भारत का इतिहास

The great revolution of 1857 in Rajasthan: reasons, main centers of revolt and results

राजस्थान में 1857 की महाक्रान्ति : कारण, विद्रोह के प्रमुख केन्द्र और परिणाम

1857 की महाक्रान्ति की ज्वाला ने समस्त उत्तरी भारत को अपने आगोश में ले लिया था, ऐसे में राजस्थान इस संघर्ष के प्रभाव से कैसे अछूता रह सकता था। यद्यपि राजस्थान के तकरीबन सभी शासक ब्रिटिश सत्ता के अनन्य भक्त थे बावजूद इसके राजपूताना में ब्रिटिश विरोधी तत्वों का अभाव न था।

राजस्थान में 1857 की महाक्रान्ति के कारण - 1857 की महाक्रान्ति से बहुत पहले ही जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने ब्रिटिश विरोधी तत्वों का नेतृत्व किया था और वे जीवनपर्यन्त ब्रिटिश हस्तक्षेप का विरोध करते रहे।

जब ब्रिटिश सरकार ने डूंगरपुर के महाराजा को सिहांसन से पदच्युत कर दिया तब भी जनता में अंग्रेजों के विरूद्ध असन्तोष भड़क उठा था। इसी प्रकार जयपुर में क्रोधित जनता ने कप्तान ब्लैक की हत्या कर दी। ऐसा कहा जाता है कि राज्य के उच्चाधिकारियों, राजमाता तथा कुछ लोगों के सुनियोजित षड्यंत्र के चलते कप्तान ब्लैक की हत्या हुई थी।

दरअसल कप्तान ब्लैक के हत्या की वजह राज्य प्रशासन में ब्रिटिश अधिकारियों का बढ़ता हस्तक्षेप था। इसी प्रकार से कोटा राज्य में अंग्रेजों ने झाला जालिम सिंह और उसके उत्तराधिकारियों के अनुचित दावों का समर्थन किया जिससे समस्त हाड़ा राजपूतों में असन्तोष की भावना भड़क उठी और उन्होंने मांगरोल के निकट अंग्रेजी सेना से सशस्त्र मुकाबला किया था। 

इतना ही नहीं, 1857 की महाक्रान्ति से पूर्व राजपूत सामन्तों का एक वर्ग ब्रिटिश सत्ता का विरोधी बन चुका था। अंग्रेजों ने राजपूताना में शान्ति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर जो सैनिक ब्रिगेड तैनात की थी, उनका उपयोग सामन्तों की शक्ति को कुचलने के लिए किया गया। ऐसे में राजपूत सामन्तों का असन्तुष्ट होना स्वाभाविक था। 1857 की महाक्रान्ति के समय इन सामन्तों ने ब्रिटिश सत्ता का जबरदस्त प्रतिरोध किया।

सम्भव है, इन सामन्तों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए ब्रिटिश सत्ता के साथ संघर्ष किया परन्तु उन्हें जनसाधारण का जो सहयोग मिला, उससे यह साबित होता है कि 1857 की महाक्रान्ति के पूर्व ही जनता में अंग्रेज विरोधी भावना विद्यमान थी।

राजस्थान में थी छह ब्रिटिश सैनिक छावनियां

1857 की म​हाक्रान्ति के समय राजपूताना में छह ब्रिटिश सैनिक छावनियां थीं। अजमेर से 10 मील की दूरी पर स्थित पहली छावनी थी नसीराबाद, अजमेर से तकरीबन 35 मील की दूरी पर दूसरी छावनी थी ब्यावर, अजमेर से लगभग 100 मील की दूरी पर तीसरी ब्रिटिश सैनिक छावनी थी एरिनपुरा, चौथी ब्रिटिश सैनिक छावनी देवली जो नसीराबाद से लगभग 60 मील की दूरी पर मौजूद थी।

उदयपुर से लगभग 50 मील पर पांचवी छावनी खैरवाड़ा थी। छठी ब्रिटिश सैनिक छावनी नीमच एक मात्र ऐसी छावनी थी जो कि राजस्थान से बाहर मध्यप्रदेश में स्थित थी। नसीराबाद से लगभग 120 मील की दूरी पर नीमच छावनी स्थित थी। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन ब्रिटिश छावनियों में 5000 भारतीय सैनिक थे, किन्तु किसी भी छावनी में कोई यूरोपीय सैनिक नहीं था।

