला के साहिब सिंह को परास्त कर वापस लौटते समय उसने लुधियाना, डक्खा, रायकोट, जगराओं, घुंघराना आदि नगरों को भी अपने अधीन कर लिया। कैथल और कलसिया के राजाओं से कर (Tax) प्राप्त करने के अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह ने नारायण गढ़, वदनी, जीरा और कोटकपूरा पर भी विजय प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं चार्ल्स मेटकाफ के मना करने के बावजूद महाराजा ने सतलुज पार कर फरीदकोट, मालेरकोटला और अम्बाला को विजित किया।
हांलाकि 25 अप्रैल 1809 को अंग्रेजों तथा रणजीत सिंह के बीच अमृतसर की सन्धि हुई जिसके तहत सतलुज के दक्षिणवाले प्रदेशों को ब्रिटीश संरक्षण में देना स्वीकार कर लिया। रणजीत सिंह के राज्य की पूर्वी सीमा सतलुज नदी तय की गई। यहां तक कि लुधियाना में एक अंग्रेजी सेना भी तैनात की गई। देखा जाए तो अमृतसर की संधि ने रणजीत सिंह की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगा दिया था बावजूद इसके महाराजा कभी हतोत्साहित नहीं हुए। अब उन्होंने अपने राज्य का विस्तार उत्तर पश्चित तथा पश्चिम की तरफ किया।
कांगड़ा एवं अटक पर अधिकार करने के साथ ही महाराजा रणजीत सिंह ने अफगान शासक शाहशुजा को गिरफ्तार कर विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी प्राप्त कर लिया। यहां तक कि महाराजा ने अपना राज्य विस्तार मुल्तान, कश्मीर तथा पेशावर तक कर लिया। अब रणजीत सिंह सिंध पर भी विजय प्राप्त करना चाहते थे। परन्तु राजनीतिक तथा व्यापारिक कारणों से अंग्रेजी सत्ता ने ऐसा नहीं होने दिया। महाराजा रणजीत सिंह जबतक जीवित रहे अंग्रेजों से अपना सम्बन्ध अच्छा बनाए रखा।
महाराजा रणजीत सिंह की उत्कृष्ट सैन्य व्यवस्था
बैरन ह्यूगल लिखता है कि “रणजीत सिंह पूरे पंजाब में सबसे कुरूप और भद्दा व्यक्ति था लेकिन उसका व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था। महाराजा के विदेश मंत्री फकीर अजीजुद्दीन से एक अंग्रेज अफसर ने पूछा कि रणजीत सिंह कौन सी आंख से काना है, तो उसने उत्तर दिया कि महाराजा की आकृति इतनी तेजमय है कि मैं आज तक उसको ध्यानपूर्वक देखकर यह भी पता नहीं कर सका।”
बता दें कि रणजीत सिंह हिन्दूओं तथा मुसलमानों दोनों में ही बहुत लोकप्रिय था। जहां वह सिक्खों को अपना सहधर्मी मानता था वहीं सभी धर्मों के विद्वानों का आदर भी करता था। ऐसा कहा जाता है कि ‘एक बार उसने एक मुसलमान सन्त के चरणों की धूलि को अपनी सफेद दाढ़ी से साफ किया था।’
सुकरचकिया मिसल के प्रमुख से राजा तत्पश्चात महाराजा बनने का सफर रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य प्रतिभा के बदौलत हासिल किया। रणजीत सिंह भारतीय सेनाओं की कमजोरियों से भलीभांति वाकिफ था। वह जानता था कि अनियमित सेनाओं, घटिया अस्त्र-शस्त्र और उचित सैन्य प्रशिक्षण के बगैर राज्य विस्तार असम्भव है। इसी वजह से महाराजा रणजीत सिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की तर्ज पर अपनी सेना को गठित किया तथा विदेशी कमाण्डरों, कठोर अनुशासन तथा ड्रिल आदि का प्रबन्ध किया। अपनी सेना को तोपखाने और गोला-बारूद से लैश करने के लिए लाहौर तथा अमृतसर में तोपें, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाए। सेना की साज-सज्जा पर बल देने के साथ ही महाराजा ने सैनिकों को मासिक वेतन देने की प्रणाली प्रारम्भ की जिसे माहदारी कहते थे।
महाराजा रणजीत सिंह की स्थायी सेना फौज-ए-आइन के नाम से जानी जाती थी। जो उस समय एशिया में दूसरे स्थान पर थी। फौज-ए-आइन अथवा फौज-ए-खास का गठन 1822 ई. में फ्रांसीसी जनरल वन्तूरा और आलार्ड द्वारा किया गया था। महाराजा की इस स्थायी सेना में चार पैदल बटालियन, तीन घुड़सवार रेजिमेन्ट और एक तोपखाना था। तोपखाने का कार्यवाह मुस्लिम तोपची इलाही बख्श था।
महाराजा रणजीत सिंह की सेना में सिक्ख, गोरखा, बिहारी, उड़िया, पठान, डोगरे, पंजाबी तथा मुसलमानों के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न विदेशी जातियों के 39 अफसर कार्य करते थे जिनमें फ्रांसीसी, जर्मन, अमरीकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज, ऐंग्लों इण्डियन, स्कॉटलैण्ड और स्पेन के निवासी शामिल थे।
महाराजा की सेना में उत्कृष्ट पदों पर नियुक्त विदेशी अफसरों का नाम क्रमश: वन्तूरा, आलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल था। वन्तूरा पैदल बटालियन का प्रमुख था जबकि आलार्ड घुड़सवार रेजिमेन्ट का कार्यवाह था। कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया। वर्ष 1835 ई. में रणजीत सिंह की सेना की संख्या 75000 थी जिसमें 35000 नियमित रूप से प्रशिक्षित सैनिक थे। दोनों सिक्ख युद्धों में महाराजा रणजीत सिंह की सेना के सैन्य संगठन को देखकर अंग्रेज भी घबरा गए थे।
इतिहासकार जे.डी. कनिंघम इस सेना की प्रशंसा करते हुए लिखता है, “रणजीत सिंह को अपने देश की सेना एक घुड़सवारों के झुंड के रूप में मिली, जो वीर किन्तु युद्धकला से अनभिज्ञ थी। लेकिन आखिरी समय तक उनकी सेना में 50 हजार अनुशासित सैनिक और 50 हजार सुसज्जित स्वयंसेनी सेना तथा तकरीबन 300 से अधिक तोपें मौजूद थीं।”
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