“अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा, तो मैं मुगलों को सरलता से हिन्दुस्तान से बाहर निकाल दूंगा।” यह शेरशाह ने उस समय कहा था जब वह मुगल सेना में था और बाबर को चन्देरी के आक्रमण में सहयोग दे रहा था। कुछ ही वर्षों में शेरशाह ने अपने शब्दों को सत्य साबित करते हुए उत्तर भारत में सूर वंश की स्थापना की।
सूरी साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह सूरी ने हिन्दुस्तान पर महज पांच वर्ष (1540 – 1545 ई.) तक ही शासन किया लेकिन इतने ही वर्षों में उसके साहस और बहादुरी के किस्सों के कारण उसका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। शेरशाह इतिहास के उन महान व्यक्तियों में से एक था जो केवल परिश्रम, योग्यता और अपनी तलवार की शक्ति से साधारण व्यक्ति के स्तर से उठकर राज्य पद तक पहुंचा। शेरशाह न तो किसी राजवंश से, न किसी धनाढ्य परिवार से और न किसी ख्याति प्राप्त धार्मिक अथवा सैनिक नेता से संबंधित था। उसने जो कुछ भी हासिल किया, स्वयं के पौरूष और पुरूषार्थ से प्राप्त किया। यही वजह है कि उसकी गणना महान व्यक्तियों में की जाती है।
शेरशाह सूरी ने 29 जून 1539 को चौसा के युद्ध में मुगल बादशाह हुमायूं को न केवल पराजित किया बल्कि जान बचाकर भागने पर मजबूर भी कर दिया। इस लड़ाई में हुमायूं ने घोड़े सहित गंगा में कूदकर अपनी जान बचाई। इस युद्ध में करीब 8000 मुगल सैनिक और सरदार मारे गए थे। इस हार ने बाबर द्वारा स्थापित मुगल साम्राज्य का अंत कर दिया।
चौसा युद्ध से हारकर हुमायूं कालपी मार्ग से होते हुए आगरा पहुंचा और अपनी सेना पुर्नगठित की। उसने अपने भाईयों से मदद भी मांगी लेकिन असफल रहा लिहाजा करीब 40000 सैनिकों की सेना लेकर अफगान शासक शेरशाह सूरी से मुकाबला करने के लिए निकल पड़ा। लिहाजा 1540 ई. में युद्ध के लिए दोनों पक्षों की सेनाओं ने कन्नौज के बिलग्राम में गंगा के किनारे अपना-अपना पड़ाव डाला। इस युद्ध की सबसे खास बात यह है कि दोनों सेनाएं लगभग डेढ़ महीने तक बिना युद्ध किए वहीं पर अपना पड़ाव डाले रहीं। 15 मई को घनघोर बारिश हुई जिससे मुगल खेमों में पानी भर गया। 17 मई को जब मुगल अपनी सेना और खेमों को ऊँची भूमि पर ले जाने का प्रयत्न कर रहे थे तभी शेरशाह के अफगान सैनिकों ने आक्रमण कर दिया। मुगलों ने डटकर मुकाबला किया लेकिन अपने तोपखाने का प्रयोग नहीं कर सके। ऐसे में शेरशाह ने मुगलों के मुकाबले मुगल युद्ध नीति का ही प्रयोग किया और सफल हुआ। आखिरकार मुगल सेना के पैर उखड़ गए और वह भाग खड़ी हुई। यह निर्णायक युद्ध था, हुमायूं भागकर आगरा पहुंचा परन्तु वहां ठहर नहीं सका। इस बार शेरशाह उसका पीछा करता हुआ आ रहा था। हुमायूं भागकर लाहौर गया जहां उसके भाई उसे मिले बावजूद इसके वह कुछ हासिल नहीं कर सका। ऐसे में शेरशाह ने बड़ी सरलता से आगरा,दिल्ली, सम्भल, ग्वालियर, लाहौर आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया और मुगलों से उत्तर भारत की राजसत्ता छीन ली। यह अलग बात है कि शेरशाह सूरी की मौत के बाद 1555 में हुमायूं ने दोबारा दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
आज हम बात करने जा रहे शेरशाह सूरी की उस प्रशासनिक व्यवस्था की जो उसने प्रान्तों में लागू की थी। सबसे गौर करने वाली बात यह है कि सूरी साम्राज्य के दौरान लागू की गई यह व्यवस्था हमारे देश में आज भी प्रासंगिक दिखती है।
शेरशाह सूरी की प्रान्तीय शासन व्यवस्था-
