मैसूर के शासक हैदरअली तथा उसकी पत्नी फातिमा बेगम (फख्र-उन-निस्सा) के घर बहुत प्रार्थना के बाद 20 नवम्बर 1750 को एक पुत्र रत्न जन्मा और उसे टीपू सुल्तान (मूल नाम फतेह अली) की संज्ञा दी गई। इस प्रकार सुल्तान उसके नाम का अंग था और राजकुमार तथा शासनकाल में वह इसी नाम से जाना जाता था। टीपू सुल्तान को एक मुसलमान राजकुमार के योग्य पूर्ण शिक्षा मिली और वह अरबी, फारसी, कन्नड़ तथा उर्दू में सुगमता से बातचीत कर सकता था। वह एक ह्ष्ट-पुष्ट व्यक्ति था। ‘शेर-ए-मैसूर’ कहा जाने वाला टीपू सुल्तान घुड़सवारी, बंदूक तथा तलवार चलाने में सिद्धहस्त था।
टीपू सुल्तान पालकी में बैठना पसन्द नहीं करता था क्योंकि इसे वह केवल स्त्रियों अथवा रोगियों के लिए उपयुक्त मानता था। टीपू सुल्तान रूढ़िवादी नहीं था बल्कि वह पाश्चात्य विज्ञान तथा राजनीतिक दर्शन का यथोचित गुणग्राही था। फ्रांसीसी क्रांति के बाद जब कुछ फ्रांसीसी सैनिकों ने श्रीरंगपट्टम में जैकोबिन क्लब बनाने का प्रस्ताव किया तो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया और इस अवसर को मनाने के लिए 2300 तोप के गोले तथा 500 हवाई राकेट चलवाए। ऐसा कहा जाता है कि उसने श्रीरंगपट्टम में ‘स्वतंत्रता का वृक्ष’ लगवाया तथा स्वयं जैकोबिन क्लब का सदस्य बना और स्वयं को ‘नागरिक टीपू’ कहलाने लगा।
टीपू सुल्तान अपने प्रशासनिक नवाचारों के लिए जाना जाता है। उसने एक नई सिक्का प्रणाली और कैलेंडर तथा नई भूमि राजस्व प्रणाली की शुरूआत की। इसके अतिरिक्त उसे मैसूर में लौह-आवरण वाले रॉकेटों का आविष्कारक भी कहा जाता है। मैसूर रेशम उद्योग तथा चन्नापटना खिलौनों के विकास की शुरूआत टीपू सुल्तान की ही देन है।
एक प्रशासक तथा शासक के रूप में टीपू सुल्तान बहुत सफल रहा, इस बात की सराहना उसके विरोधियों ने भी की। लेफ्टिनेन्ट मूर ने उसके विषय में कहा है, “जब एक व्यक्ति एक अनजाने देश से गुजरता हुआ यह देखे कि वहां फसलें उत्तम हैं, देश में जनसंख्या तथा उद्योग बहुत हैं, नए-नए नगर बस रहे हैं, वाणिज्य विकसित हो रहा है और प्रत्येक वस्तु हर्ष तथा सफलता की द्योतक है, तो वह प्राकृतिक रूप से यही कहेगा कि जनता एक कुशल प्रशासक के अधीन है। जिसमें उसे विकसित होने का अवसर मिल रहा है। ऐसा है टीपू के प्रदेश का चित्र।” सर जान शोर लिखता है कि “टीपू के किसान सुरक्षित हैं और उन्हें श्रम के लिए प्रोत्साहन तथा उसका फल भी मिलता है। टीपू को अपने सैनिकों की राजभक्ति तथा विश्वास भी प्राप्त है।”
इन सबके बावजूद साम्राज्यवादी लेखकों ने टीपू सुल्तान को ‘एक सीधा सादा दैत्य’ तथा ‘धर्मान्ध शासक’ साबित करने की कोशिश की जोकि बिल्कुल सत्य नहीं है। हांलाकि टीपू सुल्तान की धर्मपरायणता को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया गया है लेकिन यह भी सत्य है कि उसने हिन्दू कुर्गों तथा नायरों का दमन किया परन्तु जिन मुसलमान मोपलाओं ने उसकी आज्ञा का उल्लंघन किया, उन्हें भी उसने क्षमा नहीं किया।
श्रृंगेरी मंदिर की मम्मत और मां शारदा की मूर्ति स्थापना
1791 में मराठा आक्रमणों से पूरा दक्षिण भारत भयाक्रांत हो चुका था। कुछ वर्ष पूर्व मिले श्रृंगेरी पत्रों से पता चलता है कि मराठा आक्रमणों के दौरान श्रृंगेरी मंदिर का भाग टूट गया था। इतिहासकार एके शास्त्री के अनुसार, मराठा सैनिकों में शामिल पिंडारियों तथा लुटेरों ने न केवल पुजारी ब्राह्मणों का नंरसहार किया बल्कि तकरीबन साठ लाख रुपए के पवित्र अवशेष भी लूट लिए। हांलाकि मराठा पेशवा ने सेनापति परशुराम भाऊ से इसके क्षतिपूर्ति करने तथा लूटी गई वस्तुएं श्रृंगेरी मठ को वापस करने के लिए कहा, जिस पर बाद में सहमति हुई। प्रख्यात इतिहासकार गोविंद सखाराम सरदेसाई की 1946 में बम्बई से प्रकाशित किताब ‘मराठाओं का नया इतिहास’ के मुताबिक, “श्रृंगेरी की लूट जानबूझकर नहीं की गई थी बल्कि यह पिंडारियों की शिकारी आदतों का परिणाम थी।”
