दुनिया के सात अजूबों में शामिल आगरा का ताजमहल मुगल बादशाह शाहजहां की प्रिय पत्नी मुमताज महल का मकबरा है। हांलाकि दुनियाभर के प्रेमी ताजमहल को मोहब्बत की निशानी के तौर पर पेश करते हैं। ताजमहल का निर्माण आगरा में यमुना नदी के दाहिने किनारे पर साल 1631 में शुरू हुआ और तकरीबन 22 वर्ष बाद 1653 में बनकर तैयार हुआ। उन दिनों ताजमहल को बनाने में तकरीबन 32 करोड़ रुपए की लागत आई थी। केवल मकबरा और गुम्बद बनाने में ही 15 साल लग गए थे जबकि मस्जिद और दरवाजे बनाने में 5 साल लगे थे।
दुनिया के मशहूर आर्किटेक्ट
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि दुनिया की इस नायाब इमारत को बनाने में 20 हजार मजदूर काम पर लगे थे, इनमें से अधिकतर मजदूर कन्नौज के हिंदू थे। जबकि दक्कन से पच्चीकारी के कारीगर, बलूचिस्तान से पत्थर तराशने एवं काटने वाले कारीगर, सीरिया एवं ईरान से सुलेख लिखने वाले तथा बुखारा से शिल्पकारों को बुलवाया गया था। वहीं बढ़ई, पत्थर तराशने तथा चित्रकारी के लिए मुगलिया हुकूमत के दक्ष कारीगरों को भी लगाया गया था। ताजमहल के निर्माण के दौरान यातायात तथा संसाधन जुटाने के लिए 1,000 से अधिक हाथियों को इस्तेमाल में लाया गया था। इन सभी हाथियों के प्रतिदिन के खर्च और प्रबंधन का जिम्मा ईरान निवासी मीर अब्दुल करीम एवं मुर्करम्मत खां के पास था।
ताजमहल महल के मुख्य वास्तुकार का नाम उस्ताद अहमद लाहौरी था। ताजमहल के मुख्य गुम्बद डिजाइन करने वाले वास्तुकार का नाम इस्माइल खाँ था। जबकि फारस के उस्ताद ईसा मुहम्मद को पर्यवेक्षक वास्तुकार नियुक्त किया गया था। वहीं लाहौर निवासी काजिम खान ने स्वर्ण कलश तैयार किया था। पच्चीकारी के लिए दिल्ली निवासी चिरंजी लाल को लगाया गया था। ईरान निवासी अमानत खां मुख्य सुलेखनकर्ता था। ताजमहल बनाने वाले राजमिस्त्रियों के पर्यवेक्षक का नाम मुहम्मद हनीफ था।
ताजमहल में जड़े गए थे 42 तरह के बेशकीमती पत्थर
इतिहासकार आर. नाथ की 1970 में प्रकाशित किताब के अनुसार, ताजमहल में 42 तरह के बेशकीमती पत्थर लगाए गए थे। जबकि बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक, इस इमारत में 40 अलग-अलग तरह के रत्न जड़े गए थे। डायना और माइकल प्रेस्टन लिखते हैं कि हरे रंग के पत्थर जेड को सिल्क रूट काशगर, चीन से लाया गया था। नीले रंग के पत्थर लैपीज लजूली को अफगानिस्तान की खानों से मंगवाया गया था। तिब्बत से फिरोजा लाए गए थे जबकि मूंगा को अरब और लाल सागर से मंगवाया गया था। पीले अम्बर को वर्मा से तथा मणिक को श्रीलंका से लाया गया था। वहीं लहसुनिया पत्थर को मिस्र में नील घाटी से मंगवाया गया था। नीलम को अशुभ माना जाता था इसलिए इनका इस्तेमाल नहीं के बराबर किया गया था। बगदाद से अकीक, अरबिया से इंद्रगोप, बड़कसान से रूबी, ग्वालियर से अबरी, पंजाब से जैस्पर, गंगा से गारनेट, सीप आदि मंगवाए गए थे। वहीं बेशकीमती जवाहररात , पन्ना तथा पुखराज कहां से मंगवाए गए थे, इस बारे में जानकारी नहीं मिल पाती है।
