मैसूर पहले विजयनगर राज्य के अधीन था। विजयनगर के राजा वेंकट द्वितीय ने 1612 ई. में मैसूर में वाडियार राज्य की स्थापना की। मैसूर में शक्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया वाडियार वंश के अंतिम शासक चिक कृष्णराज के काल में आरम्भ हुई। 1713 से 1743 के बीच दो भाईयों देवराज (मुख्य सेनापति) तथा नंजराज (राजस्व तथा वित्त नियंत्रक) ने मैसूर राज्य की सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित कर ली। इसी दौरान हैदर अली नामक एक योग्य व्यक्ति नंजराज की सेना में बतौर घुड़सवार भर्ती हुआ जो अपनी योग्यता के बल पर 1761 ई. तक मैसूर राज्य का स्वामी बन बैठा।
हैदरअली का जीवन वृत्तांत- साल 1721 में कोलार जिले में बुडीकोटा के एक साधारण परिवार में जन्मे हैदर अली के पिता का नाम फतेह मुहम्मद था जो मैसूर राज्य में एक साधारण नौकरी करता था। कालांतर में अपनी योग्यता के आधार पर वह सेना में फौजदार बन गया। हैदरअली यद्यपि अशिक्षित था लेकिन उसमें वीरोचित गुण, सैनिक प्रतिभा एवं कूटनीतिज्ञता कूट-कूटकर भरी थी। अत: शीघ्र ही हैदर अली को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल गया।
मैसूर का राजस्व एवं वित्त नियंत्रक नंजराज, हैदर अली की प्रतिभा से बहुत ही प्रभावित हुआ। 1749 ई. में नंजराज ने हैदर अली को अपनी सेना में बतौर घुड़सवार भर्ती कर लिया। हैदर अली के युद्ध कौशल से प्रभावित होकर नंजराज ने 1755 ई. में उसे डिंडीगुल किले का फौजदार नियुक्त कर दिया। डिंडीगुल का फौजदार बनते ही हैदर अली ने दो कार्य किए। सबसे पहले उसने खांडेराव नामक ब्राह्मण को अपना सलाहकार नियुक्त किया तत्पश्चात फ्रांसीसी अधिकारियों की मदद से अपनी सेना को पाश्चात्य तकनीक से प्रशिक्षित और पुनर्गठित किया। इतना ही नहीं, हैदर अली ने डिंडीगुल में ही एक आधुनिक शस्त्रागार की भी स्थापना की। आसपास के क्षेत्रों को लूटकर धन एकत्र किया और अपनी शक्ति तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि की।
साल 1759 में मराठा आक्रमण से मैसूर की सुरक्षा में हैदर अली की अहम भूमिका थी। ऐसे में नंजराज ने उसे मैसूर का सेनापति नियुक्त कर दिया। मैसूर राज्य की राजधानी श्रीरंगपट्टनम पर मराठा आक्रमणों का भय था अत: हैदरअली ने खांडेराव की मदद से नंजराज की शक्ति का अंत कर 1760 में स्वयं को मैसूर का शासक घोषित किया।
यह ध्यान रहे कि पानीपत के तीसरे युद्ध की हार को भुलाकर पेशवा माधवराव के नेतृत्व में मराठे पुन: उठ खड़े हुए। मराठों ने क्रमश: 1764, 1766 तथा 1771 में मैसूर राज्य पर आक्रमण कर हैदर अली को हराया तथा उसे कुछ क्षेत्र तथा धन देने पर बाध्य किया। लेकिन 1772 ई. में पेशवा माधवराव की मृत्यु के बाद हैदरअली ने न केवल अपने खोए हुए प्रदेश पुन: जीत लिए बल्कि कृष्णा तुंगभद्रा घाटी के कई क्षेत्रों बेलारी, कुड्डपा, गूटी, तथा करनूल इत्यादि पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार हैदर अली की बढ़ती शक्ति से अंग्रेज घबरा उठे। अत: उन्होंने हैदर अली पर अंकुश लगाने का निश्चय किया।
अंग्रेजों तथा मैसूर के बीच कुल चार युद्ध हुए। इनमें प्रथम युद्ध को छोड़कर शेष में अंग्रेजों की विजय हुई। चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद अंग्रेजों ने मैसूर राज्य का विभाजन कर दिया और शेष मैसूर राज्य वाडियार वंश के एक अल्पवयस्क राजकुमार कृष्ण राव को दे दिया।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767 से 1769 ई.)
