कछवाहा नरेश भारमल के पौत्र व भगवंतदास के पुत्र मानसिंह का जन्म 6 दिसम्बर 1550 ई. को मौजमाबाद में हुआ था। मानसिंह 12 वर्ष की आयु में ही अकबर की सेवा में चला गया था। कछवाहा राजपूत भगवंतदास की मृत्यु के बाद मानसिंह 15 दिसम्बर 1589 ई. को आमेर का शासक बना। मानसिंह का पहली बार राज्याभिषेक पटना (बिहार) में जबकि दूसरी बार राज्याभिषेक आमेर पहुंचने पर किया गया।
आमेर के महलों का निर्माण करवाने वाला मानसिंह अकबर के नवरत्नों में से एक था जिसकी वीरता व सेवा से प्रसन्न होकर अकबर ने उसे फर्जंद (दत्तक पुत्र) व राजा की उपाधि के साथ ही मुगल दरबार में सात हजार की मनसबदारी प्रदान की थी। युद्ध की रणनीति में पारंगत मानसिंह मुगल सम्राट अकबर का सबसे शक्तिशाली और भरोसेमंद सेनापति थे। मान सिंह ने मुगल साम्राज्य के विस्तार में सर्वाधिक योगदान दिया था। कहा जाता है कि मानसिंह मुगल सम्राट अकबर के अधीन अवश्य था, लेकिन उसके साथ काम करने वाली राजपूत सेना मुगल सेना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली मानी जाती थी।
चूंकि मानसिंह एक कुशल योद्धा थे, इसलिए उन्होंने उड़ीसा, असम तथा काबुल जैसे खतरनाक प्रान्त को जीतकर अकबर के अधीन कर दिया था। मानसिंह की इन सैन्य उपलब्धियों से प्रसन्न होकर अकबर ने उन्हें बंगाल, उड़ीसा और लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया था। हांलाकि की अकबर के निधन के बाद जहांगीर ने मानसिंह को अपना विरोधी समझकर 1611 ई. में उन्हें अहमदनगर (बंगाल) भेज दिया। अहमदनगर में रहते हुए 6 जुलाई 1614 ई. को एलिचपुर में मानसिंह की मृत्यु हो गई।
आपको जानकारी के लिए बता दें कि कछवाहा शासक मानसिंह एक अच्छे योद्धा ही नहीं, अपितु एक बेहतरीन निर्माणकर्ता भी था। उसने अपने शासनकाल में कई प्रसिद्ध निर्माणकार्य करवाए। इस स्टोरी में हम आपको उन पांच चर्चित मंदिरों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो मानसिंह द्वारा बनवाए गए हैं।
1—शिला माता का मंदिर, जयपुर
कहा जाता है कि कछवाहा वंश की आराध्य देवी शिला माता की कृपा से ही मानसिंह को तकरीबन 80 से अधिक युद्धों में विजयश्री मिली थी। 1580 ई. में मानसिंह ने पूर्वी बंगाल के राजा केदार को हराकर जस्सोर नामक स्थान से मां भगवती को लेकर आमेर आए। इसके बाद आमेर किले में जलेब चौक के दक्षिणी पश्चिमी कोने में मंदिर का निर्माण करवाया।
मान्यता है कि देवी मां की प्रतिमा एक शिला के रूप में मिली थी, इसलिए शिला माता के नाम से विख्यात हुईं। बाद में मान सिंह ने प्रमुख शिल्पकारों से महिषासुर मर्दन करती हुई अष्टभुजी भगवती की प्रतिमा उत्कीर्ण करवाया। शिलामाता की चमत्कारी मूर्ति उत्तराभिमुखी है जो काले पत्थर की बनी हुई है और एक शिलाखण्ड पर बनी हुई है।
इस संबंध में जयपुर निवासियों में एक कहावत आम है- “सांगानेर को सांगो बाबो जैपुर को हनुमान, आमेर की शिला देवी लायो राजा मान।”
शिला माता मंदिर का मुख्य द्वार चांदी से निर्मित है। प्रवेश द्वार के पास दायीं ओर महालक्ष्मी एवं बायीं ओर महाकाली का चित्र उत्कीर्ण है। मुख्य द्वार के ऊपर लाल पत्थर की गणेशजी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। द्वार के सामने चांदी का नगाड़ा रखा हुआ है। चांदी निर्मित दरवाजे पर मां नव दुर्गा के चित्र उत्कीर्ण हैं। जबकि दस महाविद्याओं के रूप में काली, तारा, षोडशी, भुनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर, भैंरवी, धूमावती, बगुलामुखी, मातंगी और कमला चित्रित हैं।
राजा मान सिंह के समय में नरबलि दी जाती थी, बाद के शासकों ने पशुबलि देना शुरू कर दिया था जिसे वर्तमान में बंद कर दिया गया है। यहां ढाई प्याला शराब चढ़ती है तथा भक्तों को शराब व जल का चरणामृत दिया जाता है। शिला माता मंदिर के निर्माण से लेकर आज तक बंगाली ब्राह्मण परिवार ही देवी मां की सेवा-पूजा करता आ रहा है। मंदिर का पुजारी परिवार आमेर में ही निवास करते आ रहे हैं। मंदिर का वर्तमान स्वरूप मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा करवाया गया।
