
दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने जब अपनी योग्य पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी चुना तो कुछ अमीरों ने रजिया के स्त्री होने के नाते उसका विरोध किया लेकिन इल्तुतमिश ने उनको यह कहकर शान्त कर दिया कि “मेरी मृत्यु के पश्चात यह पता लग जाएगा कि मेरी पुत्री के अतिरिक्त मेरे पुत्रों में से कोई भी शासक बनने के योग्य नहीं है।”
दिल्ली में शुक्रवार की नमाज के वक्त रजिया लाल वस्त्र पहनकर पहली बार जनता के सम्मुख गयी। उसने दिल्ली की जनता को इल्तुतमिश की इच्छा याद कराया तथा अपनी क्रूर मां शाह तुर्कान के विरुद्ध सहायता मांगी और सम्भवत: यह वायदा भी किया कि यदि शासक बनने का अवसर मिलने पर वह अयोग्य साबित हुई तो उसका सिर काट लिया जाए। इस प्रकार दिल्ली की जनता ने उत्साहित होकर रजिया का साथ दिया। ऐसी स्थिति में रजिया ने सबसे पहले शाह तुर्कान को कारगार में डाल दिया और रूकनुद्दीन फिरोज को कैदकर कत्ल करा दिया। आखिरकार रूकनुद्दीन फिरोज के सात माह शासन करने के पश्चात रजिया ने दिल्ली का सिंहासन प्राप्त कर लिया।
रजिया सुल्तान मध्य युग की एक अद्वितीय स्त्री थी। व्यक्तिगत दृष्टि से रजिया ने पहली बार स्त्री के सम्बन्ध में इस्लाम की परम्पराओं का उल्लंघन किया और राजनीतिक दृष्टि से उसने राज्य की शक्ति को सरदारों अथवा सूबेदारों में विभाजित करने के स्थान पर सुल्तान के हाथों में केन्द्रित करने पर बल दिया। रजिया सुल्तान योग्य पिता की योग्य पुत्री थी।
सुल्तान की शक्ति और सम्मान में वृद्धि के लिए रजिया ने सबसे पहले अपने व्यवहार में परिवर्तन किया। उसने पर्दा त्याग दिया। रजिया सुल्तान सैनिकों की तरह ही कोट (कुबा) व पगड़ी (कुलाह) पहनकर अपने दरबार में बैठती थीं। इतना ही नहीं रजिया सुल्तान ने शिकार और घुड़सवारी करना शुरू किया और जनता के सम्मुख खुले-मुंह जाने लगी।
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रजिया के व्यवहार से प्रतिक्रियावादी मुसलमान वर्ग अवश्य असन्तुष्ट हुआ होगा लेकिन यह उसके विरुद्ध असन्तोष का मुख्य कारण नहीं था। रजिया का यह व्यवहार इस बात का प्रमाण था कि वह सुल्तान की दृष्टि से मर्दों की तरह कार्य करना चाहती थी और उसका स्त्री होना उसके शासन की दुर्बलता नहीं बन सकता था।
जहां तक किसी स्त्री के शासक होने का प्रश्न है, वह भारत में इस्लाम के समर्थकों के लिए एक नई बात अवश्य थी लेकिन इस्लाम के इतिहास के लिए नहीं। मिस्र, ईरान और ख्वारिज्म के साम्राज्यों में स्त्रियों ने शासन सत्ता का उपभोग किया था और कर रही थीं। जहां तक रजिया के व्यक्तिगत गुणों की बात है, सभी इतिहासकारों ने उसकी प्रशंसा की है।
इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार, “रजिया सुल्तान ने 3 वर्ष 6 माह तथा 6 दिन राज्य किया। उसमें वे सभी श्रेष्ठ गुण थे जो एक सुल्तान में होने चाहिए।” विद्रोही इक्तेदारों को पराजित करने के पश्चात रजिया ने अपने शासन को कौशल और एवं शक्ति से दृढ़ किया और सफल हुई। रजिया का प्रमुख लक्ष्य शासन से तुर्की गुलाम सरदारों के प्रभाव को समाप्त कर उन्हें सिंहासन के अधीन बनाना था।
इसके लिए रजिया ने विभिन्न पदों और सूबों में नवीन अधिकारियों की नियुक्ति की। रजिया ने मलिक कुतुबुद्दीन हसन गोरी को ‘नायब-ए-लश्कर’ तथा मलिक कबीर खां ऐयाज को लाहौर का इक्ता दिया। इसके अतिरिक्त मलिक-ए कबीर इख्तियारूद्दीन एतगीन को ‘अमीर-ए-हाजिब’ का पद दिया तथा इख्तियारूद्दीन अल्तूनिया को भटिण्डा का सूबेदार बनाया। ये सभी पदाधिकारी रजिया के कृपापात्र थे।
