पानीपत के युद्ध में (1526 ई.) इब्राहिम लोदी को परास्त कर बाबर ने हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य की नींव डाली थी। इसके पश्चात खानवा के युद्ध में (1527 ई.) महाराणा सांगा को पराजित करके मुगल सत्ता को मजबूत बना दिया था, हांलाकि वह स्थायी साबित नहीं हुआ।
हुमायूं के मुगल बादशाह बनने के दस वर्ष के अन्दर ही मुगलों को हिन्दुस्तान से बेदखल होना पड़ा। इसके लिए स्वयं बाबर भी कम जिम्मेदार नहीं था। सही अर्थों में देखा जाए तो अफगान शासक शेरशाह सूरी के सत्ता प्राप्त करने का श्रेय बाबर को ही जाता है। यह गौर करने वाली बात है कि इन्सानों का सच्चा पारखी बाबर अफगान नेता शेरशाह सूरी के झांसे में कैसे आ गया?
शेरखान यानि शेरशाह सूरी ने जब बाबर की सेवा स्वीकार की तब बाबर ने अपने सैन्याधिकारियों से कहा था- “यह अफगान छोटी-छोटी परेशानियों से घबराने वाली नहीं है, इसमें महान होने की संभावनाएं हैं... शेरखान पर नजर रखना। वह बड़ा चतुर है और उसके माथे पर राज-लक्षण दिखाई देते हैं।” शेरखान कभी अफगानों का साथ दे रहा था तो कभी उन्हीं के खिलाफ बाबर और हुमायूं का बावजूद इसके बाबर ने शेरखान की विश्वासघाती कूटनीति पर नियंत्रण नहीं रखा।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि मुगलों को चुनौती दे सकने योग्य स्थिति में पहुंचने तक शेरखां उन्हें बहलाए रखा। शेरखां इस बात को भलीभांति जानता था कि अफगान नेता अभी मुगलों को चुनौती देने में सक्षम नहीं हैं। इसी वजह से उसने अफगानों का नेतृत्व स्वयं के हाथों में लेने का निर्णय लिया। अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसने सबसे पहले मुगलों को ही अपनी चाल का मोहरा बनाया।
हांलाकि मुगलों से शेरशाह नफरत करता था, इसलिए उसने कहा था- “यदि किस्मत ने मेरा साथ दिया तो मैं इन मुगलों को जल्द ही हिन्दुस्तान से बाहर खदेड़ दूंगा। वे हमसे बेहतर लड़ाके नहीं हैं किन्तु हमारे आपसी मतभेदों के कारण सत्ता हमारे हाथ से खिसकर उनके हाथों में चली गई। मैं मुगलों के बीच रहा हूं। उनके व्यवहार को बारीकी से देखा है और पाया है कि उनमें व्यवस्था और अनुशासन की कमी है। मुगलों की अगुवाई करने वाले ऊँचे खानदान और ओहदे के घमंड में चूर रहने के कारण निगरानी के फर्ज को ठीक से अंजाम नहीं देते और सबकुछ मातहतों पर छोड़ देते हैं और जिन पर वे आंख मूंदकर भरोसा करते हैं। ये मातहत अत्यंत भ्रष्ट हैं...। उन्हें अपने निजी फायदे की फिक्र होती है और वे सिपाही और शहरी, दुश्मन और दोस्त में फर्क नहीं करते।”
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बाबर ने अंतिम समय में सभी बेटों को अपना राज्य बांट दिया था जिसके चलते बादशाह हुमायूं के लिए अनेक समस्याएं उत्पन्न हुईं और इसका फायदा शेरखान ने उठाया। शेरशाह के साथ हुए संघर्ष में हुमायूं के भाईयों ने भी उसका साथ नहीं दिया। बतौर उदाहरण- कामरान को काबुल और कंधार के इलाके मिले थे फिर भी वह संतुष्ट नहीं था, उसने 1531 ई. में पंजाब पर आक्रमण कर दिया। हुमायं ने कामरान को पेशावर और लमघान की जागीरें देकर उसे शान्त करने का