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राजस्थान में महाक्रांति की शुरूआत

साल 1856 में ब्रिटिश सरकार ने पुरानी लोहे वाली बन्दूक ब्राउन बैस के स्थान पर नई एनफील्ड राइफल का प्रयोग आरम्भ किया, जिसके कारतूस में सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया था। यह 1857 की महाक्रान्ति का तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ। सबसे पहले 23 जनवरी 1857 को दमदम के 19वीं रेजीमेंट के सैनिकों ने इस कारतूस के प्रयोग को अस्वीकार कर दिया, हांलाकि वे किसी तरह शांत हो गए।

इसके बाद 29 मार्च 1857 ई. को बैरकपुर छावनी स्थित 34वीं रेजीमेंट के सैनिक मंगल पांडे ने अपने सार्जेंट हडसन को गोली मार दी तथा लेफ्टिनेंट बाग को भी हताहत कर दिया। 8 अप्रैल को मंगल पांडे को फांसी दे दी गई।

गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी की हड़प नीति से त्रस्त होकर कानपुर में अंतिम मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने बिठूर के अजीमुल्ला खां के साथ मिलकर व्यापक विद्रोह की योजना बनाई। विद्रोह का प्रतीक चिह्न कमल और रोटी रखा गया तथा क्रांति का दिन 31 मई 1857 को निश्चित किया गया।

परन्तु बैरकपुर छावनी के विद्रोह की खबर जैसे ही मेरठ की छावनी में पहुंची। मेरठ छावनी के सैनिकों ने 10 मई 1857 ई. को ही क्रांति की शुरूआत कर दी11 मई को ये सभी सैनिक दिल्ली पहुंचे और अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को 1857 की महाक्रांति का नेता स्वीकार किया। इसके बाद समस्त उत्तरी भारत में यह क्रांति आग की तरफ फैल गई।

मेरठ छावनी में हुए विद्रोह की सूचना राजस्थान के एजेन्ट टू गवर्नर जनरल पैट्रिक लारेन्स को 19 मई, 1857 ई. को प्राप्त हुई। उस समय पैट्रिक लारेन्स ग्रीष्मकालीन ब्रिटिश मुख्यालय माउण्ट आबू में था, इसलिए सूचना मिलते ही वह अजमेर पहुंचा। पैट्रिक लारेन्स ने राजपूताने के सभी शासकों को यह निर्देश दिया कि अपने-अपने राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखें और विद्रोहियों को शरण न दें। यदि कोई विद्रोही किसी राज्य में प्रवेश करे तो उसे तत्काल बन्दी बना लिया जाए।

अजमेर में भारी मात्रा में गोला-बारूद और सरकारी खजाना रखा हुआ था। संयोगवश उन दिनों अजमेर में मेरठ से आई हुई 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री की सैनिक टुकड़ी थी इसलिए पैट्रिक लारेन्स ने सुरक्षा के दृष्टिकोण से इस सैन्य टुकड़ी को नसीराबाद भेज दिया। इसके बाद ब्यावर से दो मेर रेजीमेंट टुकड़ियों को अजमेर बुलवाया।

अजमेर में नियुक्त 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की टुकड़ी जब नसीराबाद पहुंची तब सभी सैनिकों के हथियार जब्त कर लिए गए और छावनी में फर्स्ट बम्बई लांसर्स रेजीमेन्ट के द्वारा इन पर गश्त लगाई गई। ऐसा करते ही सैनिकों का अंग्रेजी हुकूमत से विश्वास उठ गया। 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के एक सैनिक बख्तावर सिंह ने अंग्रेज अधिकारी पीचयार्ड से पूछा कि क्या तुम्हे हमारे उपर विश्वास नहीं? इसके बाद उस अंग्रेज अधिकारी ने उसे संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। इसी कारण 28 मई 1857 ई. को नसीराबाद छावनी में विद्रोह हो गया।

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राजस्थान में विद्रोह के प्रमुख केन्द्र

नसीराबाद छावनी में विद्रोह  (28 मई 1857 ई.)

