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Interesting history of 30 Ashwamedha Yagya about 11 Chakravarti kings of India

30 अश्वमेध यज्ञ संपन्न कराने वाले भारत वर्ष के 11 चक्रवर्ती राजाओं का रोचक इतिहास

भारतीय इतिहास में यज्ञों की परम्परा वैदिक काल से ही जारी है। वैदिक काल में देवताओं की उपासना यज्ञों द्वारा की जाती थी। उत्तर वैदिक काल में राजाओं द्वारा राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ, वाजपेय यज्ञ, अग्निष्टोम यज्ञ और पुरुषमेध यज्ञ के अनुष्ठान प्रमुखता से संपन्न कराए जाते थे। 

यदि हम अश्वमेध यज्ञ की बात करें इसका उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में किया गया है। ऋग्वेद में अश्वमेध यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले अश्व तथा हवन आदि के बारे में विशेषरूप से वर्णन किया गया है। इतना ही नहीं भारतवर्ष के प्रख्यात अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख शतपथ तथा तैतिरीय ब्राह्मण ग्रन्थों में भी देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में इसका उल्लेख मिलता है।

सामान्यतया एक चक्रवर्ती नरेश ही अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकारी माना जाता था। किन्तु ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, अन्य प्रभावशाली राजा भी अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करवा सकते थे। वहीं श्रौत सूत्र के मुताबिक समस्त विजयों का इच्छुक तथा समस्त समृद्धि की कामना करने वाला शक्तिशाली व्यक्ति इस अश्वमेध यज्ञ का अधिकारी होता था।

व्यापक अर्थो में कोई भी चक्रवर्ती राजा सम्पूर्ण भारत पर दिग्विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करता था। इस अतिप्राचीन यज्ञ के दौरान सर्वप्रथम देव उपासना के लिए यज्ञ में आहूति दी जाती थी, इसके बाद अश्व की पूजा करके उसके मस्तक पर जयपत्र बांधकर सक्षम सेनापति और सेना के साथ उसे भूमंडल पर छोड़ दिया जाता था।

इस स्टोरी में हम आपको भारतीय इतिहास में वर्णित उन समस्त चकवर्ती नरेशों के बारे में रोचक जानकारी देने का प्रयास करेंगे जिन्होंने भारत पर अपनी सम्प्रभुंता स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करवाए थे।

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इक्ष्वाकुवंशी राजा सगर

प्राचीन भारत के पौराणिक इतिहास में मर्यादा पुरूषोत्तम राम के पूर्वज राजा सगर द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख मिलता है। राजा सगर ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का निर्णय लिया।

पौराणिक कथा के अनुसार, राजा सगर के शक्शिली पुत्रों और उनकी विशाल सेना जब अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के पीछे चलने लगी तब किसी भी राजा ने उनके अधिकार को चुनौती देने का साहस नहीं किया और मस्तक पर लगे जयपत्र वाला घोड़ा बिना किसी बाधा के विचरण करता रहा। ऐसे में चक्रवर्ती राजा सगर अब सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी बनने की राह पर थे। तब देवराज इन्द्र ने सोचा यदि राजा सगर सम्पूर्ण पृथ्वी पर आधिपत्य स्थापित कर लेंगे तब स्वर्गलोक के सिंहासन पर अधिकार करने की चेष्टा करेंगे ऐसे में इन्द्र ने राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को चुराकर ध्यानमग्न कपिल मुनि के आश्रम में छिपा दिया।

राजा सगर के पुत्रों सहित उसकी विशाल सेना ने अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को चारों दिशाओं में खोजा लेकिन वह घोड़ा कहीं दिखाई नहीं दिया। आखिरकार वे सभी उस घोड़े को खोजते-खोजते कपिल मुनि के आश्रम तक पहुंच गए, उन्हें लगा कि यज्ञ का घोड़ा कपिल मुनि ने ही चुराया है।  

