मध्यकालीन भारतीय इतिहास में उज्बेक योद्धा मुहम्मद शायबानी के बारे में बहुत ही कम लिखा-पढ़ा गया है। दरअसल शायबानी जब तक जीवित रहा, बाबर चाहकर भी उसे नहीं हरा पाया। शायबानी खान की गिनती मध्य एशिया के खूंखार योद्धाओं में की जाती है। मोहम्मद शायबानी खान ने बाबर को मक्खन की तरह हराया था, इसी उज्बेकी योद्धा के चलते बाबर को फरगना और समरकन्द छोड़कर भारत की तरफ रूख करना पड़ा। तुजुक-ए-बाबरी में बाबर ने भी एक सैन्य कमांडर के रूप में उसकी क्षमता को स्वीकार किया है। इस स्टोरी में हम शायबानी की युद्ध नीति से पूर्व उसके व्यक्तित्व और कृतित्व पर थोड़ा प्रकाश डालना चाहेंगे।
उज्बेक नेता मुहम्मद शायबानी खान को अबुल-फतह शायबानी खान या शायबक खान या शाही बेग खान के नाम से भी जाना जाता है। शायबानी का मूल नाम "शिबाघ" था। शायबानी खान के पिता का नाम बुदाक था जो उज़्बेक उलुस (उलूस से अभिप्राय किसी क्षेत्र की साम्राज्य सीमा से होता था) के शासक अबुल-खैर खान के ग्यारह बेटों में से एक थे। शायबानी खान की मां का नाम अक़ क़ुज़ी बेगम था।
इतिहासकार कमाल अद-दीन बिनई के मुताबिक बुदाक सुल्तान ने अपने सबसे बड़े बेटे का नाम सुल्तान मुहम्मद शायबानी रखा और उसे ‘शिबाग’ उपनाम से भी बुलाते थे। चूंकि बुदाक सुल्तान एक शिक्षित व्यक्ति थे जिन्होंने फारसी रचनाओं का तुर्क भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद करवाया था। अपने पिता की ही भांति मुहम्मद शायबानी खान एक खूंखार योद्धा से इतर एक शिक्षाविद् भी था। उसकी इतिहास में विशेष रूचि थी, वह सिकन्दर महान से प्रभावित था। शायबानी खान को कुछ हद तक इस्लामिक विद्वता के लिए भी याद किया जाता है, उसने अपने जीवनकाल में कुछ गद्य रचनाएं लिखीं जो आज भी संरक्षित है। शायबानी खान ने अपने बेटे को समर्पित चगताई भाषा में रिसाले-यि मारिफ-ए-शायबानी तथा धर्म पर खुद के विचारों से जुड़ी एक दार्शनिक कृति बहर-उल-खुदो की रचना की।
इतना ही नहीं शायबानी खान ने अपने छोटे से शासनकाल में स्थापत्य कला को भी बढ़ावा दिया। चोर-बक्र का स्मारक परिसर शायबानी खान की स्थापत्य कला का बेहतरीन उदाहरण है। इस परिसर में एक मस्जिद, मीनार, क़ब्रिस्तान और बहुत कुछ शामिल है। यह उस समय मध्य एशिया का एक बहुत ही महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल था। चोर-बक्र परिसर के डिज़ाइन में तिमुरिड वास्तुशिल्प का प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है।
बता दें कि अबू-बक्र-सईद के कब्रगाह पर चोर-बक्र स्मारक परिसर का निर्माण किया गया था। अबू बक्र इस्लामी पैगम्बर मुहम्मद साहब के साथ मदीना भी गए थे तथा वह मुहम्मद के सबसे करीबी सलाहकार बने रहे और उनके लगभग सभी सैन्य संघर्षों में मौजूद रहे। मुहम्मद की अनुपस्थिति में अबू बक्र ने प्रार्थनाओं और अभियानों का नेतृत्व किया।
अब हम बात करते हैं मुहम्मद शायबानी के युद्ध कौशल की। अपने जीवन के शुरूआती दौर में उज़्बेक योद्धा शायबानी खान जो अमीर अब्दुल अली के अधीन समरकन्द के सुल्तान अहमद मिर्ज़ा (बाबर का चाचा) की सेना में 3000 लड़ाकों की सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व कर रहा था। जब अहमद मिर्जा ने ताशकंद को जीतने के लिए सुल्तान महमूद खान के खिलाफ आक्रमण किया तब शायबानी ने महमूद खान से गुप्त रूप से मुलाकात की और मिर्जा अहमद की सेना को धोखा देने और लूटने के लिए राजी हो गया।