नसीराबाद सैन्य छावनी का निर्माण 25 जून 1818 ई. में हुआ था। राजस्थान में महाक्रांति की शुरूआत 28 मई 1857 ई. को नसीराबाद छावनी से ही हुई। नसीराबाद में विप्लव की शुरूआत होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे।

राजस्थान के एजेन्ट टू गवर्नर जनरल पैट्रिक लारेन्स ने अजमेर में नियुक्त मेरठ छावनी की 15वीं बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री को नसीराबाद भेज दिया जिससे सैनिकों के मन यह धारणा घर कर गई कि ब्रिटिश सत्ता को उन प​र विश्वास नहीं है। अजमेर में मेर रजीमेन्ट को नियुक्त किया गया जिससे 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सैनिक अंग्रेजों से नाराज हो गए।

अंग्रेज महाक्रांति की अफवाहों से भयभीत थे ऐसे में 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की सैन्य टुकड़ी जैसे ही नसीराबाद पहुंची, सभी सैनिकों के हथियार जब्त कर लिए गए और छावनी में फर्स्ट बम्बई लांसर्स रेजीमेन्ट के द्वारा इन पर गश्त लगाई गई। इसके साथ ही गोले भरकर तोपें तैयार रखी गईं। नसीराबाद में नियुक्त सैनिकों ने सोचा कि अंग्रेजों ने यह कार्रवाई भारतीय सैनिकों को कुचलने के लिए किया है। अत: उनमें विद्रोह की भावना जागृत हुई।

इन दिनों बाजारों और छावनियों में बंगाल और दिल्ली से सन्देशवाहक साधु और फकीरों का वेष बनाकर राजस्थान आए और उन्होंने चर्बी वाले कारतूसों के विरूद्ध प्रचार कर विद्रोह का संदेश प्रसारित किया जिससे अफवाहों का बाजार सर्वत्र गर्म हो गया। ऐसे में सरकार ने चर्बी वाले कारतूसों को हटा लेने के आदेश दिए जिससे सैनिकों में अत्यधिक सन्देह उत्पन्न हो गया।

27 मई 1857 ई. को 15वीं बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री के एक सैनिक बख्तावर सिंह के पूछे प्रश्नों का अंग्रेज अफसरों ने संतोषजनक जवाब नहीं दिया। इसके साथ ही यूरोपीयन सेना और कुछ तोपें मंगवाने की गुप्त योजना की जानकारी सैनिकों को मिल गई। फिर क्या था, 28 मई 1857 ई. को दिन में 3 बजे 15वीं नेटिव इन्फैन्ट्री के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया।

हमले के दौरान फर्स्ट बम्बई लांसर्स के सैनिक तितर-बितर हो गए जिससे विद्रोही सैनिकों ने तोपों को अपने कब्जे में ले लिया। विद्रोही सैनिकों के ललकारने पर 30वीं बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री के सैनिक भी उनके साथ मिल गए। नसीराबाद में क्रांतिकारियों ने मेजर स्पोटिस वुड एवं न्यूबरी नामक अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी जिससे छावनी के अंग्रेज अफसर भयभीत हो उठे और अपने बीबी-बच्चों के साथ ब्यावर की ओर भाग गए।

अंग्रेजों के नसीराबाद छावनी से भागते ही क्रांतिकारियों ने इस छावनी को बुरी तरह लूटा और प्राप्त धन को वेतन के रूप में बांट लिया। हांलाकि लेफ्निेन्ट वाल्टर और हीथकोट ने जोधपुर और जयपुर की सेनाओं की मदद से विद्रो​हियों को घेरकर खदेड़ने का प्रयत्न किया किन्तु असफल रहे। विद्रोही सैनिक 18 जून को 1857 ई.को दिल्ली पहुंचे।

विनायक दामोदर सावरकर ने नसीराबाद छावनी में हुई क्रांति का वर्णन करते हुए लिखा है कि “15वीं रेजीमेन्ट ने रणभेरी बजाकर सर्वप्रथम तोपखाने पर अधिकार कर लिया। तोपखाने पर पुन: नियंत्रण करने के लिए बम्बई से आए यूरोपीय सैनिक एवं भालाधारी सैनिक क्रांतिकारियों पर टूट पड़े किन्तु कुछ ही समय बाद भालधारी सैनिकों में देशप्रेम जाग उठा और वे लौट गए जिससे बाकी बचे अंग्रेज मारे गए।

नीमच में विप्लव (3 जून 1857 ई.)

