वारकरी सम्प्रदाय के लोग पंढरपुर के मंदिर में स्थापित भगवान विट्ठल की परिक्रमा करते हैं और संयमित जीवन व्यतीत करते हुए सदैव भजन-कीर्तन, नाम स्मरण और चिन्तन आदि में लीन रहते हैं। दरअसल 'वारकरी' शब्द वारी और करी से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है-परिक्रमा करने वाला। वारकरी सम्प्रदाय के लोगों ने वर्णाश्रम धर्म के नियमों का बहिष्कार करते हुए प्रयत्ति मार्ग को मान्यता प्रदान की है। संत ज्ञानेश्वर को वारकरी सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है।
वारकरी सम्प्रदाय पर अनेकों किताब लिखने वाले श्री शंकर वामन दांडेकर ‘वारकरी’ की व्याख्या कुछ इस तरह से करते हैं- ‘आषाढ़, कार्तिक, माघ तथा चैत्र, इन चार महीनों की शुक्ल एकादशी के दिन गले में तुलसी की माला धारण कर जो नियमित रूप से पंढरपुर की यात्रा करता है, वह वारकरी कहलाता है तथा उसकी उपासना का मार्ग वारकरी पंथ अथवा वारकरी सम्प्रदाय कहलाता है।’
बता दें कि उपरोक्त चारो महीनों में आषाढ़ मास की एकादशी का विशेष महत्व है। इस दिन महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों के विट्ठल भक्त पंढरपुर में एकत्र होते हैं तथा संत-कवियों के अभंग और ओवी गाकर भक्ति रस में डूब जाते हैं।
दलित कवि-संत चोखामेला
संत ज्ञानेदव और संत नामदेव के बाद चोखामेला के अभंगों से उनकी महानता का पता चलता है। तेरहवीं सदी के आखिर में और चौदहवीं सदी के प्राम्भ में पंढरपुर के निकटवर्ती मंगलवेढा में जन्म लेने वाले चोखामेला महार जाति के थे। ऐसे में इस दलित संत-कवि को भगवान विट्ठल की भक्ति के लिए अनेकों यातनाएं सहनी पड़ी। हांलाकि उनके गुरू संत नामदेव का साथ निरंतर चोखामेला को मिलता रहा।
विट्ठल भक्ति में हमेशा तल्लीन रहने वाले चोखामेला की आंखें अपने भगवान के दर्शनों के लिए तरस रही थीं लेकिन उन्हें पंढरपुर के मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। हांलाकि उनके सखा संत नामदेव किसी भी हालत में चोखामेला को पंढरपुर के विट्ठल भगवान के दर्शन कराना चाहते थे।
पंढरपुर के पुजारियों ने चोखामेला पर कई आरोप भी मढ़े तथा एक बार चोखामेला को बैलों के पैर में बांधकर घसीटे जाने का भी दंड सुनिश्चित किया गया, लेकिन हैरान की बात पुजारी बैलों को मार-मारकर थक गए लेकिन बैल अपनी जगह से हिले तक नहीं। कहते हैं तब सभी ने अनुभव किया कि पीताम्बरधारी पांडुरंग ही उनके सम्मुख खड़े हैं। इसके बाद सभी को इस बात अहसास हुआ कि भगवान विट्ठल ही चोखामेला के असली रक्षक हैं।
चोखामेला अपने अभंग में लिखते हैं-(मराठी भाषा)
जन्मला देह सुखाचा। काय भरवसा आहे याचा।
एकलेचि यावें, एकलेचि जावें। हेचि अनुभवावें आपणचि।।
कोण हे अवघे सुखाचे संगति। अंतकालि होती पाठीमारे।
चोखा म्हणे याचा न धरी भरवसा। शरण जो सर्व विठोबा सी।।
चोखामेला के उपरोक्त अभंग का हिन्दी अर्थ है कि जीवन, जगत, शरीर सब क्षणभंगुर है। किसी का कोई साथी नहीं है, सब अकेले ही आते हैं और अकेले ही जाते हैं।
संत-कवि सोयराबाई
