
‘पिण्डारी’ शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। अधिकांश लोगों का मानना है कि पिण्डारी शब्द मराठी भाषा से जुड़ा है। सम्भवत: पिण्ड एक विशेष प्रकार की शराब थी और इसको पीने वाले लोग पिण्डारी थे। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में पिण्डारी केवल लूटमार करते थे।
पिण्डारियों का सर्वप्रथम उल्लेख 1689 ई.में मिलता है जब मुगलों ने महाराष्ट्र पर आक्रमण किया था। पिंडारी सरदार नसरू ने मुगलों के विरुद्ध शिवाजी की सहायता की जबकि पुनापा ने उनके उत्तराधिकारियों का साथ दिया। पेशवा बाजीराव प्रथम के समय पिण्डारी मराठों की ओर से लड़ते थे और केवल लूट में भाग लेते थे। गाजीउद्दीन ने बाजीराव प्रथम को उसके उत्तरी अभियानों में सहयोग दिया। चिंगोदी तथा हूल के नेतृत्व में 15 हजार पिंडारियों ने पानीपत के युद्ध में भाग लिया था। पानीपत युद्ध के बाद ये लोग मालवा में बस गए तथा सिन्धिया, होल्कर तथा निजाम के सहायक सैनिक बन गए। अब ये सिन्धिया शाही, होल्कर शाही और निजाम शाही पिण्डारी कहलाने लगे।
सिंधिया की पिंडारी सेना के प्रमुख सरदार चीतू, करीम खाँ, दोस्त मुहम्मद और वासील मुहम्मद थे। वहीं होल्कर की सेना में पिण्डारी सरदार कादिर खाँ, तुक्कू खाँ, साहिब खाँ और शेख दुल्ला सेवारत थे। ऐसा माना जाता है कि उन दिनों पिण्डारी घुड़सवारों की संख्या तकरीबन 50 हजार थी। मल्हार राव होल्कर ने तो इन्हें एक सुनहला झण्डा भी दे दिया था। 1794 में सिन्धिया ने इन्हें नर्मदा घाटी में जागीर दे दी जिसका इन्होंने शीघ्रता से विस्तार कर लिया। मेल्कम ने इन पिण्डारियों को ‘मराठा शिकारियों के साथ शिकारी कुत्तों’ की उपमा दी थी।
पिण्डारियों के दमन के लिए ब्रिटीश सरकार का सैन्य अभियान
मराठों के कमजोर होते ही पिण्डारियों ने मराठा प्रदेशों को भी लूटना शुरू कर दिया था। 18वीं शताब्दी में अव्यवस्था फैलने के कारण इनकी संख्या और इनके कार्यक्षेत्र बढ़ते चले गए। पिण्डारी अब धन लेकर अन्य राज्यों को सैनिक सहायता देने लगे तथा अव्यवस्था का लाभ उठाकर कमजोर राज्यों अथवा क्षेत्रों को लूटकर धन कमाने लगे।
पिण्डारियों के आतंक से कुछ देशी राज्यों ने अंग्रेजों से सन्धि भी कर ली। चूंकि पिण्डारियों का आतंक मिर्जापुर से मद्रास तक और उड़ीसा से राजस्थान तथा गुजरात तक था। अत: पिण्डारियों के दमन के लिए गर्वनर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज ने एक लाख 13 हजार की सेना और 300 तोपें एकत्र कर लीं। उत्तरी सेना की कमान उसने स्वयं ले ली तथा दक्षिणी सेना सर टामस हिसलोप को दे दी। पिण्डारियों के खात्मे के लिए ब्रिटीश सेना ने जोरदार अभियान चलाया। 1817 ई. तक पिण्डारी लोग चम्बल नदी के पार तक खदेड़ दिए गए थे।
जनवरी 1818 तक उनके संगठित दल छिन्न-भिन्न हो चुके थे। अब केवल नाममात्र के पिण्डारी सरदार बचे थे जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता था। इनमें करीम खां, वासील मुहम्मद, चीतू खां, नामदार खां और अमीर खां शेष बचे थे। करीम खां ने मेल्कम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया जिसे गोरखपुर में गनेसपुर की एक छोटी सी जागीर दे दी गई। वासील मुहम्मद ने सिन्धियां के यहां शरण ली जिसे उसने अंग्रेजों को सौंप दिया। अत: वासील मुहम्मद ने गाजीपुर जेल में आत्महत्या कर ली। चीतू खां असोरगढ़ के जंगल में भाग गया था जहां उसे शेर ने मार दिया। वहीं करीम खां के भतीजे नामदार खां को अंग्रेजों ने भोपाल में बसा दिया। पिण्डारी सरदार अमीर खां को अंग्रेजों ने टोंक रियासत का नवाब बना दिया जिससे पूरा राजपूताना आतंकित था। इस स्टोरी में हम आपको पिण्डारी सरदार अमीर खां से जुड़ी रोचक जानकारी देने का प्रयास करेंगे।
टोंक रियासत का नवाब अमीर खां पिण्डारी