2— गोविन्ददेव जी का मंदिर, वृन्दावन
वृंदावन के गोविन्द देव मंदिर का निर्माण कछवाहा राजा मानसिंह ने 1590 ई. में करवाया था। महान कृष्णभक्त कल्याणदासजी की अगुवाई में निर्मित गोविन्ददेवजी के मंदिर निर्माण का पूरा खर्च राजा मानसिंह ने ही उठाया था। कहा जाता है कि कभी यह मंदिर सात मंजिला हुआ करता था, जिसमें सातवें मंजिल पर एक विशालकाय दीपक का निर्माण करवाया गया था।
इस दीपक को जलाने के लिए प्रतिदिन तकरीबन 50 किलो देशी घी का उपयोग होता था। यही वजह है कि गोविन्ददेव जी का यह मंदिर मीलों दूर से ही नजर आता था। हांलाकि मुगल बादशाह औरंगजेब ने साल 1669 ई. में गोविन्ददेव मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया, हांलाकि उसके सैनिक केवल 4 मंजिल ही तोड़ सके। केवल तीन मंजिला इमारत बची थी जिसे हम आज भी देखते हैं।
बता दें कि जब मुगल बादशाह औरंगजेब ने मथुरा के गोविन्ददेव मंदिर को नष्ट करने का आदेश दिया तो गौड़ीय संप्रदाय के पुजारी इन विग्रहों को उठाकर जयपुर भाग आए और इन्हें जयपुर में ही स्थापित कर दिया गया। तब से गोविंददेव जी को जयपुर का शासक माना गया और वहां शासकीय मर्यादा लागू हुई। गौरतलब है कि गोविन्ददेव मंदिर 1873 तक विखण्डित अवस्था में ही रहा, कालान्तर में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया।
3— भवानी शंकर का मंदिर, बैकटपुर
अकबर के मुख्य सेनापति मानसिंह बंगाल विद्रोह का दमन करने जलमार्ग के जरिए रनियासराय जा रहे थे, तभी राजा मानसिंह की नौका कौड़िया खाड़ में फंस गई जो काफी प्रयास के बाद भी नहीं निकल सकी। इसलिए मानसिंह को ससैन्य वहीं डेरा डालना पड़ा। कहा जाता है कि रात में मानसिंह को भगवान शिव ने दर्शन दिया और जीर्ण-शीर्ण मंदिर पुर्नस्थापित करने को कहा। मानसिंह ने उसी रात मंदिर के जीर्णोद्धार का आदेश दिया, इसके बाद आगे की यात्रा शुरू की। मानसिंह को बंगाल में विजय भी मिली।
कछवाहा नरेश मानसिंह द्वारा पुर्नस्थापित महादेव मंदिर मौजूदा समय में बिहार की राजधानी पटना के नजदीक खुसरूपुर ब्लॉक के बैकटपुर गांव में स्थित है। यह प्राचीन मंदिर श्रीगौरीशंकर बैकुण्ठधाम के नाम से विख्यात है।
मंदिर के गर्भगृह में भगवान भोलेनाथ के साथ माता पार्वती भी विराजमान हैं। इतना ही नहीं इतना ही नहीं पूरे शिवलिंग पर 108 छोटे-छोटे शिवलिंग भी बने हुए हैं। छोटे शिवलिंगों को रूद्र कहा जाता है, मान्यता है कि बैकठपुर जैसा शिवलिंग पूरी दुनिया में कहीं अन्यत्र नहीं है। मंदिर में अभी जो शिवलिंग स्थापित है वह राजा मानसिंह का स्थापित किया हुआ है।
रामायण से जुड़ा मंदिर का इतिहास
आनन्द रामायण में बैकटपुर गांव की चर्चा बैकुंठा के रूप में हुई है। प्राचीन काल में गंगा तट बसा यह क्षेत्र बैकुंठ वन के नाम से जाना जाता था। रावण वध के बाद भगवान श्रीराम को ब्रह्म हत्या का पाप लगा था, उसी पाप की मुक्ति के लिए श्रीराम ने इस शिव मंदिर में पूजा की थी। कभी मंदिर के के आसपास जंगल थे, जहां ऋषि-मुनि तप किया करते थे। जनश्रुतियों के मुताबिक इस शिव मंदिर में आगमन के दौरान गंगा नदी के उस तरफ के एक गांव में श्रीरामचंद्र जी ने रात्रि विश्राम किया था, इसीलिए इस गांव का नाम राघवपुर पड़ा। वर्तमान में राघोपुर गांव वैशाली जिले में पड़ता है।
महाभारत से जुड़ा मंदिर का इतिहास
