
इस्लामी परम्परा से इतर मुगल बादशाहों में प्रतिदिन भोर के समय जनता के समक्ष प्रस्तुत होने की प्रथा थी। यह पम्परा जनता के साथ आमने-सामने बातचीत करने का एक सीधा तरीका था। इस मुगल परम्परा को हम सभी ‘झरोखा दर्शन’ के नाम से जानते हैं।
वहीं दूसरी तरफ मुगल बादशाहों में नवरोज (ईरानी त्यौहार) के अवसर पर ‘तुलादान’ की पम्परा थी जिसमें बादशाह खुद को सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात अथवा अन्य कीमती धातुओं से तौलते थे। इसके बाद इस अकूत धनराशि को गरीब जनता में बांट दिया जाता था। किन्तु झरोखा दर्शन और तुलादान को औरंगजेब ने बैन कर दिया।
जी हां, आपको जानकारी के लिए बता दें कि झरोखा दर्शन और तुलादान की परम्परा हुमायूं के पुत्र अकबर ने हिन्दू राजाओं से सीखी थी। दरअसल झरोखा दर्शन और तुलादान की परम्परा सनातन धर्म में प्राचीन काल से ही प्रचलित थी। आगे की महत्वपूर्ण जानकारी के लिए यह रोचक स्टोरी अवश्य पढ़ें।
मुगल बादशाहों में ‘झरोखा दर्शन’ की परम्परा
इस्लामी फरमानों के विपरीत मुगल बादशाह हुमायूं ने जनता की शिकायतें सुनने तथा उनसे सीधा संवाद स्थापित करने के लिए ‘झरोखा दर्शन’ की शुरूआत की। झरोखा दर्शन की दैनिक परम्परा को हुमायूं के पुत्र बादशाह अकबर ने भी जारी रखा। अकबर प्रतिदिन तकरीबन एक घंटे तक झरोखा दर्शन देता था, इसके बाद वह दो घंटे के लिए मुगल दरबार ‘दीवान-ए-आम’ में उपस्थित होता था।
अकबर का दरबारी इतिहासकार अबुल फजल लिखता है कि “झरोखा दर्शन इसलिए शुरू किया गया ताकि जनता बिना किसी व्यवधान के बादशाह से सीधे बातचीत कर सके और उनके दर्शन कर सके।” वहीं अकबर का कट्टर आलोचक एवं दरबारी इतिहासकार अब्दुल कादिर बदायूंनी लिखता है कि, “कुछ ऐसे भी ब्राह्मण थे जो अपने हिन्दुओं राजाओं की झलक अकबर में देखते थे। अकबर के समय कुछ लोग ऐसे भी थे बादशाह का दर्शन किए बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे।”
बदायूंनी लिखता है कि “बीरबल ने अकबर को सूर्य पूजा के लिए प्रोत्साहित किया था।” कुछ विद्वानों के अनुसार, चूंकि अकबर प्रतिदिन आगरा किले के बुर्ज से सूर्य पूजा करता था, इस दौरान यमुना स्नान करने वाले हिन्दू लोगों ने उसे देखते ही प्रणाम करना शुरू किया, इसके बाद से वह ‘झरोखा दर्शन’ के लिए प्रेरित हुआ। यह वही दौर था जब अकबर ने सुलह-ए-कुल सिद्धान्त पर आधारित ‘दीन-ए-इलाही’ धर्म की स्थापना की थी।
बादशाह अकबर के बाद जहांगीर तथा उसकी पादशाह बेगम नूरजहां आगरा किले के शाहबुर्ज से झरोखा दर्शन देते थे। मुगल बादशाह शाहजहां तो अस्वस्थ्य होने के बावजूद भी सूर्योदय के कुछ मिनट पश्चात जनता के अभिवादन के लिए कभी-कभी झरोखा दर्शन देता था। किन्तु औरंगजेब ने मुगल गद्दी पर बैठने के 11वें वर्ष इस प्रथा को बन्द कर दिया। दरअसल औरंगजेब झरोखा दर्शन को एक गैर-इस्लामी प्रथा एवं मूर्ति पूजा का एक रूप मानता था। जब सिक्खों के दसवें गुरू गोविन्द सिंह ने भी ‘झरोखा दर्शन’ देना शुरू किया, तब औरंगजेब ने सरहिन्द के फौजदार वजीर खान को फरमान भेजवाया कि उन्हें ऐसा करने से तत्काल रोका जाए।
निष्कर्षत: हुमायूं से लेकर शाहजहां तक, ये सभी मुगल बादशाह प्रतिदिन अलसुबह आगरा किले में यमुना नदी की तरफ बने झरोखे में अकेले खड़े होकर जनता को दर्शन देते थे, तथा जरूरत पड़ने पर संवाद भी स्थापित करते थे। राजधानी से बाहर यात्राओं के दौरान मुगल बादशाह लकड़ी के बने अस्थाई महल से झरोखा दर्शन देते थे, जिसे ‘आशियाना मंजिल’ कहा जाता था।