बता दें कि ताजमहल की खूबसूरती को चार चांद लगाने के लिए जिन रंगीन बहुमूल्य पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था, वे ऐसे पत्थर हैं जिनकी चमक और आभा कभी मन्द नहीं पड़ती है। पराभासी श्वेत संगमरमर राजस्थान के मकराना से लाया गया था। ताजमहल में जड़े गए उपरोक्त पत्थरों तथा रत्नों की वजह से ही यह इमारत सुबह, दोपहर और शाम अपना रंग बदलती है। बादलों की रंगत बदलते ही ताजमहल की खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं।
1857 में ताजमहल की दीवारों से खोदे गए थे बेशकीमत पत्थर
1857 की महाक्रांति के दौरान जिस प्रकार से समस्त उत्तरी भारत में विद्रोह की चिंगारी फैली हुई थी, उसका खामियाजा ताजमहल को भी भुगतना पड़ा। इस दौरान ब्रिटिश अधिकारियों तथा अंग्रेज सैनिकों ने ताजमहल की दीवारों में जड़े बहुमूल्य पत्थरों, रत्नों तथा लैपिज़ लजू़ली आदि को खोदकर निकाल लिया।
डी. दयालन की किताब 'ताजमहल एंड इट्स कंजर्वेशन' के मुताबिक, उत्तर-पश्चिमी प्रांत के इंस्पेक्टर जनरल डॉ. जॉन मरे ने साल 1864 में एक रिपोर्ट पेश की थी जिसके मुताबिक, 1857-58 के विद्रोह में ताजमहल को भारी नुकसान पहुंचा। मकबरे की दीवारों, शाहजहां तथा मुमताज महल की कब्रों तथा उसके चारों तरफ संगमरमर की बनी जाली पर की गई पच्चीकारी में लगे बेशकीमती पत्थरों को निकाल लिया गया। इस घटना के बाद साल 1872-74 में आगरा के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर जे. डब्ल्यू एलेक्जेंडर ने ताजमहल के संरक्षण के लिए काम कराने का प्रस्ताव तैयार कराया था जिसमें ताजमहल में टूटे हुए संगमरमर, खराब हो रही पच्चीकारी का काम सुधारना तथा मुख्य गुम्बद के कलश का काम शामिल था।
जाट सैनिकों के क्रोध का शिकार बना ताजमहल
बदन सिंह के पुत्र सूरजमल को ‘जाटों का प्लेटो’ अथवा ‘जाटों का अफलातून’ के नाम से जाना जाता है। मुगलों से प्रतिशोध लेने के लिए सूरजमल ने 12 जून 1761 ई. को आगरा पर अधिकार कर उसे खूब लूटा। आगरा के किले पर कब्जा करने के बाद सूरजमल ने मुगल तोपों, हथियारों तथा खजाने पर अधिकार कर लिया। जाट सैनिक तो ताजमहल को जला देना चाहते थे लेकिन सूरजमल ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
सूरजमल ने कहा कि इस निर्जीव इमारत का क्या दोष है। बावजूद इसके जाट सैनिकों ने ताजमहल को अस्तबल बना दिया और उसमें भूंसा रखवा दिया था। सूरजमल के बाद भी आगरा के किले पर 1774 ई. तक जाट शासकों का अधिकार रहा। भरतपुर के जाटों ने 1907 ई. में ताजमहल को लूटा था, इस दौरान वे ताजमहल में लगे चांदी के मुख्य द्वार को उखाड़ ले गए। ताजमहल के इस मुख्य द्वार में सोने-चांदी के सिक्के जड़े हुए थे।
जनरल लेक और विलियम बेंटिक ने भी ताजमहल को लूटा
मुगलिया शानो-शौकत का प्रतीक ताजमहल भी ब्रिटिश हुकूमत का शिकार बना। 1803 ई. में जब आगरा पर जनरल लेक ने अधिकार कर लिया, इसके बाद ताजमहल में जड़े बेशकीमती और नायाब पत्थर धीरे-धीरे गायब होने लगे। ताजमहल की कालीन बेच दी गई। मुगल पेंटिंग्स लन्दन भेज दी गई। यहां तक कि अंग्रेजों ने ताजमहल को किराए पर दे दिया। वहां पार्टियां होने लगी और इस नायाब इमारत के आस पास लॉज बनाकर हनीमून के लिए दिए जाने लगे।