प्रयास किया बावजूद इसके उसने लाहौर का किला छीन लिया और सतलज तक सारे राज्य को रौंद डाला। बाद में उसने हुमायूं से और जागीरें मांगीं। अन्तत: हुमायूं के पास उसकी बात मान लेने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं था। हुमायूं ने कामरान की प्रशंसा में न केवल एक गीत लिखा बल्कि उसे बतौर पारितोषिक हिसार और फिरोजा देने की भारी गलती कर डाली। ऐसे में कामरान ने खैबर पार के इलाकों को अपने कब्जे में ले लिया। आपको जानकारी के लिए बता दें कि खैबर पार के क्षेत्रों से ही मुगल लड़ाकों की भर्ती होती थी, इसलिए कामरान इस योग्य हो गया कि वह बादशाह हुमायूं की सैन्य शक्ति को गंभीररूप से हानि पहुंचा सकता था।
चूंकि अफगान अभी अपनी पर्याप्त शक्ति बनाए हुए थे तभी बाबर की मौत हो गई और यही अफगान हुमायूं के लिए एक बड़ी चुनौती बने। दिल्ली तख्त के असली हकदार महमूद लोदी ने बंगाल के शासक नुसरत शाह की पुत्री से विवाह कर लिया था। इतना ही नहीं उसने बयाजीद और बिब्बन जैसे अफगान प्रमुखों की सदस्यता भी हासिल कर ली थी। दूसरी तरफ बाबर की मौत के बाद आलम खान मुगलों की कैद से भाग निकला और उसने गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के यहां शरण ली। बहादुरशाह ने हुमायूं के खिलाफ अफगानों की धन व संसाधनों से भरपूर मदद की। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए मजबूत सैन्य शक्ति, असीम उत्साह व सैन्य चातुरी की बहुत आवश्यकता थी लेकिन संयोगवश इन गुणों का हुमायूं में नितान्त अभाव था। इन सभी का परिणाम यह निकला कि साम्राज्य पर हुमायूं की पकड़ कमजोर होती चली गई और शेरखान का शिकंजा कसता गया।
शेरशाह सूरी का हुमायूं के साथ संघर्ष
जिस समय हुमायूं गुजरात के शासक बहादुरशाह से संघर्ष में व्यस्त था, उन दिनों शेरखां बिहार और बंगाल में अपनी शक्ति मजबूत कर रहा था। यहां तक कि दक्षिण बिहार और चुनार का किला शेरखां के आधिपत्य में आ चुका था। इतना ही नहीं शेरखां का बेटा कुतुब खां हुमायूं की सेना छोड़कर सुरक्षित वापस पहुंच चुका था और विभिन अफगान सरदार उसके नेतृत्व में एकत्र हो रहे थे। नुसरतशाह की मौत हो चुकी थी और महमूदशाह योग्य शासक नहीं था, ऐसे में इस दुर्बलता का लाभ उठाकर शेरखां ने 1536 ई. में बंगाल पर आक्रमण कर दिया और उसकी राजधानी गौड़ को चारों तरफ से घेर लिया। बाध्य होकर महमूदशाह ने शेरखां को 13 लाख स्वर्ण दीनार देकर सन्धि कर ली। मुगल बादशाह बनने के बाद हुमायूं अपने सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी शेरखां ने तब तक अनभिज्ञ रहा जब तक उसे यह सूचना नहीं मिली कि शेरखां ने दोबारा बंगाल की राजधानी गौड़ पर आक्रमण कर दिया है।
अपनी किताब 'इफ़ हिस्ट्री हैज़ टौट अस एनीथिंग' में इतिहासकार फ़रहत नसरीन लिखती हैं, "शेरशाह की महत्वाकांक्षा इसलिए बढ़ी क्योंकि बिहार और बंगाल पर उनका पूरा नियंत्रण था। अतत: वो मुग़ल बादशाह हुमायूं के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बन गए। जहाँ तक युद्ध कौशल की बात है शेरशाह हुमायूं से कहीं बेहतर थे।"
हुमायूं की चुनारगढ़ विजय (1538 ई.)