श्रृंगेरी पत्रों के मुताबिक, 6 जुलाई 1791 को टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी शारदापीठ के जगदगुरू श्री सचिदानंद भारती को एक पत्र लिखकर मराठा आक्रमण की निन्दा की क्योंकि उन दिनों यह पवित्र पीठ मैसूर के अधिकार क्षेत्र में था। इतिहासकार यशपाल और बी.एल. ग्रोवर के मुताबिक, “श्रृंगेरी के मुख्य पुरोहित के प्रार्थना पर टीपू सुल्तान ने मंदिर की मरम्मत के लिए तथा विद्या की देवी मां शारदा की मूर्ति स्थापना के लिए धन दिया।” जानकारी के लिए बता दें कि श्रृंगेरी मंदिर को आदि शंकराचार्य ने 8वीं सदी में बनवाया था। पहले मंदिर के अंदर विद्या की देवी मां शारदा की चंदन की मूर्ति थी, बाद में यहां सोने की मूर्ति लगाई गई।
श्रृंगेरी में करवाए थे सहस्र चंडी यज्ञ
आपको यह तथ्य जानकर हैरान होगी कि ‘मैसूर का टाइगर’ कहे जाने वाले टीपू सुल्तान ‘राम’ नाम की अंगूठी धारण करता था। दरअसल चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध के दौरान टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद 4 मई 1799 को यह स्वर्ण अंगूठी उसके शरीर से बरामद की गई थी। इसके बाद ब्रिटिश सैन्य जनरल आर्थर वैलेजली की भतीजी एमिली वेलेस्ली को यह स्वर्ण अंगूठी उपहार में दी गई थी। साल 2014 में टीपू सुल्तान की यह अंगूठी 1.4 लाख पाउंड (तकरीबन 1 करोड़ 46 लाख रुपए) से भी अधिक कीमत में नीलाम की गई थी।
टीपू सुल्तान के पास से मिली ‘रामनामी’ स्वर्ण अंगूठी इस बात की द्योतक है कि वह एक धर्मरक्षक शासक था। टीपू न केवल श्रृंगेरी मंदिर बल्कि अन्य कई महत्वपूर्ण मंदिरों को नियमित उपहार (चांदी के बर्तन) आदि भेजता था तथा मंदिर के पुजारियों के प्रति सम्मान प्रकट करता था। इस बात के कई साक्ष्य मौजूद है। मैसूर के कम से कम चार बड़े मंदिरों के सम्बन्ध में यह बात दावे के साथ कही जा सकती हैं जिनमें मेलुकोट का नरसिम्हा मंदिर तथा नारायणस्वामी मंदिर, श्रीरंगपट्टम का रंगनाथ मंदिर, कलाले का लक्ष्मीकांत मंदिर व नंजनगुड का श्रीकंतेश्वारा मंदिर मुख्य रूप से शामिल है।
टीपू सुल्तान के द्वारा श्रृंगेरी मठ को लिख गए तकरीबन 30 पत्रों से उसके धर्मपरायण होने का साक्ष्य मिलता है। इसी क्रम में वह अपने एक पत्र में श्रृंगेरी मठ के प्रमुख से यह निवेदन करता है कि हैदराबाद के निजाम, अंग्रेज और मराठों के विरूद्ध मैसूर राज्य की विजय के लिए शत चंडी और सहस्त्र चंडी यज्ञ करें। इतना ही नहीं, इस धार्मिक अनुष्ठान के लिए आवश्यक सामग्री का इंतजाम भी मैसूर राज्य की तरफ से किया गया। जब यह धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण हुआ तब ब्राह्मणों को उपहार दी गए थे तथा कई दिनों तक चले इस यज्ञ में एक हजार से अधिक ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन भी करवाया गया था।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि टीपू सुल्तान ने मैसूर की जनता के बीच एक उदार छवि बनाई थी। साल 1793 में श्रृंगेरी मठ के स्वामी को एक पत्र में टीपू सुल्तान लिखता है कि “आप विश्व गुरू हैं। आपने विश्व के सुख तथा भलाई के लिए अनेक कष्ट उठाए हैं। कृपया ईश्वर से हमारी समृद्धि की कामना करें। जिस किसी भी देश में आप जैसी पवित्र आत्माएं निवास करेंगी, अच्छी बारिश और फसल से देश की समृद्धि होगी।”
इसे भी पढ़ें : ताजमहल से गायब हो चुकी हैं नायाब और बहुमूल्य चीजें, आखिर किसने और क्या लूटा?
इसे भी पढ़ें : काशी विश्वनाथ मंदिर का आखिर कितनी बार हुआ पुनर्निर्माण? पढ़ें रोचक इतिहास