भारत में प्राचीन काल से ही किलों का निर्माण कार्य होता रहा है। राजा हो या सामन्त अपने किलों का निर्माण सामरिक, प्रशासनिक एवं सुरक्षा की दृष्टि से कराते रहे हैं। मनुस्मृति से लेकर मार्कण्डेय पुराण में भी कई प्रकार के किलों के बारे में उल्लेख मिलता है। आचार्य कौटिल्य ने छह प्रकार के किलों का वर्णन किया है। इनमें पानी के मध्य स्थिति दुर्ग, किसी पहाड़ी पर स्थित दुर्ग, वन्य प्रदेश में स्थित दुर्ग, रेगिस्तान में स्थित दुर्ग मुख्य हैं। बता दें भारत में ये सभी प्रकार के किले मौजूद हैं। बहुत से किले ऐसे भी हैं जो काफी रहस्यमयी हैं, जिनको जानने के लिए कई लोगों ने अपना जीवन लगा दिया पर फिर भी इन किलों के रहस्य न जान सके।
चूंकि इन किलों की दीवारों ने समय-समय पर शत्रुओें के गोले-बारूद को झेला है और इनके प्रांगण में हजारों वीर सैनिकों ने अपने खून की होली खेली है, इसलिए हमारे देश के कुछ किले सिर्फ इसलिए चर्चित हैं कि उनमें आज भी कुछ रहस्यमयी आत्माओं का वास माना जाता है। दरअसल ये किले भूतिया किले के नाम से भी जाने जाते हैं। आज हम आपको इस स्टोरी में भारत के ऐसे सात किलों के बारे में बताने जा रहे हैं जो रहस्यमयी आत्माओं के लिए बदनाम हैं।
शनिवार वाड़ा
महाराष्ट्र राज्य के पुणे जिले में स्थित मराठा किले शनिवार वाड़ा का निर्माण 18वीं सदी में किया गया। छत्रपति शाहूजी के प्रधान पेशवा बाजीराव प्रथम ने 10 जनवरी, 1730 को शनिवार वाड़ा किले की नींव रखी। इस किले में मराठा पेशवा सहित हजारों लोग रहा करते थे। पेशवा के पुत्र-पुत्रियों के विवाह से लेकर प्रत्येक शुभ कार्य शनिवार वाड़ा में ही आयोजित होता था। शनिवार वाड़ा के प्रांगण में सैनिक सभाएं भी होती थीं।
इस किले ने मराठा पेशवाओं के वैभव को नजदीक से देखा है लेकिन आज की तारीख में शनिवार वाड़ा की संरचना खंडहर में तब्दील हो चुकी है। दरअसल 1828 में इस किले में आग लग गई थी जिससे यह सात दिनों तक जलता रहा, तभी से यह किला खंडहर है। शनिवार वाड़ा के पांच दरवाजे शेष बचे हैं जिनमें दिल्ली दरवाजा, खिड़की दरवाजा, गणेश दरवाजा, नारायण दरवाजा और मस्तानी दरवाजा मुख्य हैं। बता दें कि शाम साढ़े छह बजे के बाद शनिवार वाड़ा में जाना सख्त मना है।
स्थानीय लोग शनिवार वाड़ा को भूतिया किला मानते हैं, इसके पीछे इतिहास की यह कहानी जुड़ी है कि 18 साल के पेशवा नारायण राव की हत्या एक स्थानीय शिकारी जनजाति के सुमेर सिंह गर्दी और उसके लोगों ने कर दी। कहा जाता है कि जब सुमेर सिंह गर्दी और उसके लोगों ने नारायण राव पर हमला किया तो वह अपनी जान बचाने के लिए शनिवार वाड़ा के देवघर की ओर भागा जहां उसका चाचा रघुनाथ राव पूजा कर रहा था। नारायण राव ने चिल्ला कर कहा- जान बचा लो चाचा जबकि नारायण राव को यह नहीं पता था कि यह सब रघुनाथ राव के इशारे पर ही हो रहा है।
दरअसल रघुनाथ राव और उसकी पत्नी ने मिलकर सत्ता के लालच में नारायण राव की निर्मम हत्या करवाई थी। स्थानीय लोगों का कहना है कि तभी से नारायण राव की आत्मा शनिवार वाड़ा के महल में भटकती रहती है और लोगों को इस भटकती आत्मा के रूप में नारायण राव की चीखें-काका माला वछवा यानि चाचा मुझे बचाओ सुनाई देती हैं।