हैदर अली की फ्रांसीसियों से मित्रता भी आंग्ल-मैसूर युद्ध के प्रमुख कारणों में से एक थी। दूसरी तरफ अंग्रेजों के साथ-साथ मराठे तथा निजाम भी हैदर अली से आतंकित थे। इसके अतिरिक्त आर्काट का नवाब मुहम्मद अली जो हैदर अली का शत्रु था, उसे अंग्रेजों ने शरण दे रखी थी। इस बात से हैदर अली अंग्रेजों से काफी क्रुद्ध था। वहीं अंग्रेज भी मालाबार के जमींदारों के प्रदेश हैदर द्वारा छीने से नाराज थे। अत: 1766 ई. में निजाम, मराठों तथा अंग्रेजों ने हैदर अली के विरूद्ध त्रिगुट कायम कर लिया। बावजूद इसके हैदर अली विचलित नहीं हुआ, उसने कूटनीति से काम लिया।
जब मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया तब हैदर ने उन्हें 35 लाख रुपए देने का आश्वासन दिया। जिसके तहत 18 लाख रुपए नकद तथा शेष राशि के बदले कोलार जिला देकर मराठों को महाराष्ट्र वापस लौटा दिया। इसके साथ ही निजाम को प्रदेश का प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिला लिया। ऐसे में अंग्रेजों को अकेले ही हैदर से युद्ध करना पड़ा। हैदर और निजाम की सेना तथा कर्नल स्मिथ के बीच चंगमा, त्रिनोमाल, वेनियामबाड़ी आदि जगहों पर कई युद्ध हुए जिनमें हैदर को पराजित होना पड़ा। इसी बीच अंग्रेजों के सम्भावित आक्रमण को ध्यान में रखते हुए निजाम ने 22 मार्च 1768 को अंग्रेजों से सन्धि कर ली। इस परिस्थिति में भी हैदर ने अपना साहस नहीं खोया और अंग्रेजी सेना के विरूद्ध तैयारी करता रहा। उसने नवम्बर 1768 में कावेरीपट्टनम सहित अन्य दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही तंजौर के राजा से 4 लाख रुपए वसूले। मंगलौर को भी अपने कब्जे में ले लिया। मार्च 1769 में हैदर ने बाजी पलट दी उसने मद्रास पर भयंकर आक्रमण कर दिया जिससे आतंकित होकर मद्रास कौंसिल ने 4 अप्रैल 1769 को मद्रास की सन्धि कर ली। इस सन्धि के तहत दोनों पक्षों ने कैदियों की अदला-बदली की तथा एक दूसरे के विजित प्रदेश लौटा दिए। इसके साथ ही एक दूसरे को आरक्षण के लिए सहायता करने का वचन दिया। मद्रास की सन्धि से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा। इस युद्ध ने अंग्रेजों की अजेयता को भी समाप्त कर दिया। इस तरह प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध समाप्त हुआ।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780 से 1784 ई.)
1769 की मद्रास सन्धि मात्र युद्ध विराम का बहाना था। हैदर अली ने अंग्रेजों पर दोष लगाया कि वे अपनी शर्तों का पालन नहीं कर रहे हैं। वहीं 1771 में जब मराठों ने हैदर अली पर आक्रमण किए तो अंग्रेजों ने सन्धि के अनुकूल सहायता नहीं की। वहीं हैदर अली ने देखा कि अंग्रेजों के मुकाबले फ्रांसीसी उसकी ज्यादा सहायता कर रहे थे। सैन्य सामान जैसे- बंदूकें, तोपें, शोरे, गोले-बारूद आदि मालाबार तट स्थित फ्रांसीसी बन्दरगाह माही के द्वारा मैसूर पहुंचता था। परन्तु अंग्रेजों ने माही पर अधिकार कर लिया जो द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध का प्रमुख कारण बना।
शक्तिशाली हैदर अली ने निजाम तथा मराठों से मिलकर ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरूद्ध एक संयुक्त मोर्चा बना लिया। जुलाई 1780 में हैदर अली ने कर्नाटक पर आक्रमण कर कर्नल बेली के अधीन सेना को परास्त कर आर्काट पर अधिकार कर लिया।
इस बीच अंग्रेजों ने निजाम तथा मराठों को हैदर अली से अलग कर लिया। तत्पश्चात गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हैदर अली का सामना करने के लिए वांडीवाश के विजेता जनरल आयरकूट को भेजा। आयरकूट ने हैदरअली को पोर्टोनोवो, पोलिलूर तथा सोलिंगपुर आदि जगहों पर पराजित किया। साल 1782 में हैदरअली ने कर्नल ब्रेथवेट के अधीन आंग्ल सेना को बुरी तरह हराया। ब्रेथवेट को युद्धबन्दी भी बना लिया परन्तु युद्ध क्षेत्र में घायल हो जाने के कारण 7 दिसम्बर 1782 को हैदर अली की मृत्य हो गई।
