ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर जब बारह वर्ष का था तब उसके पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु हो गई ऐसे में फरगना राज्य चलाने की जिम्मेवारी उस पर आ पड़ी। फरगना की गद्दी पर बैठते ही बाबर की नजर समरकंद पर गई जहां उसका चाचा अहमद मिर्जा राज कर रहा था। हांलाकि समरकंद पर कब्जा करने के बारे में बाबर तभी सोच सका जब अहमद मिर्जा की मृत्यु हो गई। साल 1496 से 1512 ई. के बीच बाबर ने समरकंद पर कई हमले किए इस दौरान समरकंद तो दूर फरगना भी उसके हाथ से निकल गया।
दरअसल इस अवधि में बाबर को तुलुगमा युद्ध रणनीति में माहिर उज्बेक योद्धा शैबानी खान के कहर का सामना करना पड़ा। बता दें कि 1498 में बाबर ने फरगना जीत लिया था लेकिन 1501 में वह फिर हाथ से निकल गया। इसके बाद उसने समरकंद को भी दूसरी बार जीता लेकिन सरायपुल के युद्ध में मुहम्मद शैबानी ने बाबर तथा उसकी सेनाओं को बहुत बुरी तरह से हराया। इस युद्ध में बाबर की पूरी सेना नष्ट हो गई थी। बाबर के सैनिक दो जून की रोटी तक के लिए तरस गए थे। स्थिति यह हो गई कि बाबर की जान बचाने के लिए उसकी बड़ी बहन खानजादा बेगम ने खुद को शैबानी खान के हवाले कर दिया।
साल 1502 में बाबर खानाबदोश की जिन्दगी जीने पर मजबूर था। इस बारे में इतिहासकार फरिश्ता लिखता है कि “किस्मत के हाथ गेंद बना बाबर शतरंज के बादशाह जैसा एक से दूसरी जगह भागता और समुद्र के किनारे पर पड़े कंकड़ के समान टक्करें खाता रहा।” बाबर अपने संस्मरणों में खुद लिखता है कि “11 वर्ष का होने के बाद उसने कभी रमजान का त्यौहार एक ही जगह दो बार नहीं मनाया।”
ठीक पांच साल बाद यानि 1507 में उलूग बेग मिर्जा के नाबालिग बेटे के हाथ से काबुल की सत्ता छीनने के बाद उसने पादशाह की पदवी ग्रहण की और उसके खानाबदोशी के दिन खत्म हुए। हांलाकि अब भी वह समरकंद से शैबानी खान का तख्त उलटने के लिए मौके का इंतजार कर रहा था। साल 1510 में शैबानी खान और फारस के शासक शाह इस्माइल के बीच मर्व का युद्ध हुआ जिसमें शैबानी खान को करारी शिकस्त मिली जिससे उसकी ताकत कमजोर हो गई। इसके बाद बाबर ने फारस के शाह से इस शर्त पर मदद मांगी कि वह शाह के नाम पर खुतबा पढ़वाएगा और शाह के नाम पर सिक्के जारी करेगा। इन शर्तों के आधार पर फारस की मदद से वह समरकंद पर कब्जा करने में सफल हो गया। हांलाकि शर्तें पूरी करने में आनाकानी करने के चलते बाबर को फारस के शाह तथा स्थानीय लोगों से जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा जिससे उसे एक बार फिर से समरकंद छोड़कर भागना पड़ा, यह उसकी आखिरी कोशिश थी। इसके बाद बाबर फिर कभी समरकंद पर आक्रमण नहीं कर पाया।
बाबर का भारत की ओर रूख