बंगाल के गर्वनर लार्ड विलियम बेंटिक के शासनकाल में वर्मा युद्ध के कारण ईस्ट इंडिया कम्पनी काफी कर्जे में आ गई थी, इसकी भरपाई के लिए इंग्लैण्ड से कंपनी खर्चे में कटौती करने का फरमान आया लिहाजा बेंटिंक ने 1830 में आगरे का दौरा किया। बेंटिक ने आगरा किले के शाही हमाम में लगे संगमरमर को बेच दिया। इसके बाद भी बेंटिक का मन नहीं भरा तो उसने ताजमहल में लगे मैटेरियल को बेचकर खजाना भरने का निर्णय लिया।
कर्नल स्लीमैन अपनी आत्मकथा में लिखता है कि “यदि आगरा का संगमरमर बिक जाता तो शायद ताजमहल को भी गिराकर उसे बेच दिया जाता।” बेरेसफोर्ड के दस्तावेजों के मुताबिक आगरा के संगमरमर बेचकर महज पांच सौ पाउंड हासिल हुए थे, हांलाकि इसी दस्तावेज में ताजमहल को बेचने के प्रस्ताव की जानकारी मिलती है।
ताजमहल की नीलामी
एक वेल्श यात्री फैनी पार्क्स ने 1850 में लिखी अपनी किताब में इस बात का उल्लेख किया है कि “ताजमहल को बेचने की तैयारी हो चुकी है, लेकिन इसकी सही कीमत नहीं मिल रही है। हांलाकि दो लाख तक का प्रस्ताव मिल चुका है लेकिन अंग्रेजों को यह डर भी है कि ताजमहल को गिराने से दंगे भड़क सकते हैं।”
फैनी यह भी लिखता है कि ताजमहल को एक हिन्दू खरीदना चाहता है और उसके मैटेरियल से वह वृंदावन में एक भव्य मंदिर बनाना चाहता है। जी हां, उस अमीर शख्स का नाम सेठ लक्ष्मीचंद था जो जयपुर निवासी था। लन्दन के अखबार ‘द टाइम्स’ ने लक्ष्मीचंद को ‘भारत का रोथ्सचाइल्ड’ कहा था। सेठ लक्ष्मीचंद ने पहली बार 2 लाख रुपए की बोली लगाई थी जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद उसने दूसरी बार 7 लाख रुपए की बोली लगाई लेकिन यह बात आम जनता में फैल चुकी थी। इंटिलेंस ने खबर दी कि यदि ताजमहल को बेचा गया तो दंगे भड़क सकते हैं इसलिए विलियम बेंटिक ने ताजमहल को बेचने की योजना रद्द कर दी। इस साक्ष्य की पुष्टि सेठ लक्ष्मीचंद के वंशज विजय कुमार जैन ने भी की है। यहां तक कि एएसआई द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक हलफनामें में भी ताजमहल के ध्वंस और बिक्री का जिक्र किया गया है।
ताजमहल से चोरी की गई नायाब चीजें
ताजमहल के बेशकीमती पत्थरों, बेहद महंगी कालीनें व दुर्लभ पेंटिंग्स के अलावा जैस्पर से निर्मित प्रवेश द्वार, ताजमहल में लगी स्वर्ण पत्तियां जो कब्रों के चारों ओर लगी लोहे की जाली के जोड़ों को ढकती थीं। विभिन्न रत्नजड़ित ढालें जो मकबरे के आंतरिक भाग को सुरक्षित रखती थीं तथा इनामेल लाइट्स जो मकबरे के आंतरिक भाग को रौशन करती थीं। ये सभी चीजें ताजमहल से गायब हो चुकी हैं। जाहिर है चोरी हुए इन बेशकीमती पत्थरों तथा नायाब मैटिरियल्स को कभी वापस नहीं लाया जा सकता।
गौरतलब है कि ताजमहल में लगे बेशकीमती पत्थरों के गायब होने के बाद स्मारक की खाली जगहों को भरने के लिए एएसआई साल 2015 से 2021 के बीच तकरीबन 2 करोड़ रुपए खर्च कर चुका है। जबकि इन्हीं वर्षों में ताजमहल के अन्य कार्यों पर तकरीबन 23 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। हांलाकि ताजमहल से गायब हो चुके नायाब और बेशकीमती पत्थर कहां गए, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
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