साधु-संत हो या फकीर उसे किसी जाति विशेष से जोड़ना सर्वदा निन्दनीय माना गया। कहते हैं साधु की कोई जाति नहीं होती क्योंकि वह अपने तपस्या और ज्ञान से मानव जाति को सिंचित करने का काम करता है। आज एक ऐसे ही महान संत की गाथा लिखने जा रहे हैं जिसकी जयंती प्रत्येक वर्ष माघी पूर्णिमा के दिन पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।
मध्ययुगीन साधकों में संत रैदास का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। संत रैदास को कबीर के समकालीन माना जाता है। संत रैदास की ख्याति से प्रभावित होकर सुल्तान सिंकन्दर लोदी ने उन्हें दिल्ली आने का न्यौता भेजा था, जिसे उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ ठुकरा दिया। संत रैदास की रचनाओं में खड़ी बोली, अवधी, राजस्थानी, उर्दू-फारसी आदि भाषाओं का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। आपको जानकारी के लिए बता दें कि संत रैदास के लगभग चालीस पद सिख धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में भी सम्मिलित किए गए है। उनकी काव्य रचनाएं रैदासी के नाम से जानी जाती हैं।
चर्मकार जाति में जन्म लेने के कारण संत रैदास जूते बनाने का काम करते थे। इस कार्य को वो पूरी शिद्दत और आनन्दपूर्वक करते थे। संत रैदास का जन्म बनारस के सीर गोवर्धनपुर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का कलसा था। संत रैदास की पत्नी का नाम लोनाजी और बेटे का नाम श्रीविजयदास जी है।
संत रैदास कहते हैं-
जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा। नीचे से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविदास चमारा।।
संत रैदास ने मध्ययुग के उस दौर में जन्म लिया था जब शूद्र जाति के लोगों को उच्च जाति के लोगों से प्रताड़ित होना पड़ता था। मध्ययुग में संत रैदास ने अंधविश्वास, ढोंग, छूआछूत तथा जातिप्रथा रूपी विष को जड़ से मिटाने का प्रयास किया।
जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात। रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥
अर्थ- रैदास कहते हैं कि किसी की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि संसार में कोई जाति−पाँति नहीं है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। यहाँ कोई जाति, बुरी जाति नहीं है।
वैसे तो संत रविदास की जीवन से जुड़ी अनेकों कहानियां प्रचलित है परन्तु इस लेखन के माध्यम से हम यही जताने का प्रयास कर रहे हैं कि मध्ययुग के राजूपत और शक्तिशाली राजा की पत्नी द्वारा एक दलित संत को अपना गुरू बनाना जातिगत सौहार्द्र की एक मिशाल है ।
जी हां, हम बात कर रहे हैं मेवाड़ के परमशक्तिशाली शासक राणा सांगा यानि महाराणा संग्राम सिंह की जिनका नाम जुबां पर आते ही राजस्थानी शौर्य की झलक आंखों के सामने दिखने लगती है।
संवत् 1566 से संवत् 1584 (सन् 1509-1527) तक मेवाड़ पर शासन करने वाले राणा सांगा को मध्ययुग के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में शुमार किया जाता है। महाराणा सांगा की कुल 28 रानियों में से एक नाम रानी झाली का भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है।
आपको जानकारी के लिए बता दें कि संवत् 1567-68 में महाराणा सांगा की झाली रानी ने स्वयं काशी जाकर संत रैदास को अपना गुरू बनाया था। आपको जानकर यह हैरानी होगी कि रानी झाली के प्रार्थना करने पर स्वयं संत रैदास मेवाड़ आए थे।
संत रैदास की उपस्थिति में रानी झाली ने अपने पुत्र भोजराज की शादी मीराबाई से किया था। उस वक्त चित्तौड़ के किले में एक अजीबो-गरीब घटना देखने को मिली अर्थात संत रैदास ने जैसे चित्तौड़ के किले में प्रवेश किया राजस्थान के ब्राह्मणों ने इनका विरोध किया। लेकिन रानी झाली ने संत रैदास का स्वागत पालकी पर किया।
वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान संत रैदास ने जैसे ही बतौर अतिथि महल में प्रवेश किया तब यह दृश्य देखकर ब्राह्मणों ने कहा कि यदि तुम्हारे गुरू में शक्ति है तो अपनी शक्ति का प्रमाण दें। संत रैदास ने मीरा और रानी झाली से कहा कि अपनी आंखे बंद कर लो सब ठीक हो जाएगा। इसके बाद दरबार में बैठे हर एक के बाद एक ब्राह्मण को हर जगह केवल संत रैदास ही दिखाई देने लगे। ब्राह्मणों ने यह दृश्य देखकर एक मत से स्वीकार कर लिया कि संत रैदास कोई मामूली संत नहीं हैं।
ब्राह्मणों को संत रैदास के साथ किए गए दुर्व्यवहार को लेकर पश्चाताप हुआ और उन्होंने संत रैदास से क्षमा करने की प्रार्थना की। कहते हैं कि संत रैदास ने उन सभी ब्राह्मणों को माफ कर दिया और वे सभी उनके शिष्य बन गए।
यह सच है कि समय किसी के लिए रूकता नहीं है। संवत् 1584 (सन् 1527) में खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा की पराजय और फिर मृत्यु के बाद रानी झाली विधवा हो गई। हांलाकि पति की मौत के बाद रानी झाली किस स्थिति में रहीं, इस बारे में इतिहास मौन है। लेकिन यह सच है कि रानी झाली और मीराबाई के प्रयासों से ही चित्तौड़ के किले में कुंभ श्याम के नजदीक मीरा मंदिर के साथ संत रैदास की छतरी का निर्माण संभव हो सका होगा। इस छतरी के नीचे संत रैदास की चरण पादुका बनी हुई है तथा छत के निचले भाग में संत रविदास द्वारा बताए गए पंच विकारों की प्रतिमा एक प्रस्तर शिला पर उत्कीर्ण है।
गौरतलब है कि रानी झाली, मीराबाई सहित उन तमाम रैदास भक्तों की केवल स्मृतियां शेष हैं, जिन्होंने संत रैदास की दैवीय शक्तियों का चमत्कार अपनी आंखों से देखा था। हांलाकि इन सभी तथ्यों का साक्षी चित्तौड़गढ़ का किला तब भी था और आज भी है, जो अपनी गवाही देने को हर पल तैयार है।