उज्बेक महायोद्धा शैबानी खान से बार-बार मिली करारी शिकस्त के चलते बाबर को अपनी पैतृक गद्दी फरगना और समरकंद को प्राप्त करने का विचार छोड़कर भारत में अपना भाग्य आजमाने के लिए विवश होना पड़ा। ऐसे में बाबर ने भारत पर कितने हमले किए इसे लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। साल 1526 में हुए पानीपत युद्ध के बाद वह लिखता है कि “उसकी भारत पर हमला करने की आकांक्षा शुरू से रही लेकिन उसे पहला मौका 1519 में ही मिल पाया। 1519 में अपनी फौज लेकर रवाना हुआ और बाजौर पर कब्जा करके शुरूआत कर दी। इस वक्त से लेकर 1526 तक मैं हमेशा हिन्दुस्तान के मामलों में दिलचस्पी लेता रहा। इन सात-आठ सालों में खुद फौज लेकर पांच बार वहां गया।” बाबर की आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ से पता चलता है कि बाजौर हमले के दौरान भेरा किले को जीतने में उसने सर्वप्रथम बारूद अर्थात तोपखाने का प्रयोग किया था।
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बाबर का हिन्दुस्तान पर पांचवा आक्रमण
लोदी वंश के श्रेष्ठ शासक सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र इब्राहिम लोदी अफगान अमीरों की सर्वसम्मति से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसने गद्दी पर बैठते ही लोहानी, फारमूली एवं लोदी जातियों के शक्तिशाली सरदारों के विरूद्ध जो राज्य के अधिकारी वर्ग थे, दमन की नीति चलाई जिससे कारण न केवल उसकी शक्ति कमजोर हुई बल्कि उसे अस्थिरता और अराजकता का सामना करना पड़ा। राज्य के विभाजन के परिणास्वरूप उसके छोटे भाई जलाल खां को जौनपुर की गद्दी सौंपी गई लेकिन अंत में इब्राहिम लोदी ने जौनपुर पर भी कब्जा कर लिया।
ऐसे में उपरोक्त अफगान सरदार इब्राहिम लोदी के शासन से त्रस्त थे लिहाजा बहलोल लोदी के पुत्रों में से एक आलम खां लोदी ने सम्भवत: बाबर से मुलाकात भी की और पंजाब के सूबेदार दौलत खां लोदी के पुत्र दिलावर खां को इस निमंत्रण के साथ बाबर के पास भेजा कि वह भारत पर आक्रमण करे। बाबर को यह बताया गया कि इब्राहिम लोदी जालिम है और उसे हटाना जरूरी है। अत: बाबर को यह समझने में देर नहीं लगी कि अफगानों के बीच एकता नहीं है, इसलिए उसने भारत की तरफ कूच करने का निर्णय लिया।
बाबर नवम्बर 1525 ई. में काबुल से हिन्दूस्तान की तरफ चला। उसके आगे बढ़ते ही बदख्शां से हुमायूं तथा गजनी से ख्वाजा कलां के नेतृत्व में अतिरिक्त मुगल सेनाएं भी उससे जा मिलीं। दूसरी तरफ दौलत खां लोदी को अपनी तरफ मिलाने के लिए इब्राहिम लोदी ने कई असफल कोशिशें की लेकिन दौलत खां लोदी जो मलोन के किले में छुपा हुआ था उसने बाबर के सामने आत्मसमर्पण कर दिया हांलाकि दिलावर खां लोदी बाबर के साथ था। पानीपत के मैदान तक पहुंचने से पहले बाबर की मुगल सेना को कई छोटी-मोटी लड़ाई लड़नी पड़ी।
हुमायूं ने हिसार-फिरोजा के सूबेदार हमीद खां को हराया। मेंहदी ख्वाजा तथा मुहम्मद सुल्तान मिर्जा के नेतृत्व वाली मुगल सेना ने दाउद खां तथा हातिम खां के नेतृत्व वाली इब्राहिम लोदी की सेना को हरा दिया। इस दौरान बिब्बन जिलवानी के नेतृत्व में इब्राहिम लोदी के कुछ उमराव बाबर से जा मिले। इस प्रकार पानीपत पहुंचने तक बाबर को कई लोदी चौकियों पर कब्जा करने में सफलता मिली।
पानीपत की पहली लड़ाई (1526 ई.)