इसके बाद हैदर अली का योग्य पुत्र टीपू सुल्तान ने इस युद्ध को एक वर्ष तक जारी रखा। आखिरकार अनिर्णायक स्थिति में दोनों पक्षों ने 7 मार्च 1784 को मंगलौर की सन्धि सन्धि कर ली। इस सन्धि के तहत दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के युद्धबंदियों के साथ ही विजित प्रदेश लौटा दिए। इसके साथ ही वारेन हेस्टिंग्स ने मैसूर के मामले में हस्तक्षेप न करने का भी आश्वासन दिया। इस तरह द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध समाप्त हो गया।
टीपू सुल्तान : एक आकर्षक व्यक्तित्व
मैसूर के शक्तिशाली शासक हैदर अली तथा उसकी पत्नी फकरुन्निसां फातिमा के घर बहुत मिन्नतों के बाद 20 नवम्बर 1750 को एक पुत्र रत्न जन्मा और उसे टीपू सुल्तान की संज्ञा दी गई। इस प्रकार सुल्तान उसके नाम का अंग था और राजकुमार तथा अपने शासनकाल में भी वह इसी नाम से जाना जाता था। टीपू सुल्तान का मूल नाम फतेह अली था, जोकि जनसामान्य के बीच शेर-ए-मैसूर अथवा मैसूर का शेर के नाम से भी विख्यात है। हैदर अली के पुत्र टीपू को एक मुसलमान राजकुमार के योग्य पूर्ण शिक्षा मिली लिहाजा वह अरबी, फारसी, कन्नड़ तथा उर्दू में सुगमता से बातचीत कर सकता था।
टीपू सुल्तान एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति था। घुड़सवारी, बंदूक तथा तलवार चलाने में भी वह सिद्धहस्त था। वह पालकी में चढ़ना पसन्द नहीं करता था क्योंकि इसे वह केवल स्त्रियों अथवा रोगियों के लिए ही उपयुक्त मानता था। टीपू सुल्तान में रूढ़िवाद का कण मात्र भी नहीं था और वह हमेशा नवीन प्रयोग करने को उद्यत रहता था। बतौर उदाहरण- नई सिक्का प्रणाली, पंचांग और नई भूमि राजस्व प्रणाली के अतिरिक्त मैसूर रेशम उद्योग के विकास की शुरूआत के साथ मैसूर में चन्नापटना खिलौने टीपू सुल्तान की ही देन है। इसके अतिरिक्त टीपू सुल्तान को लौह-आवरण वाले मैसूरियन रॉकेटों का जन्मदाता माना जाता है। टीपू सुल्तान ने एक नया सैन्य मैनुअल फतुल मुजाहिदीन चालू किया था। वह पाश्चात्य विज्ञान तथा राजनीतिक दर्शन का यथोचित गुणग्राही था।
फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप जब कुछ फ्रांसीसी सैनिकों ने श्रीरंगपट्टनम में ‘जैकोबिन क्लब’ बनाने का प्रस्ताव किया तो टीपू ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया और इस अवसर पर 2300 तोप के गोले तथा 500 हवाई राकेट दागे गए। ऐसा भी कहा जाता है कि टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपट्टनम में ‘स्वतंत्रता वृक्ष’ भी लगाया, स्वयं जैकोबिन क्लब का सदस्य बना और खुद को ‘नागरिक टीपू’ कहलाने लगा।
साम्राज्यवादी लेखकों के द्वारा टीपू सुल्तान को एक ‘सीधा सादा दैत्य’ और ‘धर्मान्ध शासक’ घोषित करने की कोशिश की गई है जो बिल्कुल सत्य नहीं है। यह सत्य है कि उसने हिन्दू कुर्गों तथा नायरों का दमन किया लेकिन जिन मुसलमान मोपलाओं ने उसकी आज्ञा उल्लंघन किया उन्हें भी टीपू ने क्षमा नहीं किया। कुछ वर्ष पूर्व मिले श्रृंगेरी पत्रों से पता चलता है कि साल 1791 में हुए मराठों आक्रमणों के दौरान श्रृंगेरी मंदिर का भाग टूट गया तो श्रृंगेरी के पुरोहित की प्रार्थना पर टीपू सुल्तान ने मंदिर की मरम्मत के लिए तथा मां शारदा देवी की मूर्ति स्थापना के लिए धन दिया था। टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपट्टनम किले में स्थित श्री रंगनाथ नरसिंह अथवा गंगाधारेश्वर के मंदिरों की पूजा में कभी हस्तक्षेप नहीं किया।
निष्कर्षतया टीपू सुल्तान एक आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था। वीर और साहस से परिपूर्ण स्वाभिमानी टीपू ने लार्ड वैलेजली की सहायक सन्धि का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। उसने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की गुलामी स्वीकार करने के स्थान पर मृत्यु का वरण करना ही उचित समझा।
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तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790 से 1792 ई.)
