
चीता अपनी अदभुत फूर्ती और रफ्तार के लिए पहचाना जाता है। चीते की रफ्तार 120 किमी. प्रति घंटे होती है, यह जानवर महज तीन सेकेंड में अपनी रफ्तार में 103 किमी. प्रति घंटे का इज़ाफ़ा कर लेता है, जो एक सुपरकार की स्पीड से भी तेज़ है। चीते इंसानों के प्रति ज्यादा आक्रामक नहीं होते हैं, इसीलिए राजे-रजवाड़ों के वक्त चीतों को जंगलों से पकड़कर महलों अथवा किलों में लाया जाने लगा।
इन पालतू चीतों को विशेषकर काले हिरण एवं चिंकारा के शिकार की ट्रेनिंग दी जाती थी। मध्यकालीन इतिहास के कुछ प्रमाणिक अभिलेखों के मुताबिक, मुगल बादशाह अकबर ने अपने शासनकाल में तकरीबन 9000 से 10000 चीते पाल रखे थे। हांलाकि इसके बाद से चीतों की संख्या धीरे-धीरे कम होने लगी और ब्रिटिश भारत में इनकी संख्या उंगलियों पर रह गई।
इतना ही नहीं, साल 1947 में जब देश आजाद हुआ तब चीतों की संख्या शून्य हो गई। इसके बाद 1952 ई. में भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से चीतों के विलुप्त होने की घोषणा की। भारत में चीतों की विलुप्त प्रजाति को पुनर्जीवित करने के लिए ‘प्रोजेक्ट चीता’ की शुरूआत की गई। इस सराहनीय प्रयास के तहत देश में अभी कुल 31 चीते हैं, जिनमें से 19 चीते भारत में पैदा हुए हैं।
आज की तारीख में चीते की प्रजाति बढ़ाने के लिए भारत सरकार पुरजोर प्रयास कर रही है, परन्तु कभी ऐसा भी समय था जब हमारे देश के राजे-राजवाड़े अपने किले अथवा महलों में कुत्तों की तरह चीते पालते थे। इस रोचक स्टोरी में हम आपको राजस्थान की उन दो रियासतों के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां के राजाओं को चीते पालने का शौक था।
1. जयपुर रियासत
राजपूताना रियासत जयपुर के राजघराने को मुगलकाल से ही चीते पालने का शौक था। रॉयल फैमिली के सदस्य पालतू चीतों को अपने साथ शिकार पर ले जाया करते थे। दिव्य भानु सिंह अपनी किताब 'लायंस, चीताज एंड अदर्स इन द मुगल लैंडस्केप' में लिखते हैं कि “मुगल बादशाह अकबर आमेर आगमन के दौरान सांगानेर के जंगलों में शिकार करने के लिए एक चीते को भी अपने साथ गया था। उस चीते ने बड़ी फूर्ती के साथ शिकार किया तब अकबर इतना प्रसन्न हो गया कि उसने चीते के गले में बेशकीमती आभूषण पहना दिया।”
मध्यकालीन इतिहास के कुछ प्रमाणिक अभिलेखों के मुताबिक, मुगल बादशाह अकबर ने अपने शासनकाल में तकरीबन 9000 से 10000 चीते पाल रखे थे। इस दौर को भारत में ‘चीतों का स्वर्णकाल’ कहा जाता है।
जयपुर का मोहल्ला चीतेवालान - आजादी से पहले साल 1940 तक पुराने जयपुर में चीतों को बड़ी आसानी से देखा जा सकता था। चीतों को पालने के लिए जयपुर रियासत की तरफ ट्रेनरों को रखा गया था। चीतों के ट्रेनरों को जयपुर के महाराजा प्रति महीने 100 रुपए देते थे।
जयपुर के रामगंज बाजार के नजदीक ‘मोहल्ला चीतावालान’ के निवासी शिकारी परिवार के वंशज हैं। इन परिवारों को जयपुर राजघराने ने बसाया था। जयपुर के मोहल्ला चीतावालान में चीतों को पालतू कुत्तों की तरह पाला जाता था, चीतों के गले में पट्टे बांधकर उन्हें घर के बाहर बने बाड़ों में रखा जाता था।