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भानगढ़ का किला
भानगढ़ किले का निर्माण अकबर के मुख्य सेनापति मानसिंह के छोटे भाई माधो सिंह ने 17वीं सदी में करवाया था। राजा माधो सिंह भी अकबर की सेना में मुख्य पद पर तैनात था। वर्तमान में अलवर जिले में स्थित भानगढ़ का किला पहाड़ों के बीच स्थित है। इस किले में आज भी कई मंदिर विद्यमान हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम इस किले की देखरेख करती है। भारतीय पुरात्व विभाग की ओर से भानगढ़ किले में रात के समय आना अथवा रूकना निषिद्ध किया गया है। दरअसल भारत का यह बेहद चर्चित किला असाधारण गतिविधियों का केंद्र माना जाता है, इसलिए सूर्यास्त के पश्चात इस किले में प्रवेश करना बेहद मूर्खतापूर्ण काम माना जाता है। इसी वजह से सूर्यास्त के बाद किले के दरवाजे बंद हो जाते हैं और किले में एंट्री बिल्कुल बैन हो जाती है।
इतिहास में भानगढ़ किले को लोग शापित मानते हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि रात के वक्त लोगों को किले से औरत के चिल्लाने और रोने की आवाजें भी सुनाई देती हैं। यही नहीं किले से संगीत की आवाजें भी आती हैं, हांलाकि वैज्ञानिक भानगढ़ की कहानियों को खारिज करते हैं।
इन सब घटनाओं के पीछे इतिहास से जुड़ी कहानी इस प्रकार है- बेहद तपस्वी साधु बालूनाथ की आज्ञा से माधो सिंह ने भानगढ़ किले का निर्माण करवाया था। हांलाकि संत बालूनाथ ने इस शर्त पर इस किले को बनाने की आज्ञा दी थी कि महल की छाया उनके प्रार्थना स्थल पर नहीं पड़नी चाहिए, यदि ऐसा हुआ तो महल पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा। जब महल बनकर तैयार हुआ तो उसकी छाया गुरू बालूनाथ के प्रार्थना स्थल पर पड़ गई और भानगढ़ किला उसी समय शापित हो गया। तब से लेकर आज तक कोई भी जीवित आत्मा भानगढ़ किले में नहीं रह पाई।
असीरगढ़ का किला
सतपुड़ा पहाड़ी क्षेत्र में स्थित असीरगढ़ किले को दक्कन की चाबी भी कहा जाता है। दरअसल बुरहानपुर से करीब 14 मील दूर मौजूद इस अजेय किले पर विजय प्राप्त करते ही दक्षिण क्षेत्र अथवा खानदेश आदि पर कब्जा करना आसान हो जाता था। मान्यता है कि असीरगढ़ किले का निर्माण 15वीं शताब्दी में आसा अहीर नामक राजा ने करवाया था जिसकी हत्या खानदेश के नासिर खान ने कर दी। असीरगढ़ किला इतिहास में इसलिए ज्यादा याद किया जाता है क्योंकि असीरगढ़ किला मुगल बादशाह अकबर का अंतिम सैन्य अभियान था। अकबर ने 17 जनवरी 1601 ई. को असीरगढ़ किले पर अधिकार कर लिया था।
असीरगढ़ किले से जुड़ी एक सुपर नेचुरल कहानी लोगों में बेहद चर्चित है। स्थानीय लोगों का मानना है कि असीरगढ़ के किले में मौजूद प्राचीन शिव मंदिर में गुरू द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा हर रोज पूजा करने आते हैं। क्योंकि यहां हर सुबह शिवलिंग पर फूल चढ़े मिलते हैं। यह बात कितनी सच है, इसे साबित नहीं किया जा सकता है लेकिन असीरगढ़ और अश्वत्थामा का रिश्ता ऐतिहसिक दस्तावेज़ों में भी दर्ज़ है। अबुल फजल के आईन-ए-अकबरी के अनुसार, “यह इलाका पहले वीरान था, जहां कुछ ही लोग रहते थे। यह अश्वत्थामा की पूजा की जगह हुआ करती थी।”