साल 1537 ई. के जुलाई महीने में मुगल बादशाह हुमायूं ने पूर्व की तरफ बढ़ना आरम्भ किया। अक्टूबर के महीने में उसने सबसे पहले चुनारगढ़ किले पर अपना घेरा डाला जहां पहले से ही कुतुब खां ने शेरखां की योजनानुसार हुमायूं को अधिक समय तक रोकने का निश्चय कर रखा था।
तकरीबन 6 महीने की घेरेबंदी के पश्चात बेहद सूझबूझ और तोपखाने की सहायता से हुमायूं चुनारगढ़ फतह करने में सफल हुआ। तब तक शेरखां बंगाल की राजधानी गौड़ को जीत चुका था और उसके खजाने को लूटकर बिहार के रोहतासगढ़ किले में सुरक्षित रख दिया था। चुनार को जीतने में हुमायूं ने जो समय लगाया वह उसकी बड़ी भूल मानी जाती है। प्रख्यात इतिहासकार डॉ. आर. पी त्रिपाठी के अनुसार, “चुनार किले को अफगानों के हाथों में छोड़कर बंगाल की ओर कूच करना हुमायूं के लिए उपयुक्त नहीं था अपितु अपनी पूरी सेना लेकर छह महीने तक चुनार के किले समक्ष पड़े रहना भी उसकी एक भूल थी।”
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हुमायूं की बंगाल विजय
चुनारगढ़ किले को जीतने के पश्चात हुमायूं बनारस में रूका जहां उसने शेरखां से सन्धि की बातचीत शुरू की। हुमायूं ने निश्चय किया कि मुगलों की अधीनता में बंगाल शेरखां को दे दिया जाएगा जिसके बदले शेरखां मुगल हुमायूं को 10 लाख रुपया प्रतिवर्ष देगा।
शेरखां ने हुमायूं के इस शर्त को स्वीकार कर लिया। इसी बीच महमूदशाह के एक राजदूत ने हूमायूं से अपने सुल्तान महमूदशाह के लिए हुमायूं से सहायता मांगी और बंगाल पर आक्रमण करने की प्रार्थना की। अत: हुमायूं ने बंगाल पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। शेरखां ने हुमायूं के वायदा तोड़ने का लाभ उठाया और अफगानों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहा कि मुगल अफगान सत्ता का सर्वनाश चाहते हैं।
हुमायूं के बंगाल पहुंचने से पूर्व उसे रास्ते में थोड़े समय तक रोककर रखने के लिए शेरखां के पुत्र जलाल खां ने बाधा डाली हांलाकि उसका मुख्य उद्देश्य हुमायूं से युद्ध करना नहीं था। अपने कार्यपूर्ति के बाद जलाल खां अपने पिता शेरखां के पास चला गया। जब तक हुमायूं बंगाल पहुंचा तब तक शेरखां सैन्य समेत बंगाल छोड़ चुका था और महमूदशाह की मौत हो चुकी थी तथा उसके बच्चों की हत्या कर दी गई थी। लिहाजा हुमायूं ने बड़ी सरलता से बंगाल पर अधिकार कर लिया।
इतिहासकार डॉ. ए. एल श्रीवास्तव के मुताबिक, “हुमायूं ने तकरीबन 8 महीने तक बंगाल में ऐश-आराम किया और दिल्ली, आगरा या बनारस तक से अपना सम्पर्क नहीं रखा।” इसी बीच शेरखां ने बनारस, कड़ा, कन्नौज, सम्भल आदि पर अधिकार कर लिया तथा जौनपुर तथा चुनारगढ़ किले को घेरकर हुमायूं के लौटने का मार्ग बन्द कर दिया। कई महीनों के बाद हुमायूं को यह सूचना मिली कि उसके भाई हिन्दाल ने आगरा में स्वयं को स्वतंत्र बादशाह घोषित कर दिया है। अत: उसने जहांगीर कुलीबेग के अधीन केवल 500 सैनिकों को छोड़कर वह मार्च 1539 ई. में गौड़ से आगरा के लिए प्रस्थान किया।
चौसा का युद्ध (26 जून 1539 ई.)