इसके बाद राजा सगर के पुत्रों और उसकी शक्तिशाली सैनिकों ने कपिल मुनि के साथ निरादर किया। इससे क्रोधित होकर कपिल मुनि ने राजा सगर के सभी पुत्रों को अपने तपोबल से भस्म कर दिया। कई दिन बीत जाने पश्चात राजा सगर को उनके पुत्रों की कोई सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने पुत्रों को ढूंढने के लिए पौत्र अंशुमान को भेजा।

अंशुमान जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो देखा कि वहां उनके सभी परिजनों की अस्थियों और भस्म का ढेर पड़ा था। कपिल मुनि से अनुनय-विनय करने के बाद ऋषि ने कहा कि इन अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करो तभी ये सभी मेरे श्राप से मुक्त होंगे। कपिल मुनि ने अंशुमान से कहा कि इस समय तुम अश्व लेकर जाओ और अपने पितामह का यज्ञ पूर्ण करो। इस प्रकार राजा सगर का अश्वमेध यज्ञ पूर्ण हुआ।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

वाल्मिकि रामायण व स्कन्द पुराण सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा सम्पन्न कराए गए अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख मिलता है। सौमित्र लक्ष्मण की सलाह पर श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ संपन्न कराने का निर्णय लिया था। इसके बाद सूर्यवंशी पुरोहित महर्षि वशिष्ठ के नेतृत्व में श्रीराम ने नैमिष क्षेत्र में यज्ञ का अनुष्ठान सम्पन्न कराया।

वाल्मिकि कृत रामायण के अनुसार, श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा शत्रुघ्न सहित अयोध्या की विशाल सेना के नेतृत्व में रवाना किया था। जयपत्र बंधा अश्वमेध यज्ञ का वह घोड़ा लगभग सभी दिशाओं से विचरण करते हुए वापस श्रीराम की सीमा में प्रवेश कर चुका तभी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के पास उसे लव-कुश नाम के दो ऋषि राजकुमारों ने पकड़ लिया। अश्वमेध यज्ञ के उस घोड़े को मुक्त कराने के लिए लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न युद्ध करते हैं लेकिन वे सभी लव-कुश से पराजित हो जाते हैं। अंत में युद्ध के लिए श्री राम पहुंचते हैं तभी महर्षि वाल्मिकि उन्हें रोक देते हैं और अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को मुक्त करवाते हैं। इस प्रकार श्रीराम का अश्वमेध यज्ञ पूर्ण होता है।

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सम्राट युधिष्ठिर

महान पौराणिक महाकाव्य महाभारत एक लाख श्लोकों का संग्रह है जिसके कारण इसे शतसाहस्त्र संहिता कहा जाता है। इस महाकाव्य के विकास के तीन स्वरूप माने जाते हैं- जयसंहिता, भारत तथा महाभारत। महाकाव्य महाभारत में कुल 18 पर्व है जिसमें कौरवों तथा पांडवों से जुड़ी समस्त कथाओं का उल्लेख है। महाभारत के ‘आश्वमेधिक पर्व’ में युधिष्ठिर द्वारा किए गए अश्वमेध के अनुष्ठान का उल्लेख मिलता है। अधिकांश विद्वान महाभारत युद्ध को एक ऐतिहासिक घटना के रूप में मान्यता देते हैं जो सम्भवतः ई. पू. 950 के लगभग लड़ा गया था। इस युद्ध के बाद ही महाभारत ग्रन्थ का प्रणयन हुआ होगा।

कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर भी कंगाल हो चुके थे। यहां तक कि यज्ञ करने के लिए भी उनके पास धन नहीं बचा था। तत्पश्चात महर्षि वेदव्यास के आदेश पर पांडवों ने धन की व्यवस्था की। युधिष्ठिर के राजा बनने के पश्चात  वेदव्यास ने युधिष्ठिर से अश्वमेध यज्ञ करने के लिए कहा, तब युधिष्ठिर ने कहा कि मेरे पास तो ब्राह्मणों को दान करने के लिए भी पर्याप्त धन नहीं है फिर मैं इतना बड़ा यज्ञ कैसे कर सकता हूं।