1488 ई. में चिरसिक की लड़ाई में शायबानी की वजह से महमूद खान की निर्णायक जीत हुई। ऐसे में खुश होकर महमूद खान ने शायबानी को पुरूस्कारस्वरूप तुर्किस्तान दिया। ऐसे में शायबानी ने उज्बेकों से शक्ति प्राप्त कर अहमद मिर्जा से समरकंद और बुखारा जीतने का फैसला किया जिसमें उसे महमूद खान की सहायता भी प्राप्त हुई। तत्पश्चात शायबानी ने समरकंद पर चढ़ाई कर दी। खूंखार योद्धा शायबानी ने अपने दादा अबुल-खैर खान की नीतियों का अनुसरण करते हुए 1500 ई. में तिमुरिदों को उनकी राजधानी समरकंद से बाहर खदेड़ दिया। यही वो दौर है जब शायबानी खान की भिड़न्त समरकन्द और फरगना के शासक बाबर से हुई। अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मौत के बाद 12 वर्ष की उम्र में बाबर फरगना की गद्दी पर बैठा। 1497 ई. में बाबर ने समरकन्द को जीत लिया था लेकिन मुहम्मद शायबानी के चलते उसे शीघ्र ही समरकन्द और फरगना दोनों से हाथ धोना पड़ा।
1500-1501 ई. में बाबर ने मुहम्मद शायबानी खान के साथ एक निर्णायक जंग लड़ी जिसे सरायपुल का युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में शायबानी खान ने बाबर तथा उसकी सेना को बहुत बुरी तरह हराया। ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक कोई भी हार इससे अधिक सम्पूर्ण नहीं हो सकती। बाबर की सेना पूरी तरह से नष्ट हो गई। बाबर के कई अनुभवी और बहादुर सैन्य अधिकारी और सैनिक मारे गए। स्थिति यह हो चुकी थी कि दूर-दूर तक मुहम्मद शायबानी का अब कोई विरोध भी नहीं कर सकता था।
सरायपुल के युद्ध में शायबानी खान ने समरकंद में बाबर को 6 महीने तक घेरे रखा, बाबर का कोई भी रिश्तेदार मदद के लिए आगे नहीं आया। स्थिति यह हो गई थी कि बाबर के सैनिक दो जून की रोटी के लिए भी तरस गए थे। ऐसे में बाबर की बड़ी बहन खानजादा बेगम ने अपने भाई की जान बचाने के लिए खुद को शायबानी खान के हवाले कर दिया। हांलाकि शायबानी खान ने बाबर को भेजे गए अपने संदेश में खानजादा बेगम के बदले गठबंधन करने की बात कही थी। चूंकि बाबर की बड़ी बहन खानजादा बेगम शुरू से ही बाबर के जीवन के प्रभावित करती रहीं ऐसे में उन्होंने अपने छोटे भाई के बदले में खुद को उज्बेक कमांडर शायबानी खान को सौंप दिया।
कहा जाता है कि सरायपुल के युद्ध में शायबानी के उज्बेक लड़ाके बाबर की सेना पर बिजली बनकर गिरे थे, पलक झपकते ही बाबर का खेमा हताश और विवश नजर आने लगा। दरअसल शायबानी जंग के दौरान जिस रणनीति का पालन करता था, उसे सैन्य विज्ञान में तुलुगमा युद्ध पद्धति कहा जाता है। मध्यकाल में उज्बेक सैनिक तुलुगमा रणनीति के जरिए ही अपने दुश्मनों पर हमला कर उन्हें मिट्टी में मिला देते थे। सैन्य दृष्टिकोण से छोटी सेना के लिए तुलुगमा युद्ध पद्धति को सबसे कारगर माना जाता है।
चलिए हम आपको बताते हैं कि क्या होती है तुलुगमा युद्ध पद्धति? जी हां, दरअसल बड़ी सेना को घेरने के लिए यह रणनीति सबसे सटीक, कम नुकसानदेह और नतीजा देने वाली होती है। तुलुगमा रणनीति के तहत सेनाओं को तीन बड़े हिस्सों में बांट दिया जाता है, सेना का दायां और बायां हिस्सा और बाकी सैन्य टुकड़ी पिछले हिस्से में मौजूद होती है। निर्णायक जंग के दौरान एक हिस्सा सामने से हमला करता है, बाकी हिस्से उसे चारों तरफ से घेरकर बहुत तेजी से हमला करते हैं और दुश्मन को सम्भलने तक का मौका नहीं देते हैं। यदि हमला आक्रमणकारी के पक्ष में रहा तो उसे नतीजे तक जारी रखा जाता है, वरना हारने की स्थिति में जंग छोड़कर भाग जाना सुरक्षित विकल्प माना जाता है। इस प्रकार बाबर ने उज्बेक कमांडर शायबानी के खिलाफ लड़ी गई जंगों से ही सबक लेकर पानीपत में इब्राहिम लोदी और खानवा के जंग में महाराणा सांगा जैसे वीर शासक को पराजित कर हिन्दूस्तान में मुगल वंश की नींव रखी थी।