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Was pushyamitra sunga the destroyer of Buddhism?

क्या बौद्ध धर्म का संहारक था यह शक्तिशाली ब्राह्मण शासक ?

अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर उसके मुख्य सेनापति पुष्यमित्र ने ‘शुंग’ वंश की स्थापना की। हर्षचरित के मुताबिक, “सेनानी पुष्यमित्र ने सेना दिखाने के बहाने अपने बुद्धिहीन स्वामी बृहद्रथ की हत्या कर दी।” यहां ‘सेनानी’ की उपाधि से तात्पर्य है कि दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र अपने सैनिकों के बीच काफी ख्याति प्राप्त कर चुका था, यही वजह है कि राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाए रखी।

जहां अयोध्या के लेख में पुष्यमित्र का उल्लेख मिलता है वहीं विदिशा में उसके पुत्र अग्निमित्र का शासन था। महाकवि कालीदास के संस्कृत नाटक मालविकाग्निमित्र के अनुसार, विदर्भ का राज्य (बरार) भी उसके अधीन था। पुष्यमित्र के शासक बनने के बाद यज्ञसेन के नेतृत्व में विदर्भ प्रान्त ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। बता दें कि यज्ञसेन बृहद्रथ के सचिव का साला था। चूंकि बृहद्रथ की हत्या के पश्चात पुष्यमित्र ने उसके सचिव को कारगार  में डाल दिया था ऐसे में यज्ञसेन और पुष्यमित्र के बीच युद्ध होना संभावी था। अत: ई.पू. 184 के लगभग पुष्यमित्र ने यज्ञसेन को पराजित कर विदर्भ पर अधिकार कर लिया।

दिव्यावदान और तारानाथ के विवरण के मुता​बिक जालन्धर तथा शाकल (वर्तमान में स्यालकोट) पर भी उसका ​अधिकार था। इस प्रकार उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध ​तक वि​स्तृत था। पाटलिपुत्र उसके साम्राज्य की राजधानी थी।

तकरीबन 36 वर्षों तक शासन करने वाले पुष्यमित्र शुंग ने अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करवाया था। अयोध्या अभिलेख से जानकारी मिलती है कि उसने दो अश्वमेध यज्ञ करवाए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने पश्चात उसने पहला अश्वमेध यज्ञ करवाया होगा और दूसरा यज्ञ उसने अपने शासन के आखिर में करवाया होगा।

गार्गी संहिता के युग पुराण में लिखा है कि दुष्ट पराक्रमी यवनों ने साकेत, पंचाल और मथुरा को जीत लिया था। कालिदास के नाटक मालविकाग्निमित्र के अनुसार, पुष्यमित्र के पौत्र यानि अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने सिन्ध नदी के तट पर यवनों को पराजित किया। इ​तिहासकार द्विजेन्द्र नारायण झा के अनुसार, इस युद्ध का मुख्य कारण  यवनों द्वारा अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को पकड़ लिया जाना था। इसमें यवनों को पराजित कर यज्ञ का घोड़ा सुरक्षित वापस लाया गया था। इस प्रकार पुष्यमित्र ​के शासनकाल में यवनों को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी।

पुष्यमित्र शुंग ने न केवल यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की वहीं अशोक के शासन काल में उपेक्षित हो चुके वैदिक धर्म की पुन: प्रतिष्ठा की। इसी वजह से पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है।

पुष्यमित्र शुंग की धार्मिक नीति

यदि पुष्यमित्र के धार्मिक नीति की बात की जाए तो तकरीबन सभी बौद्ध रचनाएं उसे बौद्ध धर्म का उत्पीड़क बताती हैं। बौद्ध रचनाओं में ऐसा वर्णन है कि पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों तथा स्तूपों का विनाश करवाया और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई।

बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अनुसार, “पुष्यमित्र शुंग ने लोगों से सम्राट अशोक की प्रसिद्धि का कारण पूछा, इस पर उसे ज्ञात हुआ ​कि अशोक 84 हजार स्तूपों का निर्माता होने के कारण प्रसिद्ध है। अत: उसने 84,000 स्तूपों को विनष्ट करके प्रसिद्धि प्राप्त करने का निश्चय किया।”

पुष्यमित्र ने अपने ब्राह्मण पुरोहित की राय पर महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं को समाप्त करने की प्रतिज्ञा की। वह सर्वप्रथम पाटलिपुत्र स्थित कुक्कुटाराम के महाविहार को ​नष्ट करने गया था, परन्तु वहां एक गर्जन सुनकर भयभीत हो गया और लौट आया। इसके बाद एक चतुरंगिणी सेना के साथ मार्ग में स्थित सभी स्तूपों को नष्ट करता हुआ, विहारों को जलाता हुआ तथा भिक्षुओं की हत्या करता हुआ शाकल पहुंचा। पुष्यमित्र ने शाकल में घोषणा की कि​ “जो मुझे एक भिक्षु का सिर देगा उसे मैं 100 दीनारें दूंगा।” तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने भी इसकी पुष्टि की है।

यहां तक कि क्षेमेन्द्रकृत ‘अवदानकल्पलता’ में भी पुष्यमित्र शुंग का चित्रण बौद्ध धर्म संहारक के रूप में किया गया है। हांलाकि पूर्व में भी अनेक बौद्ध लेखकों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, बतौर उदाहरण- अशोक के पूर्व बौद्धकालीन जीवन के विषय में बौद्ध ग्रन्थों में निर​र्थक वृत्तांत देखने को मिलते हैं। सम्भव है ब्राह्मण धर्म को राजाश्रय प्रदान करने के कारण कुछ बौद्धों ने पुष्यमित्र का विरोध किया हो और राजनीतिक कारणों से उसने बौद्ध अनुयायियों के साथ सख्ती का बर्ताव किया हो।

इतिहासकार के.सी. श्रीवास्तव के अनुसार, यह भी सम्भव है कि कुछ बौद्ध भिक्षु शाकल में यवनों से जा मिले हों तथा उन्हीं देश द्रोहियों का वध करने वालों को पुरस्कार देने की घोषणा पुष्यमित्र शुंग के द्वारा की गई हो। हांलाकि बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि पुष्यमित्र ने कुछ बौद्धों को अपना मंत्री नियुक्त कर रखा था। भरहुत स्तूप का निर्माण और सांची स्तूप की वेदिकाएं (रेलिंग) शुंगों के शासनकाल में ही बनवाई गईं, इसके अतिरिक्त इन बौद्ध स्तूपों को राजकीय तथा व्यक्तिगत सहायता भी प्राप्त होती रही। इस सम्बन्ध कुछ विद्वानों का  कहना है कि सांची तथा भरहुत की कलाकृतियों का निर्माण पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी शासकों ने करवाया था अ​अत: इससे पुष्यमित्र की धार्मिक सहिष्णुता सिद्ध नहीं की जा सकती।

वहीं कलाविद् हेवेल का मत है कि, सांची और भरहुत के तोरणों का निर्माण दीर्घकालीन प्रयासों का परिणाम था जिसमें कम से कम 100 वर्षों से भी अधिक समय लगा होगा। ऐसे में पुष्यमित्र को अलग करके केवल उसके उत्तराधिकारियों के काल में उनके निर्माण की कल्पना नहीं की जा सकती है। बौद्ध धर्म के प्रति पुष्यमित्र की नीतियों के सम्बन्ध में इतिहासकारों में मतभेद है, बावजूद इसके इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में कुछ बौद्ध भिक्षुओं तथा उनकी संस्थाओं के साथ कठोरता का व्यवहार किया गया, कारण चाहे जो कुछ भी रहा हो।

गौरतलब है कि पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल भारत के इतिहास में एक प्रमुख स्थान रखता है। उसने मगध साम्राज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना कर मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर वैदिक संस्कृति की पुनर्स्थापना की। 

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