महर्षि वेदव्यास ने युधिष्ठिर को बताया कि पूर्व समय में सम्पूर्ण पृथ्वी के राजा महर्षि मरूत ने एक बहुत बड़ा यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ में मरूत ने ब्राह्मणों को इतना ज्यादा सोना दान किया था कि ब्राह्मण वह सोना अपने साथ नहीं  ले जा सके। ऐसा कहा जाता है कि वह सोना हिमालय पर आज भी है। इस धन से अश्वमेध यज्ञ किया जा सकता है। इस प्रकार महर्षि वेदव्यास के कथन  का अनुसरण कर पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किया।

पुष्यमित्र शुंग

शुंग वंश का संस्थापक पुष्यमित्र अपनी उपलब्धिं के फलस्वरूप उत्तर भारत का एकछत्र सम्राट बन गया। उसने अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। अयोध्या अभिलेख में पुष्यमित्र को दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला कहा गया है। इतिहासकार के. सी श्रीवास्तव के अनुसार, सम्भवतः पुष्यमित्र ने जब राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली तब प्रथम अश्वमेध यज्ञ किया होगा इसके बाद उसने शासन के अंत में दूसरा अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किया होगा। महाकवि कालिदास के नाटक मालविकाग्निमित्र में इसका उल्लेख मिलता है।

कालिदास के नाटक मालविकाग्निमित्र के मुताबिक, यवन आक्रमण के दौरान एक युद्ध सिन्धु नदी के तट पर हुआ और पुष्यमित्र के पौत्र तथा अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की। इतिहासकार कृष्ण मोहन श्रीमाली के अनुसार, इस युद्ध का कारण यवनों द्वारा अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को पकड़ लिया जाना था। इसके बाद यवनों को पराजित करके यज्ञ का घोड़ा वापस लाया गया था। इस प्रकार पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान पूर्ण किया।

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महाराज प्रवरसेन प्रथम

छठी शताब्दी के मध्य तक दक्षिण में वाकाटक ही सबसे महत्वपूर्ण शक्ति थे जिन्होंने दक्षिण तथा मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। हांलाकि पौराणिक प्रमाणों से प्रतीत होता है कि वाकाटक शक्ति के संस्थापक विंध्यशक्ति ने तीसरी शताब्दी में पूर्वी मालवा में अपना आधिपत्य स्थापित किया। इतना ही नहीं विंध्यशक्ति ने विंध्य पार तक अपनी शक्ति का विस्तार किया था।

विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण विंध्यशक्ति का पुत्र प्रवरसेन प्रथम जब सिंहासन पर बैठा तब उसने महाराज की उपाधि धारण की। चूंकि वह ब्राह्मण धर्म का पोषक था इसलिए उसने कई वैदिक यज्ञ किए। प्रवरसेन ने अपनी पुत्री का विवाह नाग वंश के भवनाग नामक शक्तिशाली राजा से किया, जिसका मध्य भारत के विशाल क्षेत्र पर अधिकार था।

नागवंशी राजाओं के दशाश्वमेध यज्ञ का ही अनुसरण करके प्रवरसेन ने भी अश्वमेध यज्ञ किया। प्रवरसेन के शासन काल में वाकाटक राज्य का विस्तार बुन्देलखंड से लेकर हैदराबाद तक था।

शातकर्णि प्रथम

सातवाहनों का इतिहास शिमुक के समय से प्रारम्भ होता है। वायु पुराण का कथन है कि, “आन्ध्रजातीय शिमुक कण्व वंश के अन्तिम शासक सुशर्मा की हत्या कर तथा शुंगों की बची शक्ति को समाप्त कर पृथ्वी पर शासन करेगा।” शिमुक अपने शासन के अंतिम दिनों में दुराचारी हो गया तथा मार डाला गया। इसके बाद उसका छोटा भाई कृष्ण राजा बना क्योंकि शिमुक का पुत्र शातकर्णि अवयस्क था। कृष्ण ने अपने साम्राज्य का विस्तार नासिक तक किया। 18 वर्षां तक शासन करने के बाद उसकी मृत्यु हो गई तत्पश्चात शातकर्णि प्रथम सातवाहन वंश की गद्दी पर बैठा।