संत-कवि चोखामेला की पत्नी थी सोयराबाई, ऐसे में उनके अभंगों में भगवान विट्ठल की समतावादी भक्ति की झलक मिलती है, जो समाज के सबसे उत्पीड़ित वर्गों को आकर्षित करता है। बता दें कि सोयराबाई को भी अपने पति की ही तरह पंढरपुर के ब्राह्मणवाद के आध्यात्मिक अतिक्रमण का शिकार होना पड़ा था।
संत-कवि सोयराबाई का एक चर्चित अभंग कुछ इस प्रकार से है- (मराठी भाषा)
अवघा रंग एक झाला। रंगी रंगला श्रीरंग।।
मी तूंपण गेलें वायां। पाहतं पंडरीच्या राया।।
नाही भेदाचें तें काम। पळोनी गेले क्रोध काम।।
देही असुनी तूं विदेही। सदा समाधिस्थ पाही।।
पाहते पाहणें गेले दुरी। म्हणे चोख्याची महारी।।
महान दलित संत-कवि चोखोमला की पत्नी सोयराबाई के उपरोक्ता अभंग का हिन्दी अर्थ है- सारे रंग मिलकर एक हो गए हैं। रंगों के देवता स्वयं इस रंग में रंगे हुए हैं। पंढरी भगवान के दर्शन से मैं और तू का भेद मिट गया, भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं रहा। क्रोध और वासना भी गायब हो गए हैं। आप साकार होते हुए भी निराकार हैं। मैं आपको निरंतर ध्यान की स्थिति में देखती हूं। चोखा की पत्नी कहती है, दर्शक और निगाह में कोई अंतर नहीं रह जाता।
सोयराबाई के अभी कम से कम 62 अभंग बचे हुए हैं, हांलाकि इन अभंगों की तरफ अभी तक बहुत ही कम विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है। सोयराबाई ने अपने अभंगों में परिवार, दैनिक जीवन, भगवान विठोबा की भक्ति, पंढरपुर की यात्रा तथा वैवाहिक जीवन के बीच स्वतंत्र अधिकार पाने के बारे में लिखा है।
सोयराबाई के अभंगों के पता चलता है कि दलितों को कितनी गरीबी झेलनी पड़ती थी, धार्मिक दावतों के बाद अक्सर बचे हुए भोजन को दलितों के बीच वितरित किया जाता था। सोयराबाई भक्ति परम्परा को आमजन के लिए कुछ इस तरह से इंगित करती हैं कि भगवान माता और पिता दोनों हैं, सांसारिक अथवा वैवाहिक जीवन की भावनाओं और समस्याओं का इलाज केवल भगवान के नाम का जप करने में है।
एक अभंग में सोयराबाई अपनी स्थिति के लिए भगवान को कोसती हैं जो उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देता है। उनके एक अन्य अभंग में पंढरपुर के ब्राह्मणों द्वारा चोखामेला को परेशान करने का उल्लेख है- (मराठी भाषा)
पंढरीचे ब्राम्हणे चोख्यासी छळीले। तयालागीं केले नवल देवें।।
सकळ समुदाव चोखियाचे घरी। रिध्दी सिध्दि द्वारी तिष्ठताती।।
रंग माळा सडे गुढीया तोरणे। आनंद किर्तन वैष्ण्ववांचे।।
असंख्य ब्राम्हण बैसल्या पंगती। विमानी पाहती सुरवर।।
तो सुख सोहळा दिवाळी दसरा। वोवाळी सोयरा चोखीयासी।।
हिन्दी अर्थ है- पंढरी के ब्राह्मणों ने चोखा को बहुत परेशान किया। इस पर भगवान को आश्चर्य हुआ। सभी लोग चोखा के घर पर एकत्र हुए। ऋद्धि और सिद्धि दरवाजे पर खड़ी थी। प्रवेश द्वार पर रंगोली, द्वार पर झंडे। वैष्णवों का हर्षोल्लास कीर्तन। जश्न दिवाली और दशहरा जैसा था। सोयराबाई, चोखा से पहले आरती की रोशनी लहराती हैं।
गौरतलब है कि दलित जाति से होने के कारण सोयराबाई के अभंगों में उनके जीवन की दुर्दशा का उल्लेख मिलता है, हांलाकि ये अभंग बहुत कम हैं। सोयराबाई के कुछ ही अभंग बचे है, जो मौखिक रूप से संरक्षित हैं। शायद इसलिए कि विट्ठल भक्तों ने केवल वही अभंग गाए होंगे जिन्हें उन्होंने पंढरपुर की तीर्थयात्रा के लिए उपयुक्त समझा होगा।