रजिया ने एक अबीसीनियाई हब्सी मलिक जमालुद्दीन याकूत को ‘अमीर-ए-अखूर’ (अश्वशाला का प्रधान) का सम्मानित पद दिया। जमालुद्दीन याकूत सुल्ताना रजिया का कृपापात्र था और वह रजिया के घोड़े पर बैठने के अवसर उसे अपने हाथों का सहारा दिया करता था। रजिया के इस कार्य से तुर्कों में विरोध की ज्वाला भड़क उठी, तुर्की सरदारों को यह कत्तई पसन्द नहीं था कि एक सुल्ताना अपने दरबार में एक काले गुलाम को पसन्द करे। इसी वजह से कुछ इतिहासकारों ने रजिया सुल्तान और जमालुद्दीन याकूत के बीच प्रेम सम्बन्ध होने का आरोप लगाया है।
तत्कालीन इतिहासकार इसामी ने रजिया सुल्तान पर जमालद्दीन याकूत के साथ अनुचित प्रेम सम्बन्ध का आरोप लगाया था। किन्तु अविवाहित इसामी के ओराप को अन्य इतिहासकार स्वीकार नहीं करते। वह एक ऐसा सन्देह है जिसका कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता। इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज ने याकूत और रजिया के सम्बन्धों को निष्कलंक बताया है।
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बता दें कि तीन वर्ष तक रजिया सुल्तान अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल रही। वह अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा कर सकी और अपने विरोधी तुर्क गुलाम सरदारों को अपने अधीन रख सकी। परन्तु 1240 ई. में सरहिन्द के सूबेदार अल्तूनिया ने विद्रोह कर दिया। रजिया का ‘अमीर-ए-हाजिब’ एतगीन और अल्तूनिया दोनों घनिष्ट मित्र थे। ऐसे में जब रजिया रमजान के महीने में अल्तूनिया के विद्रोह को दबाने के लिए अपनी सेना लेकर भटिण्डा किले के सामने खड़ी थी, ठीक उसी समय तुर्की सरदारों ने उसे धोखा दिया। तुर्की सरदारों ने मिलकर उसके विश्वासपात्र गुलाम जमालुद्दीन याकूत का वध कर दिया और रजिया के विरुद्ध विद्रोह करके उसे पकड़कर भटिण्डा के किले में कैद कर लिया।
रजिया के कैद होने की सूचना मिलते ही षडयंत्रकारी अमीरों ने उसके भाई बहरामशाह को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया तथा एतगीन के दिल्ली पहुंचते ही उसे ‘नाइब-ए-मामलिकात’ का नवीन पद दिया गया। यह पद एक संरक्षक के समान था। चूंकि अल्तूनिया को उसके इच्छानुसार पद नहीं मिला इसलिए उसने रजिया से विवाह कर लिया। जहां रजिया ने अपने सिंहासन को दोबारा प्राप्त करने की इच्छा से यह विवाह किया था वहीं अल्तूनिया को अपने सम्मान और पद में वृद्धि की आशा थी।
जानकारी के लिए बता दें कि बहरामशाह से असन्तुष्ट सरदार रजिया और अल्तूनिया से जा मिले। खोक्खर, राजपूत और जाटों को सम्मिलित करके अल्तूनिया ने एक सेना एकत्र की और रजिया के साथ दिल्ली की ओर बढ़ना आरम्भ किया। लेकिन तुर्क अमीरों के नेतृत्व वाली दिल्ली की सेना के मुकाबले रजिया की पराजय हुई जिससे उन्हें भटिण्डा की ओर वापस लौटना पड़ा। यहां तक कि सैनिक भी उनका साथ छोड़ गए और रास्ते में कैथल के निकट जब रजिया और अल्तूनिया एक वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे तभी कुछ हिन्दू डाकूओं ने 13 अक्टूबर 1240 को उन दोनों का वध कर दिया। एलफिंस्टन के अनुसार, “यदि रजिया स्त्री न होती तो उसका नाम भारत के महान मुस्लिम शासकों में लिया जाता।”