शातकर्णि प्रथम ने पश्चिमी मालवा, नर्मदा घाटी तथा विदर्भ तक के प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। इस प्रकार सार्वभौम राजा शातकर्णि ने दो अश्वमेध यज्ञ तथा राजसूय यज्ञों का अनुष्ठान किया। ऐसा माना जाता है कि शातकर्णि ने प्रथम अश्वमेध यज्ञ राजा बनने के तत्काल बाद तथा द्वितीय अश्वमेध यज्ञ अपने शासनकाल के अंत में किया होगा। अश्वमेध यज्ञ के बाद उसने अपनी पत्नी नागनिका के नाम पर रजत मुद्राएं उत्कीर्ण करवायी। इनके उपर अश्व की आकृति मिलती है। शातकर्णि प्रथम का शासनकाल भौतिक दृष्टि से समृद्धि तथा सम्पन्नता का काल था।

महान शासक समुद्रगुप्त

चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात उसका सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। वह लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न हुआ था। समुद्रगुप्त न केवल गुप्त वंश के बल्कि प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में गिना जाता है।

समुद्रगुप्त के शासनकाल की स्वर्ण मुद्राएं उसके जीवन एवं कार्यों पर सुन्दर प्रकाश डालती हैं। समुद्रगुप्त की एक स्वर्ण मुद्रा के मुख भाग पर सम्राट समुद्रगुप्त धनुष-बाण लिए हुए खड़ा था तथा मुद्रालेख- “अप्रतिरथो विजित्य क्षिति सुचरितैः दिव जयति” उत्कीर्ण है, इसका अर्थ है- अजेय राजा पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है।

सम्राट समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ किए जाने का प्रमाण है। इन सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञ यूप में बंधे हुए घोड़े का चित्र तथा मुद्रालेख- “राजाधिराजो पृथ्वी विजित्य दिवं जयत्या गृहीतवाजिमेधः ” उत्कीर्ण है, इसका अर्थ है- राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोक की विजय करता है। इस सिक्के के पृष्ठ भाग पर राजमहिषी की आकृति के साथ-साथ ‘अश्वमेध पराक्रम’ अंकित है।

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सम्राट कुमारगुप्त

चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद कुमारगुप्त प्रथम साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न कुमार गुप्त उसका ज्येष्ठ पुत्र था।  कुमारगुप्त ने पिता से मिले विशाल साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखने में सफलता प्राप्त की। उसके सुव्यवस्थित शासन का वर्णन मन्दसोर अभिलेख में कुछ इस प्रकार मिलता है- “कुमारगुप्त एक ऐसी पृथ्वी पर शासन करता था जो चारों समुद्रों से घिरी हुई थी, सुमेरू तथा कैलाश पर्वत जिसके वृहत पयोधर के समान थे, सुन्दर वाटिकाओं में खिले फूल जिसकी हंसी के समान थे।” इस अभिलेख से कुमारगुप्त के अधीन विशाल भूभाग की जानकारी मिलती है।

कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। अश्वमेध प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञयूप में बंधे हुए घोड़े की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर ‘श्रीअश्वमेधमहेन्द्र’ मुद्रालेख अंकित है। हांलाकि अपनी किस महत्वपूर्ण उपलब्धि के उपलक्ष्य में उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह हमें ज्ञात नहीं है।