ब्रिटिश साम्राज्यवाद की परम्परा के अनुकूल मंगलौर की सन्धि ने ईस्ट इंडिया कम्पनी और टीपू सुल्तान के बीच एक झूठी शांति कायम की थी। दोनों ही पक्ष इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि उनमें संघर्ष होना सुनिश्चित है। ऐसे में टीपू ने अपनी आंतरिक स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात फ्रांसीसियों को अपने पक्ष में करने का निर्णय लिया। 1787 में उसने अपना राजदूत फ्रांस भेजा जहां से उसे मित्रता और सहायता का आश्वासन मिला। इसके अतिरिक्त उसने तुर्कों से भी सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया तथा 1784 व 1785 में कुस्तुनतुनिया (आधुनिक इस्तांबुल) में अपना राजदूत भेजा। कुस्तुनतुनिया के सुल्तान ने भी उसे मदद का आश्वासन दिया। टीपू ने निजाम पर आक्रमण कर उससे गुंटूर का प्रदेश भी छीन लिया। उसके इन कार्यों से अंग्रेज आतंकित हो उठे।
इन्ही परिस्थितियों में लार्ड कार्नवालिस गर्वनर जनरल बनकर 1786 ई. में भारत आया। यद्यपि 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि कम्पनी कोई भी नया प्रदेश जीतने का प्रयत्न नहीं करेगी बावजूद इसके लार्ड कार्नवालिस ने निजाम तथा मराठों के साथ मिलकर 1790 में टीपू के विरूद्ध त्रिदलीय संगठन तैयार किया। इस सन्धि के अनुसार, निजाम तथा मराठों ने सैनिक टुकड़ियों के साथ अंग्रेजों की सहायता करने का वचन दिया।
टीपू सुल्तान के द्वारा अंग्रेजों के संरक्षित राज्य ट्रावनकोर पर आक्रमण करना युद्ध का तात्कालिक कारण बना। लार्ड कार्नवालिस ने निजामों तथा मराठों को साथ लेकर टीपू सुल्तान के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। कार्नवालिस ने एक बड़ी सेना के साथ जनरल मीडोज को मैसूर पर आक्रमण करने को भेजा परन्तु टीपू सुल्तान ने अंग्रेजी सेना को मार भगाया तथा कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया। मीडोज की पराजय के पश्चात कार्नवालिस ने स्वयं ही युद्ध का संचालन किया। साल 1791 में कार्नवालिस ने क्रमश: बंगलौर, कोयंबटूर को जीत लिया। इसके बाद उसने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टनम पर चढ़ाई की। हांलाकि टीपू सुल्तान ने कड़ा प्रतिरोध किया लेकिन जब उसने देखा कि युद्ध जारी रखना असम्भव है तो मार्च 1792 में श्रीरंगपट्टनम की संधि कर ली।
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श्रीरंगपट्टम की संधि, मार्च 1792 - टीपू सुल्तान को अपने आधे राज्य से हाथ धोना पड़ा।
— कृष्णा नदी से लेकर पेन्नार नदी के आगे तक का विस्तृत क्षेत्र निजाम को दे दिया गया।
— तुंगभद्रा नदी का उत्तरी भाग मराठों को मिला।
—बारामहल, डिंडीगुल, मालाबार तथा कुर्ग तक के विस्तृत प्रदेश अंग्रेजों के हिस्से पड़ा।
— इसके अतिरिक्त युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में टीपू को 30 लाख पौंड से अधिक हर्जाना देना पड़ा। युद्ध क्षतिपूर्ति नहीं देने की स्थिति में टीपू के दोनों पुत्रों अब्दुल खलिक तथा मुईज्जुद्दीन को अंग्रेजों के कब्जे में रहने की शर्त थी।
कुल मिलाकर इस युद्ध में टीपू को बहुत ज्यादा क्षति पहुंची। वह किसी तरह से अपने राज्य को बचा पाया। हांलाकि तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध ने टीपू की शक्ति को बुरी तरह से कुचल दिया था। इस सम्बन्ध में लार्ड कार्नवालिस लिखता है कि “हमने शत्रु को पंगु बना दिया है तथा अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं बनने दिया।”