इतिहासकार डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार, “शेरशाह का साम्राज्य इक्ताओं में बंटा हुआ था। जिनमें सैनिक अधिकारी शासन करते थे। शेरशाह ने अपने राज्य को क्षेत्रफल के आधार पर अनके भागों में बांटा और उस पर अपना कड़ा नियंत्रण बनाए रखा।” कुछ इसी संबंध में डॉ. परमात्माशरण लिखते हैं- ‘शेरशाह का राज्य विभिन्न प्रान्तों में विभक्त था और उनका प्रशासन सैनिक अधिकारी गर्वनर की हैसियत से चलाते थे।’ बतौर उदाहरण- बंगाल विजय के बाद खिज्र खां को उसका गर्वनर नियुक्त किया गया, बाद में उसे शिकों में विभाजित कर शिकदारों की नियुक्ति की गई। इसके बाद सभी शिकदारों को अमीन-ए-बंगाल के अधीन कर दिया गया, जो बंगाल का गर्वनर था।
1- सूबा या इक्ता (प्रदेश/ प्रान्त)
सूबे का मतलब होता है प्रान्त जिसे हम आज की भाषा में प्रदेश अथवा स्टेट कहते हैं। बंगाल के अतिरिक्त्त शेरशाह सूरी का शेष साम्राज्य इक्तों में बंटा हुआ था। ये इक्ते सूबों या प्रान्तों के ही रूप थे। इक्ता के गर्वनर को हाकिम, फौजदार, या मौमिन कहा जाता था। वे अपनी सैनिक टुकड़ी रखते थे और सूबे में कानून व्यवस्था बनाए रखते थे। हांलाकि सभी इक्तों में एक समान प्रशासनिक व्यवस्था नहीं थी। पंजाब जैसे सूबे में सैनिक गर्वनर नियंत्रण रखते थे।
2- सरकार (जिला)
शेरशाह शाह सूरी ने सूबों को सरकारों में बांट रखा था। सरकार से तात्पर्य जिले से है। प्रत्येक सरकार में दो मुख्य अधिकारी होते थे। पहला शिकदार-ए-शिकदारान और दूसरा मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान।
शिकदार-ए-शिकदारान वह सैनिक अधिकारी था जिसका काम सूबे में शांति एवं कानून व्यवस्था बनाए रखना था जबकि मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान एक न्यायिक अधिकारी था जो दीवानी के मुकदमें देखता था।
3- परगना (प्रखण्ड /ब्लाक)
सूबे का प्रत्येक सरकार परगनों में बंटा था। प्रत्येक परगने में एक शिकदार, एक मुन्सिफ, एक फोतदार और दो कारकून होते थे। शिकदार के साथ सैनिक दस्ता होता था जो परगने में शांति व्यवस्था बनाए रखता था। जबकि मुन्सिफ दीवानी के मुकदमों का निर्णय करने के साथ भूमि के नाप-तौल तथा लगान की भी व्यवस्था करता था। फोतदार परगने का खंजाची था और कारकूनों का काम हिसाब-किताब लिखना था।
4- गांव
शेरशाह ने गांव की पारम्परिक व्यवस्था को यथावत बनाए रखा। गांव में सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए उसने परंपरागत चौकीदार, पटवारी (लेखपाल) और मुखिया (ग्राम प्रधान) आदि की व्यवस्था की। ग्राम पंचायत ही गांव की सुरक्षा, शिक्षा और सफाई का प्रबन्ध करती थी। गांव के इन स्थानीय अधिकारियों को अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था अन्यथा इनको दण्ड दिया जाता था।
अगर शेरशाह सूरी की प्रान्तीय व्यवस्था का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि करीब पौने पांच साल पुरानी यह व्यवस्था आज भी बरकरार है। बतौर उदाहरण हिन्दुस्तान के केन्द्रीय शासन को प्रान्त यानि सूबे (इक्ता) में बांटा गया है। प्रान्तों को सरकार में, सरकार (जिले) को परगने (ब्लाक/प्रखण्ड) में बांटा गया है। प्रत्येक परगने के अधीन गांवों को रखा गया है। जबकि प्रखण्ड प्रशासन के अधीन गांवों में चौकीदार, पटवारी (लेखपाल) और मुखिया (ग्राम प्रधान) आदि अपने-अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करते हैं।