चीते पालने की वजह से ही जयपुर के इस मोहल्ले का नाम ‘चीतावालान’ पड़ गया। आज की तारीख में चीते पालने वाले शिकारियों के वंशजों के आधार कार्ड, राशन कार्ड से लेकर अन्य सरकारी दस्तावेजों पर ‘चीतावालान’ उपनाम का ही उल्लेख मिलता है।
चीतावान की गली, अलवर - जयपुर के महाराजा जयसिंह के शासनकाल में अलवर की ‘चीतावान नामक गली’ चीतों का ट्रेनिंग सेन्टर हुआ करती थी। पीलखाना मोहल्ले के पीछे मौजूद चीतावान की गली में चीतों की ट्रेनिंग देने वाले ट्रेनरों के मकान हुआ करते थे।
राजस्थान की उपमुख्यमंत्री और जयपुर राजपरिवार की राजकुमारी दीया कुमारी का कहना है कि “राजपरिवार की तरफ से अफ्रीका और ईरान से चीते मंगवाए गए थे, तथा चीतों को पालने के लिए वहीं से शिकार परिवार भी जयपुर लाकर बसाए गए।” जयपुर राजपरिवार से जुड़े होटलों में आज भी कुछ ऐसी तस्वीरें लगी हुई हैं, जिसमें चीतों के साथ शिकारी दिखाई दे रहे हैं।
2. भरतपुर रियासत
‘राजस्थान का पूर्वी द्वार’ कही जाने वाली भरतपुर रियासत का राजपरिवार भी चीते पालने का शौक रखता था। आजादी के पूर्व साल 1945 तक भरतपुर राजपरिवार के निवास स्थल ‘मोती महल’ के गेट पर हमेशा चीता बंधा रहता था।
ऐसा उल्लेख मिलता है कि भरतपुर के राजा किशन सिंह जब भी शिकार पर जाते थे, उनके साथ एक चीता अवश्य हुआ करता था। यहां तक कि दशहरे के अवसर पर निकलने वाली महाराजा की सवारी में भी प्रशिक्षित ट्रेनरों के साथ चीते शामिल किए जाते थे।
चीते वाली गली, भरतपुर शहर – भरतपुर के महाराजा किशन सिंह अफगानिस्तान के काबुल शहर से कादिर दाद खान को भरतपुर लेकर आए थे। कादिर दाद खान को चीतों को ट्रेंड करने में दक्षता हासिल थी। कादिर दाद खान के बाद उनके पुत्र नवी दाद खान और पौत्र गुलाम हुसैन ने चीते पालने की परम्परा को आगे बढ़ाया।
कादिर दाद खान का परिवार आज भी भरतपुर शहर के चौबुर्जा बाजार में गंगा मंदिर के पास ‘चीते वाले गली’ में रहता है। इस गली का नाम सरकारी रिकॉर्ड में भी ‘चीते वाले गली’ के नाम से ही दर्ज है। गली के प्रवेशद्वार पर जो नेमप्लेट लगा है, उस पर भी चीतेवाली गली ही लिखा गया है। चीते वाली गली में चीते पालने वाले शिकारी परिवार के पास रियासत कालीन फोटो भी है, जिसमें उनके पूर्वज चीतों के साथ आसानी से देखे जा सकते हैं।
चीते वाली गली में रहने वाले सुल्तान खान का कहना है कि उनके पिता गुलाम हुसैन दक्ष शिकारी थे, उनके घरों में चीते ऐसे घूमते थे जैसे आजकल कुत्ते और बिल्ली पाले जाते हैं। सुल्तान खान यह कहना नहीं भूलते हैं कि भरतपुर के राजा किशन सिंह शिकार पर जब भी जाते थे, उनके पिता गुलाम हुसैन को अवश्य साथ ले जाते थे।
‘चीते वाले गली’ में रहने वाले कल्लन खां कहते हैं कि उनके दादा नवी दाद खान चीते के गले में पट्टे बांधकर ही बाहर निकलते थे। कल्लन खां बताते हैं कि “मोती महल में जब कोई विशेष अतिथि आता था तो चीते दिखाने के लिए उनके दादा नवी दाद खान के पास बुलावा जरूर आता था।”
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