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.) - आपको याद दिला दें कि 1798 में लार्ड वैलेजली भारत आया जोकि शुद्ध रूप से एक साम्राज्यवादी गर्वनर जनरल था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वैलेजली ने सहायक सन्धि का मार्ग अपनाया। लार्ड वैलेजली ने टीपू सुल्तान पर यह आरोप लगाया कि वह निजाम तथा मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध षड्यंत्र रच रहा है। इसके अतिरिक्त उसने यह भी आरोप लगाया कि अंग्रेजों के विरूद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए टीपू सुल्तान अरब, अफगानिस्तान, कुस्तुनतुनिया तथा फ्रांसीसी अधिकारियों से पत्र व्यवहार कर रहा है। ये सभी बहाने वैलेजली की उद्देश्य पूर्ति के लिए पर्याप्त थे।
आखिरकार वैल्जली ने 22 फरवरी 1799 ई. को टीपू सुल्तान के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 4 मई 1799 को अंग्रेजों ने श्रीरंगपट्टनम दुर्ग पर कब्जा कर लिया। टीपू सुल्तान इस दुर्ग की रक्षा करते हुए मारा गया। टीपू की मृत्यु के बाद मैसूर पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। टीपू के परिजनों को पेन्शन देकर वेल्लूर भेज दिया गया। अंग्रेजों ने वाडियार राजवंश के एक बालक कृष्ण राव को मैसूर की गद्दी पर बैठाया।
आंग्ल-मैसूर सम्बन्ध से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
— हैदर अली के शासन में कुल 18 विभाग थे जिसके अधिकांश मंत्री हिन्दू थे।
— हैदर अली की सेना में 33 हजार घुड़सवार थे।
— हैदरअली ने फ्रांसीसियों की मदद से डिंडीगुल में एक अत्याधुनिक शस्त्रागार की स्थापना की थी।
— हैदर अली ने मैसूर की चामुंडेश्वरी देवी के मंदिर के लिए दान दिया। उसने अपने तांबे तथा सोने के सिक्कों पर शिव, पार्वती तथा विष्णु के चित्र उत्कीर्ण करवाए थे।
— टीपू सुल्तान के दरबार में पूर्णिया तथा कृष्णराव दो प्रमुख हिन्दू मंत्री थे।
— टीपू सुल्तान के द्वारा जारी सिक्कों पर हिन्दू देवी-देवताओं तथा हिन्दू संवत की आकृतियां अंकित थी।
— टीपू ने वर्षों तथा महीनों के नाम में अरबी भाषा का प्रयोग करवाया।
— फ्रांसीसी सेनापति दलातूर हैदर अली के अधीन कार्य करता था।
— साल 1796 में टीपू सुल्तान ने एक नौ सेना बोर्ड का गठन किया तथा मंगलौर, मोलीदाबाद व दाजिदाबाद में डाक यार्ड का निर्माण करवाया।
— टीपू के शासनकाल में कृषकों को ‘तकावी ऋण’ दिए जाते थे। उसके राज्य में जमींदारी व्यवस्था समाप्त कर सीधे कृषकों से सम्पर्क स्थापित किया गया था।
— चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध के पश्चात लार्ड वैल्जली ने घोषणा की कि “पूर्व का साम्राज्य हमारे पैरों में है।”
— साम्राज्यवादी लेखकों ने टीपू सुल्तान को ‘सीधा सादा दैत्य’ तथा ‘धर्मान्ध शासक’ कहा।
सम्भावित प्रश्न—
— हैदर अली के समय में आंग्ल-मैसूर सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
— टीपू सुल्तान के समय में आंग्ल-मैसूर सम्बन्धों का पुनरावलोकन करें।
— मंगलौर तथा श्रीरंगपट्टनम की संन्धि शर्तों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
— चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध का विस्तार से वर्णन कीजिए।
— हैदर अली तथा टीपू सुल्तान पर टिप्पणी लिखिए।