ब्राह्मण शासक मयूरशर्मन

300 से 650 ई. के बीच उत्तरी भारत के इतिहास में अनेक ब्राह्मण राजा हुए। हांलाकि क्षत्रिय कर्म करते हुए भी इन्हें ब्राह्मण वर्ण में ही माना गया। मानव्य गोत्र में उत्पन्न मयूरशर्मन नामक एक ब्राह्मण वेदों का अध्ययन करने तथा शिक्षा प्राप्त करने के लिए कांची गया। लेकिन कांची में एक अश्वारोही सैनिक से झगड़ा होने के कारण वह गुरूकुल नहीं पहुंच सका। मयूरशर्मन ने अपनी शक्ति का प्रयोग कर कांची के पल्लव राजा के एक प्रदेश पर अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे अपनी शक्ति में वृद्धि कर उसने वनवासी नगरी को राजधानी बनाया तथा स्वतंत्र राज्य स्थापित कर कदम्ब वंश की स्थापना की। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अठारह बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। मयूरशर्मन का काल चौथी सदी के मध्य माना जाता है।

पल्लव शासक शिवस्कन्दवर्मा

प्राकृत तथा संस्कृत ताम्रलेखों के आधार पर हमें पल्लव वंश के प्रारम्भिक शासकों की जानकारी मिलती है। पल्लव वंश का प्रथम शासक सिंहवर्मा था जिसने तृतीय शताब्दी ई. के अन्तिम चरण में शासन किया था। उसका उत्तराधिकारी शिवस्कन्दवर्मा चतुर्थ शताब्दी ई. के प्रारम्भ में शासक बना।

शिवस्कन्दवर्मा के शासनकाल के 8वें वर्ष का लेख हीरहडगल्ली से पता चलता है कि उसने अनेक प्रदेशों पर विजय प्राप्त की और ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की। उसने अपनी विजयों की उपलक्ष्य में अश्वमेध यज्ञ के अतिरिक्त वाजपेय आदि वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। शिवस्कन्दवर्मा चतुर्थ शताब्दी के द्वितीय चरण में शासक बना।

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सवाई जयसिंह (द्वितीय)

पिंक सिटी अथवा गुलाबी नगरी के नाम से विख्यात राजस्थान की राजधानी जयपुर की स्थापना साल 1727 ई. में नवम्बर महीने की 18 तारीख को आमेर के शासक सवाई जयसिंह द्वितीय ने की थी। इस मौके पर सवाई जयसिंह द्वितीय ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने की इच्छा व्यक्त की। कहा जाता है कि कलयुग के इस प्रथम और अन्तिम अश्वमेध यज्ञ की व्यवस्था में पांच साल लगे थे। परशुरामद्वार के पीछे डूँगरी पर विष्णु स्वरूप बिरद भगवान की स्थापना के बाद ढोल नगाड़ों से ढूँढाड़ राज्य में घोषणा हुई थी कि आमेर नरेश विष्णुसिंह के पुत्र जयसिंह द्वितीय अश्वमेध करवा रहे हैं।

सवाई जयसिंह द्वितीय का अश्वमेध यज्ञ तकरीबन सवा साल तक चला। अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को भांडारेज ठिकाने के कुम्भाणी राजपूतों (कुम्भाणी शाखा भी कछवाहों की ही एक शाखा है) ने रोका। जयसिंह ने घोड़े को मुक्त कराया। अश्वमेध यज्ञ की स्मृति में जयपुर नगर के बाहर जलमहल की पहाड़ी पर 40 फुट उंचा एक यूप स्तम्भ खड़ा करवाया गया था। अब यह पहाड़ी यज्ञशाला की डूंगरी कहलाती है।

राजा के संकल्प के अनुसार तीन करोड़ ब्राह्मणों को भोजन करवाया गया। कुरुक्षेत्र में सप्त स्वर्ण सागर और काशी में हाथी घोड़े दान किए गए। मथुरा में चांदी का तुला दान कर करीब 33 करोड़ रुपए पुण्य में खर्च किए गए। अश्वमेध यज्ञ के दौरान यज्ञ मंडपों को चांदी के पत्तरों से ढका गया था। अश्वमेध यज्ञ के दौरान जो मिट्टी के गणेशजी बनाए गए उन्हें बाद में किला बनाकर स्थापित किया गया। आज की तारीख यह मंदिर गढ़ गणेश के नाम से विख्यात है।