नाहरगढ़ का किला
नाहरगढ़ किले का एक नाम सुदर्शनगढ़ भी है। इस किले की नींव महाराजा सवाई जयसिंह ने रखी थी। इस किले का निर्माण कार्य महाराजा माधव सिंह के कार्यकाल में पूरा हुआ। नाहरगढ़ किला भी रहस्यमयी आत्माओं के लिए बदनाम है। इस किले के बारे में एक कथा प्रचलित है कि जब इस किले का निर्माण करवाया जा रहा था तभी इस पर किसी प्रेतात्मा का साया था क्योंकि रात में वह प्रेतात्मा इस किले की दीवार को गिरा देता था।
उन दिनों एक तांत्रिक ने बताया कि यह आत्मा एक वीर योद्धा नाहर सिंह की है जो युद्ध के दौरान अपना सिर कटने के बाद भी धड़ से लड़ता रहा था। ऐसा कहते हैं कि उसी आत्मा के निर्देश पर किले को बनाने से पहले वहां एक मंदिर बनवाया गया। इसके बाद किले का नाम बदलकर सुदर्शनगढ़ से नाहरगढ़ कर दिया गया। स्थानीय लोग नाहरगढ़ किले को आज भी भूतिया मानते हैं, उनका कहना है कि इस किले में अचानक तेज हवाओं का चलना और दरवाजों के कांच टूटकर बिखरना आम बात है। फिर अचानक ठंड भी महसूस होने लगती है।
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गोलकुण्डा का किला
हैदराबाद से तकरीबन आठ किलोमीटर पश्चिम मे गोलकुण्डा का किला स्थित है। पूर्वकाल में यह स्थान पहले कुतबशाही राज्य में मिलनेवाले हीरे-जवाहरातों के लिए प्रसिद्ध था। 14वीं शताब्दी में वारंगल के राजा ने इस किले का निर्माण करवाया था। गोलकुण्डा का किला बहमनी राजाओं से लेकर कुतुबशाही राजाओं के अधिकार में रहा। साल 1687 ई.में मुगल बादशाह औरंगजेब ने इस किले पर अधिकार कर लिया।
400 फीट ऊंची पहाड़ी पर बने इस किले में आठ दरवाजे और 87 गढ़ हैं। इस किले की सबसे बड़ी खासियत है कि जब भी कोई किले के तल पर ताली बजाता है तो उसकी आवाज पूरे किले में सुनाई देती है। गोलकोंडा के सबसे ऊपर श्री जगदम्बा महा मंदिर स्थित है।
ज्यादातर लोगों को मानना है कि गोलकुण्डा का किला भी प्रेतबाधित है। इस किले में सुल्तान अब्दुल्ला कुतुब शाह की खूबसूरत नर्तकी तारामती की आत्मा भटकती रहती है। कई लोगों के अनुसार, तारामती की प्रेतात्मा किले में नाचती -गाती दिख जाती है। वहीं कुछ अफवाहों के मुताबिक गोलकोंडा किले में कुतुब शाही शासकों की आत्माएं आज भी भटकती हैं। कई लोगों ने गोलकुण्डा के खण्डहरों से रात के वक्त अजीबो-गरीब आवाजें सुनने का दावा किया है। कुछ पर्यटकों ने तो किले में बिना शरीर वाली परछाइयों को भी भटकते हुए महसूस हुआ है। ये अज्ञात परछाइयाँ अचानक सामने आती हैं और इसे अनुभव करने वाले व्यक्ति को चौंका देती हैं। सायं 6 बजे के बाद जो लोग भी इस किले में रूकने की कोशिश करते हैं उन्हें कुछ असाधारण गतिविधियां देखने की सम्भावना ज्यादा होती है।
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फ़िरोज़ शाह कोटला का किला
दिल्ली में फिरोजशाह कोटला किले का निर्माण 14वीं शताब्दी में फिरोजशाह तुगलक ने करवाया था। दिल्ली के जामा मस्जिद के ठीक बगल में स्थित फिरोजशाह कोटला किले की यह मान्यता है कि इसमें जिन्न रहते हैं और इन जिन्नों को जो मानता है उसकी हर मुराद पूरी होती है। इस्लाम धर्म में जिन्नों को जन्नत यानि स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया और इन्हें हमेशा के लिए पृथ्वी पर ही विचरण करते रहने का श्राप मिला है।