अमीर खां मुरादाबाद जिले के संभल के मुल्ला हयात खान का लड़का था। मुल्ला हयात खान संभल के मोहल्ला सेरा तेरेना में खेती-बारी करते थे। जबकि अमीर खां के दादा का नाम तलेह खान था जो आधुनिक पाकिस्तान में युसुफजई जनजाति के पश्तून थे। तलेह खान, मोहम्मद शाह के शासनकाल में भारत आ गए। अमीर खां पिण्डारी का जन्म 1768 ई. में हुआ। साल 1787 ई. में महज 20 वर्ष की उम्र में अमीर खां पिण्डारी अपना भाग्य आजमाने व रोजी-रोटी की तलाश में घर से निकल पड़ा।
अपने जीवन की शुरूआत में अमीर खां पिण्डारी भाड़े पर लड़ने वाला पठान था। अमीर खां पिण्डारी सबसे पहले भोपाल और राघोगढ़ की सेना में सैनिक के रूप में भर्ती हुआ। बाद में उसकी ताकत को देखकर मराठा सरदार बालाराम इंगलिया ने उसे 1500 सैनिक देकर फतेहगढ़ का किलेदार बनाया। 1798 ई. में अमीर खां पिण्डारी यशवंतराव होल्कर की सेना में शामिल हो गया और होल्कर की तरफ से लड़ने लगा। 1798 ई. में ही सिरोंज को जसवन्त राव होलकर ने अमीर खान पिंडारी को सौंप दिया। इतिहासकारों के मुताबिक, अमीर खां पिण्डारी जब सिरोंज गया था तब उसकी सेना में 80 हजार घुड़सवार पिण्डारी और प्यादे मौजूद थे। बता दें कि पूर्व में सिंरोज राजपूताना का एक प्रमुख क्षेत्र हुआ करता था। नदी, नाले, पहाड़ आदि होने के कारण सिरोंज पहुंचने के रास्ते बेहद कष्टप्रद असाध्य और उबाऊ थे। सिरोंज जयपुर से 660 किमी. और राजपूताना की सीमा से करीब 235 किमी. दूर था। 1806 ई. तक टोंक और पिरावा पर भी उसका आधिपत्य हो गया। यहां तक कि 1809 में निम्बाहेड़ा और 1816 में छाबड़ा पर भी अमीर खां का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
1805 ई. में यशवंत राव होल्कर ने जब अंग्रेजों से संन्धि कर ली तब अमीर खां पिण्डारी स्वतंत्र रूप से लूटमार कर अपनी आजीविका चलाने लगा। अमीर खां अपने 80 हजार पिण्डारियों तथा मजबूत तोपखाने की बदौलत मध्य भारत और राजपूताना में आतंक का पर्याय बन गया। उसने अपने बाहुबल के दम पर राजपूताना के प्रमुख राज्यों जयपुर, जोधपुर व मेवाड़ को लूटा।
1807 ई. में मेवाड़ और जयपुर के बीच हुए गिंगोली के युद्ध में अमीर खां पिण्डारी की सहायता से जयपुर के महाराजा जगत सिंह ने मेवाड़ के शासक मान सिंह को पराजित कर दिया था। यहां तक कि उसने मेवाड़ के महाराणा भीम सिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी को 1810 ई. में आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया।
अमीर खां पिण्डारी के आतंक से परेशान ब्रिटीश सरकार ने उस पर शिकंजा कसने के लिए एक अभियान चलाया जिसके तहत 1817 में अंग्रेजों ने बड़ी सेना लेकर मालवा को घेर लिया था। इस युद्ध में अमीर खां पिण्डारी को शिकस्त का सामना करना पड़ा और दबाव के कारण उसे अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। इस संधि के तहत अमीर खां पिण्डारी ने अपनी अधिकांश सेना ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप दी बदले में अंग्रेजों ने 9 नवंबर, 1817 को अमीर खां पिण्डारी को टोंक रियासत का नवाब घोषित कर दिया। नवाब के रूप में अमीर खां ने ‘अमीरूद्दौला’ की उपाधि धारण की। इस प्रकार टोंक रियासत राजपूताना की एकमात्र मुस्लिम रियासत बनी।
9 जनवरी 1832 ई. को अजमेर में आयोजित दरबार में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक से अमीर खां ने एक शिष्टाचार मुलाकात की। इस दौरान अमीर खां ने लॉर्ड विलियम बेंटिक को अपने स्वतंत्र और स्पष्ट विचारों से खासा प्रभावित किया। टोंक रियासत पर तकरीबन 17 साल तक शासन करने के बाद 1834 ई. में अमीर खां पिण्डारी की मृत्यु हो गई। इसके बाद अमीर खां के बड़े पुत्र वजीर खां तत्पश्चात उसका पुत्र मोहम्मद अली खां टोंक का नवाब बना। 1895 ई. में मोहम्मद अली खां की मौत के बाद उसका अल्पवयस्क पुत्र मोहम्मद इब्राहिम खां टोंक का नवाब बना। गौरतलब है कि देश की आजादी के बाद जब 1948 ई. में टोंक रियासत को ‘पूर्व राजस्थान संघ’ में मिलाया गया तब टोंक का नवाब इस्माइल खां था।
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