मुगल बाबर 12 अप्रैल 1526 को पानीपत (वर्तमान में हरियाणा स्थित एक नगर) पहुंचा जहां इब्राहिम लोदी पहले से ही डेरा डाले हुए था। इतनी तेज गति से चलने वाली मुगल सेना को देखकर इब्राहिम लोदी घबरा गया। दरअसल इब्राहिम लोदी ने भारत की पारम्परिक तरीके से लड़ाई के लिए कूच किया था अर्थात दो-तीन मील तक कूच करता था और फिर दो दिन तक अपनी सेनाओं के साथ आराम करता था। यदुनाथ सरकार अपनी किताब ‘मिलिट्री हिस्ट्री आफ इंडिया’ में लिखते हैं कि “इब्राहिम लोदी का फौजी खेमा एक चलते-फिरते अव्यवस्थित शहर की तरह था।”
अत: इब्राहिम लोदी की खामियों तथा उसकी स्थिति का जायजा लेकर बाबर को अपनी युद्ध रणनीति तैयार करने में तनिक भी देर नहीं लगी। चूंकि बाबर की सेनाएं पानीपत के मुख्य नगर के दक्षिण में ठहरी थीं और दाहिनी ओर से सुरक्षित थीं। इसलिए उसने खाईयां खुदवाई और गिराए गए पेड़ों की बाड़ खड़ी करके अपनी सेना के बाएं पार्श्व को सुरक्षित कर लिया।
उस्मानी विधि- बाबर ने सामने से होने वाले हमले से सुरक्षा के लिए अपनी सेना को सबसे पहले तोपों से सुसज्जित करने का निर्णय लिया। इस कार्य के लिए बाबर ने तकरीबन 700 बैलगाड़ियां मंगवाई और उनमें हर दो गाड़ियों के पहिए जानवरों के खाल से बने रस्सों से एक साथ बांध दिए। प्रत्येक दो गाड़ियों के बीच लकड़ी की तिपाईयों पर पांच या छह खालें खड़ी कर दी गईं जिनके पीछे खड़े होकर तोपचियों को गोले दागने थे। इसके अतिरिक्त इन गाड़ियों के बीचोंबीच निकास की ऐसी जगहें छोड़ी गई थीं जिनमें से होकर मुगल घुड़सवार जरूरत पड़ने पर आगे बढ़ सकते थे। चमड़े की खालों की पीछे छुपकर तोपों से दुश्मनों पर प्रहार करने की इस कला को उस्मानी विधि कहा गया। उस्मानी विधि को ‘रूमी विधि’ भी कहा जाता है। दरअसल उस्मानियों ने इस युद्ध कला का प्रयोग सफवी शासक शाह इस्माइल के खिलाफ हमले में किया था। बाबर की सेना में उस्ताद अली और मुस्तफा नामक दो उस्मानी तोपची भी मौजूद थे जो गोले दागने में माहिर थे। बाबर ने पानीपत के युद्ध में पहली बार बारूदों और तोपों का इस्तेमाल प्रयोग किया था।
तुलुगमा युद्ध पद्धति- मुगल बाबर को यह सबक याद था किस तरह से सरायपुल के युद्ध में उज्बेक योद्धा शैबानी खां ने तुलुगमा युद्ध नीति का प्रयोग कर उसकी सेना को तहस-नहस कर दिया था। इसलिए बाबर ने भी इब्राहिम लोदी के विरूद्ध पहली बार तुलुगमा युद्ध पद्धति का प्रयोग किया। दरअसल तुलुगमा युद्ध पद्धति एक बड़ी सेना को घेरने के लिए सबसे सटीक, कम नुकसानदेह और नतीजा देने वाली होती है। तुलुगमा युद्ध पद्धति के तहत सेना को तीन बड़े हिस्सों में बांट दिया जाता है- दो विशाल सैन्य दल एक दाएं पार्श्व में तथा एक बाएं पार्श्व में। सेना के पिछले हिस्से में इतमिश नाम की एक रिजर्व सेना मौजूद होती है। निर्णायक जंग के दौरान सेना का एक हिस्सा सामने से हमला करता है और बाकी हिस्से चारों तरफ से घेरकर बहुत तेजी से हमला करते हैं जिससे दुश्मन को सम्भलने का भी मौका नहीं मिलता है। यदि यह हमला आक्रमणकारी के पक्ष में रहा तो उसे नतीजे तक जारी रखा जाता है वरना हारने की स्थिति में जंग छोड़कर भाग जाना सुरक्षित विकल्प माना जाता है।