बैकटपुर गांव के इस प्राचीन शिव मंदिर का इतिहास महाभारत के जरासंध से भी जुड़ा है। यह सच है कि जरासंध भगवान भोलेनाथ का परमभक्त था। जरासंध इसी मंदिर में रोज पूजा-अर्चना करने आता था। जनश्रुतियों के मुताबिक बैकुण्ठ नाथ के आशीर्वाद से जरासंध को मारना असंभव था। इसके पीछे मुख्य वजह यह थी कि जरासंध अपनी भुजा पर शिवलिंग की आकृति का एक ताबीज बांधा करता था। उसे भगवान शिव का वरदान था कि जब तक यह ताबीज जरासंध की भुजा पर बंधी रहेगी तबतक उसे कोई हरा नहीं सकता है। कहा जाता है कि जरासंध वध से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने उस ताबीज को छल से जरासंध की भुजा से उतरवाकर गंगा में प्रवाहित करा दिया। जरासंध की भुंजा का वह ताबीज गंगा में जिस जगह फेंका गया, उसे कौड़िया खाड़ कहा गया।
4— नीलकंठ महादेव मंदिर, गया
1587 ई. में आमेर के राजा मानसिंह गया में 45 दिनों तक पिंडदान करने के बाद फल्गु नदी पारकर शंभूपुरी पहुंचे जहां उन्होंने एक नए शहर मानपुर की स्थापना की। बता दें कि मानपुर शहर निर्माण के दौरान मानसिंह ने सबसे पहले मानगढ़ी नामक किले का निर्माण करवाया, हांलाकि यह किला मौजूद नहीं है लेकिन फल्गु के किनारे बक्सरिया टोला में इसके टीले का अस्तित्व आज भी दिखता है।
मानपुर शहर में पानी की किल्लत दूर करने के लिए मानसिंह ने सात कुएं भी बनवाए थे। इन कुओं का व्यास 20 फीट था। कुओं के इस्तेमाल किए पानी की निकासी के लिए पांच फुट चौड़ी एक नाली होती थी, जिससे जानवर पानी पीते थे।
नीलकंठ महादेव मंदिर: मानसिंह ने 19 एकड़ के विशाल परिसर में नीलकंठ महादेव मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर के गर्भगृह में काले पत्थर से निर्मित नीलकंठ महादेव की मूर्ति थी। महादेव मंदिर के परिसर में एक कुंड का भी बनवाया जिसे आज सूर्य पोखरा के नाम से जाना जाता है। भगवान सूर्य के दोनों हाथों में कमल दिखाया गया है।
मंदिर में 12 फीट लंबा व 15 फीट चौड़ा बारादरी भी था। महादेव मंदिर के रखरखाव के लिए कई मुगल सूबेदारों की तरफ से फरमान भी मिले थे। 1593 में महादेव मंदिर निर्माण कार्य पूर्ण हो गया। अफगान विद्रोहियों को पराजित करने बाद मानसिंह 1594 ई. में गया से चले गए। गौरतलब है कि अकबर ने 1581 ई. में मानसिंह को बिहार सूबे का गर्वनर नियुक्त किया था।
5— काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार, वाराणसी
डॉ. एएस अल्तेकर की 1936 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण किताब ‘हिस्ट्री ऑफ बनारस’ के मुताबिक मुगल बादशाह अकबर के कार्यकाल में राजा मानसिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनरुद्धार कराया था।
काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत डॉ. कुलपति तिवारी के अनुसार, मुंगेर (बिहार) की लड़ाई से दिल्ली लौटते वक्त राजा मानसिंह और टोडरमल काशी पहुंचे जहां उन्होंने जगद्गुरु नारायण भट्ट के निर्देशन में अपने पितरों का श्राद्ध कर्म कराया। डॉ. तिवारी कहते हैं कि उन्हें स्कंद पुराण के काशी खंड में वर्णित ज्ञानवापी महात्म्य यहां खींच लिया जिसमें भगवान शंकर ने स्वयं कहा है कि जो इस ज्ञान क्षेत्र में अपने पितरों का श्राद्ध-तर्पण कराएगा उसे गया के फल्गू तीर्थ में श्राद्ध-तर्पण से करोड़ गुना अधिक फल प्राप्त होगा।
चूंकि उन दिनों देश में अकाल पड़ा था, ऐसे में राजा मानसिंह व टोडरमल ने जगद्गुरु नारायण भट्ट से भगवान शिव से प्रार्थना कर वर्षा कराने का आग्रह किया। जगद्गुरु नारायण भट्ट विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की शर्त रखी साथ ही यह भरोसा दिलाया कि अकबर का फरमान काशी में प्राप्त होने के 24 घंटे के भीतर देश में बारिश होगी।
इसके बाद अकबर के फरमान जारी किया और फरमान मिलने के 24 घंटे के अंदर बारिश हुई। इसके बाद अकबर के मुख्य खजांची टोडरमल ने काशी विश्वनाथ मंदिर के निर्माण के लिए धन की व्यवस्था कराई। गौरतलब है कि जगद्गुरु नारायण भट्ट के निर्देशन में विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण वर्ष 1585 में कराया गया।