जिन्नों के बारे में लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि ऐसी रहस्यमयी आत्माएं असुरक्षित युवा महिलाओं और बच्चों को अपने आगोश में ले लेते हैं। जिन्नों को प्रसन्न करने के लिए मैदान में ही दूध, अनाज और फल आदि रखकर छोड़ दिया जाता है। फिरोजशाह कोटला में ऐसे लोग आज भी आते हैं जिन्हें लगता है कि उनके ऊपर किसी भूत-प्रेत का साया है, ये लोग झाड़-फूंक के बाद ठीक होकर जाते हैं।
मेहरानगढ़ किला
राजस्थान के जोधपुर स्थित भव्य मेहरानगढ़ किले की नींव 15 वीं शताब्दी में राठौड़ शासक राव जोधा ने रखी थी। मेहरानगढ़ किले का निर्माण कार्य महाराजा जसवंत सिंह ने वर्ष 1678 ई. में पूरा करवाया था। इस किले की दीवारों की परिधि तकरीबन 10 किमी. तथा ऊँचाई 20 फुट से 120 फुट तथा चौड़ाई 12 फुट से 70 फुट तक है। मेहरानगढ़ फोर्ट के परकोटे में ही अन्य 7 आरक्षित दुर्ग मौजूद हैं। मेहरानगढ़ महल की खूबसूरती देखते ही बनती है, इसके अन्दर फूल महल, मोती महल, शीश महल आदि मौजूद हैं।
मेहरानगढ़ के अन्दर मौजूद म्यूजियम में राजपूताना पालकी, शाही पोशाकें, संगीत वाद्य, फर्नीचर आदि देखने को मिलते हैं। इसके अतिरिक्त मेहरानगढ़ किले की दीवारों पर तोपें भी आज रखी हुई दिखती हैं। मेहरानगढ़ किले का इतिहास लगभग 500 साल से भी अधिक पुराना है। मेहरानगढ़ फोर्ट में जय पोल, फतेह पोल, डेढ़ कंग्र पोल, लोहा पुल नाम से कई विशाल द्वार बने हुए हैं।
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एक वृद्ध संत द्वारा श्रापित है मेहरानगढ़ फोर्ट
राजा पहाड़ी पर एक वृद्ध संत रहते थे जो लोगों में ‘चिड़ियावाले बाबा’ के नाम से मशहूर थे। जब राव जोधा ने जोधपुर में इस पहाड़ी पर मेहरानगढ़ फोर्ट बनाने का निर्णय लिया तब राजा पहाड़ी पर रहने वाले सभी लोगों को सैनिकों ने वहां से हटा दिया। सैनिकों ने उस बूढ़े संत को भी वहां से हटा दिया, इसके बाद उस संत बाबा ने श्राप दिया कि उसके राज्य में बार-बार सूखा पड़ेगा। उस वृद्ध संत के श्राप से भयभीत राव जोधा ने क्षमा प्रार्थना की। हांलाकि अपने श्राप को वापस लेने में असमर्थ बाबा ने कहा कि किसी ईमानदार व्यक्ति को अपनी आहूति देनी होगी तभी मेहरानगढ़ किले का निर्माण पूरा हो पाएगा।
पूरे राज्य में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला, इसके बाद राव जोधा के कहने पर राजिया बांबी अथवा राजाराम मेघवाल नाम के एक युवक ने आत्मबलिदान देने का निर्णय लिया। उस युवक को जिन्दा दफन कर दिया गया तत्पश्चात मेहरानगढ़ किले की नींव रखी जा सकी। किले के अन्दर राजाराम मेघवाल की कब्र बनी हुई, जहां बलुए पत्थर पर उसके दफनाने की तारीख और अन्य विवरण उत्कीर्ण हैं। इसी प्रकार मेहरानगढ़ किले में सतियों के 16 हाथ जिनमें एक मुख्य रानी और बाकी उपपत्नियों के मौजूद हैं। ऐसे में राजाराम मेघवाल की कब्र, सतियों के हाथ के निशान प्रेरकों की आत्मा को बुरी तरह प्रभावित करते हैं।