इस प्रकार पानीपत की लड़ाई में उस्मानी विधि तथा तुलुगमा युद्ध नीति का प्रयोग करते हुए बाबर खुद दाएं तथा बाएं केन्द्र की सेना का नेतृत्व सम्भाले हुए था। जबकि हुमायूं, खुसरो कोकुलताश, मेंहदी ख्वाजा, वली खाजिन, मुहम्मद कासिम, अब्दुल अजीज, मीर खलीफा, चिन तैमूर सुल्तान तथा मुहम्मद कोकुलताश उसकी सहायता के लिए डटे थे। बाबर की इस अचूक सुरक्षा व्यवस्था के मुकाबले इब्राहिम लोदी की सेना असुरक्षित थी। बाबर की सेना के अगले हिस्से से आग उगलने वाली तापों से सुरक्षा के लिए लोदी सेना के पास कुछ भी नहीं था। लोदी की सेना परम्परागत तरीके से अग्रिम, मध्य, दाएं,बाएं तथा सुरक्षित हिस्सों में विभक्त थीं।
एक अनुमान के मुताबिक इब्राहिम लोदी सेना में पचास हजार सैनिक तथा एक हजार हाथी थे जबकि बाबर की सेना में आठ से बारह हजार घुड़सवार थे जिनमें पैदल-तोपची, भारतीय मित्रों की सेनाएं, अफगान सैनिकों के झुंड तथा भारतीय धन-दौलत के लालच में आए किराए के तुर्की सैनिकों के समूह भी शामिल थे।
बाबर की सेनाएं इब्राहिम लोदी की सेनाओं को उकसाने में लगी हुईं थीं ताकि वे आगे बढ़कर हमला बोले। इसके लिए बाबर की सेनाओं ने तीरों की बौछारें की तथा लोदी के कुछ सैनिकों के सिर काटकर उन्हें विजय चिह्नों के रूप में लिए अपने अड्डों पर लौटी। परन्तु इब्राहिम अपनी खाइयों की मोर्चाबन्दी छोड़कर आगे नहीं बढ़ा। आखिरकार बाबर की सेनाओं ने 21 अप्रैल की रात लोदी के शिविर पर हमला कर दिया। इसके बाद इब्राहिम लोदी अपने मोर्चे से दूर हट गया और बाबर के बिछाए गए जाल में फंस गया।
अफगान तो पहले से तेजी से आगे बढ़े लेकिन करीब आने पर बाबर की अगली पंक्ति की सुरक्षा देखी तो एकाएक रूक गए और उनके आगे बढ़ने की रफ्तार ढीली पड़ गई और झपाटे से हमले का शुरूआती असर खत्म हो गया। आगे बढ़ने का सिलसिला रूकते ही पीछे की सेना भ्रम में पड़ गई। ठीक इसी समय बाबर की सेना ने धावा बोल दिया। बाबर की सेना की कतारें इब्राहिम की सेना के बाएं तथा दाएं हिस्सों पर टूट पड़ीं तथा पीछे से आगे बढ़कर अफगानों की सेना पर तीरों की वर्षा करने लगीं। तीरों की बौछारों के घबराकर लोदी के हाथी पीछे भागने लगे और अपनी ही सेना को रौंदने लगे।
बाबर के मध्य के सैनिकों ने दुश्मन सेना के बीच के हिस्से को इस कदर उलझा दिया कि वह किसी भी बाजू को मदद नहीं पहुंचा सके। दूसरी तरफ बाबर के दो उस्मानी तोपचियों मुस्तफा और उस्ताद अली की तोपें सामने से आग उगल रहीं थीं। इस प्रकार चारों तरफ से घिर चुकी लोदी सेना के पैर उखड़ गए और वे भागने लगे। खुद इब्राहिम लोदी अपने छह हजार सैनिकों के साथ बाबर के घेरे में आ चुका था। गलत चालों तथा घटिया हथियारों का कोई इलाज नहीं था ऐसे में इब्राहिम लोदी युद्ध स्थल पर ही मारा गया। अंत में इब्राहिम लोदी की भागती सेना का बाबर के सैनिकों ने लगातार पीछा किया और दिल्ली के फाटक तक जा पहुंची। गौरतलब है कि जिस प्रकार से सन 1192 में तराइन युद्ध के पश्चात दिल्ली सल्तनत ने जन्म लिया था ठीक उसी प्रकार से 1526 में पानीपत के युद्ध के बाद मुगल साम्राज्य अस्तित्व में आया।
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