आगरा लौटते समय हुमायूं ने ग्राण्ड ट्रंक रोड को चुना जिस पर अफगानों का पूर्व से ही अधिकार था। हांलाकि यह उसकी बड़ी भूल थी। ग्राण्ड ट्रंक रोड होते हुए हुंमायूं जैसे ही चौसा पहुंचा वहां शेरखां पहले से ही अपनी व्यवस्थित सेना के साथ उसका इन्जार कर रहा था। मुगल सेना गंगा और कर्मनासा नदी के बीच चौसा के मैदान में रूकी हुई थी। चूंकि यह भाग नीचले इलाके में स्थित था ऐसे में वर्षा होने पर या फिर उन नदियों में बाढ़ आने पर मुगल सेना भारी संकट में फंस सकती थी। तकरीबन तीन महीने तक शेरखां और हुमायूं की सेनाएं डेरा डाले रहीं। सन्धि के लिए कई बार बातचीत हुई लेकिन उसका कोई लाभ नहीं हुआ। दरअसल शेरखां समय व्यतीत करना चाहता था। वर्षा शुरू होते ही 26 जून को प्रात:काल अन्धकार में ही शेरखां ने अचानक मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। मुगलों में भगदड़ मच गई जिसमें तकरीबन 8000 मुगल सैनिक और सरदार मारे गए। कर्मनासा नदी को पार करने के प्रयास में हजारों घोड़े डूब गए अथवा मारे गए। स्वयं हुमायूं का घोड़ा डूब गया और एक भिश्ती ने हुमायूं की जान बचाई। हरम की स्त्रियों सहित बड़ी मात्रा में लूट का माल अफगानों के हाथ लगा। हांलाकि मुगल स्त्रियों को सम्मानपूर्वक हुमायूं के पास पहुंचा दिया गया। चौसा विजय के पश्चात शेरखां ने शेरशाह के नाम से अपना राज्याभिषेक करवाया और पादशाह का संपूर्ण दायित्य लेने के साथ ही अपने नाम के सिक्के ढलवाए।
कन्नौज का निर्णायक युद्व (17मई 1540 ई.)
चौसा में मिली पराजय से हुमायूं की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा। अनेक मुगल उमरा हुमायूं के विरुद्ध हो गए। शेरशाह के विरुद्ध कामरान ने हुमायूं का साथ नहीं दिया बल्कि वह लाहौर लौट गया। ऐसे में शेरशाह पर नियंत्रण करने के लिए हुमायूं ने कन्नौज की तरफ कूच किया। इस बार भी हूमायूं ने गंगा नदी पार करके दक्षिणी तट पर शेरशाह का सामना करने की गलती दोहराई।
कन्नौज के निकट दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ गईं। लेकिन तकरीबन डेढ़ महीने तक एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं किया। 15 मई को घनघोर वर्षा हुई और मुगल खेमे में पानी भर गया। जब 17 मई को मुगल अपनी सेना और खेमों को ऊंची भूमि पर ले जाने का प्रयत्न कर रहे थे तभी अफगानों ने आक्रमण कर दिया। इस अचानक हमले में मुगलों ने डटकर मुकाबला किया लेकिन वे अपने तोपखाने का उपयोग नहीं कर सके। आखिरकार मुगल सेना के पैर उखड़ गए औैर वह भाग खड़ी हुई। कन्नौज का युद्ध निर्णायक था, हुमायूं अपनी जान बचाकर आगरा पहुंचा लेकिन वहां भी ठहर नहीं सका। इस बार शेरशाह उसका पीछा करता हुआ आ रहा था। हुमायूं भागकर लाहौर पहुंचा लेकिन वहां भी अपने भाई के साथ मिलकर कुछ नहीं कर सका। इस प्रकार शेरशाह ने बड़ी सरलता से आगरा और दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुगलों से उत्तर भारत की राजसत्ता को छीन लिया।