हिन्दू परम्परा है झरोखा दर्शन
भारत के हिन्दू राजा अपने किलों तथा महलों की बालकनी में खड़े होकर प्रतिदिन जनता को सम्बोधित करते थे। झरोखा दर्शन को सनातनी भाषा में कुछ इस तरह समझिए— “महलों में बनी बालकनी को झरोखा कहा गया तथा दर्शन शब्द से तात्पर्य है - देखना, चाहे वो संत दर्शन हो अथवा ईश्वर प्रतीक मूर्ति दर्शन।” यूं कहिए मंदिर के गर्भगृह में मौजूद देवता को निहारने की हिन्दू प्रथा का अनुसरण ही मुगल काल में ‘झरोखा दर्शन’ बन गया।
हिन्दू परम्परा में एक बड़ी चर्चित पंक्ति है- “राम झरोखे बैठ के सब का मुजरा लेत। जैसी जाकी चाकरी वैसा वाको देत।।” इसका हिन्दी अर्थ है- भगवान श्री राम ऊपर बैठे-बैठे ही झरोखे से सब कुछ देखते रहते हैं और जिसका जैसा कर्म होता है उसे वैसा ही फल देते रहते हैं।
एक अन्य उदाहरण यह भी है कि दक्षिण में रामेश्वरम के पास पंबन द्वीप पर सबसे ऊंची चोटी का नाम गन्धमादन है, इस पहाड़ी पर भगवान श्रीराम के चरण चिह्न बने हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि यहीं से खड़े होकर श्रीराम ने समुद्र का अवलोकन किया था, इसलिए इस जगह को ‘रामझरोखा’ कहा जाता है।
अकबर ने शुरू की तुलादान की परम्परा
मुगलकाल में तुलादान की परम्परा बादशाह अकबर ने शुरू की। प्राय: मुगल शासन के दौरान मनाए जाने वाले नववर्ष के त्यौहार नवरोज के अवसर मुगल बादशाह खुद को सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात अथवा अन्य कीमती धातुओं से तौलते थे। तत्पश्चात इस अकूत धनराशि को गरीबों में बांट दिया जाता था।
मुगल इतिहासकार अबुल फजल लिखता है कि “बादशाह अकबर को साल में दो बार सोने-चांदी जैसे मूल्यवान धातुओं से तौला जाता था।” तुलादान की परम्परा को जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी जारी रखा किन्तु औरंगजेब आलमगीर ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया।
हिन्दू परम्परा है तुला दान
सबसे प्राचीन वेदों में से एक ‘अर्थववेद’ में हिन्दू प्रथा तुलादान को ‘तुला-पुरुष-विधि’, मत्स्य पुराण में ‘तुला-पुरुष-दान’ तथा लिंग पुराण में ‘तुलाभर’ नाम से उल्लेखित किया गया है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में तुलादान को सोलह महान दानों में से एक बताया गया है।
चूंकि माघ महीने में सूर्य उत्तरायण रहता है, जिसे प्रकाश और सकारात्मक ऊर्जा का सबसे उचित समय माना जाता है। इसीलिए हिन्दू धर्मग्रन्थों में तुलादान के लिए माघ महीने को श्रेष्ठ बताया गया है। माघ महीने में तुला दान करने से व्यक्ति को यज्ञ, तपस्या, और तीर्थ यात्रा के समान फल प्राप्त होता है तथा उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है। तुलादान की यह प्राचीन परम्परा देश के कई हिस्सों में आज भी प्रचलित है।
तुलादान के तहत अमुक व्यक्ति को सोना, चांदी, अनाज, फल या अन्य वस्तुओं से तौला जाता है और उन वस्तुओं को दान कर दिया जाता है। वैसे तो हिन्दू धर्मग्रन्थों में तुलादान के अनेकों उदाहरण हैं किन्तु भागवत पुराण में कृष्ण और उनकी पत्नियों-रुक्मिणी और सत्यभामा आदि के द्वारा तुलादान की कथा बेहद चर्चित है। तुलादान की परम्परा इस बात की तरफ संकेत करती है कि कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में जितना प्राप्त करता है, उससे अधिक समाज को लौटाए।
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