नीमच की सैनिक छावनी राजस्थान में नहीं बल्कि मध्य प्रदेश में स्थित थी। नीमच की छावनी मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेंट शॉवर्स के नियंत्रण में थी। नसीराबाद विद्रोह की सूचना जैसे ही नीमच छावनी के अफसर कर्नल एबॉट के पास पहुंची वह भयभीत हो उठा। कर्नल एबॉट ने 2 जून 1857 ई.को परेड मैदान में सभी सैनिकों को अंग्रेजी सत्ता के प्रति वफादारी की शपथ दिलाई।

उसी समय घुड़सवार सेना के एक सैनिक मोहम्मद अली बेग ने कर्नल एबॉट से चुनौतीभरे शब्दों में कहा कि अंग्रेजों ने स्वयं अपनी शपथ का पालन नहीं किया है। क्या आपने अवध का अपहरण नहीं किया है?” इसके बाद कर्नल एबॉट ने मोहम्मद अली को समझा बुझाकर शान्त कर दिया। हांलाकि जैसे ही 3 जून को नीमच सैनिकों को नसीराबाद के विप्लव की सूचना मिली, उसी रात 11 बजे सैनिकों ने मोहम्मद अली बेग और हीरा सिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। 

विद्रो​हियों ने छावनी को घेरकर उसमें आग लगा दी। ब्रिटिश अधिकारी भयभीत होकर मेवाड़ की ओर भागे। 40 अग्रेजों को जिनमें स्त्री-पुरूष और बच्चे शामिल थे, चित्तौड़गढ़ के डूंगला गांव में रूंगाराम नामक एक किसान ने शरण दी।

नीमच छावनी के कप्तान मैकडोनाल्ड ने किले की रक्षा का प्रयास किया लेकिन किले में तैनात सेना ने विद्रोह कर दिया और सरकारी खजाना लूट लिया। विद्रोहियों ने एक सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों की हत्या कर दी।

क्रांतिकारी सैनिक नीमच छावनी को नष्ट करने के बाद चित्तौड़, हम्मीरगढ़ और बनेड़ा में सरकारी बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुंचे। शाहपुरा के शासक ने क्रांतिकारियों की खूब आवभगत की। मेवाड़ का पॉलिटिकल एजेंट शावर्स भी विद्रोहियों का पीछा करता हुआ शाहपुरा पहुंचा लेकिन वहां के शासक ने किले का दरवाजा नहीं खोला। लिहाजा शावर्स जहाजपुर होते हुए वापस नीमच आ गया और 8 जून 1857 ई. को नीमच छावनी पर दोबारा अधिकार कर लिया।

हांलाकि नीमच में कोटा, बून्दी और मेवाड़ की सेनाएं थीं परन्तु माहौल बेहद तनावपूर्ण था। दरअसल यहां यह अफवाह फैल चुकी थी कि अंग्रेज सैनिकों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए आटे में हड्डियों का चूरा मिलाते हैं। इस खबर से मेवाड़ के सैनिक अशान्त हो उठे और वे तकरीबन विद्रोह करने का निश्चय कर चुके थे। तभी मेवाड़ के सेनानायक अर्जुन सिंह ने उस आटे की रोटी बनवाकर स्वयं खाया तब जाकर सैनिकों का सन्देह दूर हुआ और वे शान्त हो गए।

देवली में विद्रोह (5 जून 1857 ई.)

नीमच छावनी के विद्रोही सैनिक जब देवली से गुजरे तो यहां पर भी 5 जून 1857 ई. को विद्रोह हो गया। नीमच के सैनिकों ने देवली की छावनी को भी आग के हवाले कर दिया। टोंक के नवाब वजीर खां ने 1857 ई. की महाक्रांति में जब अंग्रेजों का साथ दिया तब उसकी सेना की एक बड़ी टुकड़ी ने वजीर खां के मामा मीर आलम के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। देवली छावनी को नष्ट करते हुए मीर आलम की अगुवाई में तकरीबन 600 सैनिक टोंक से दिल्ली पहुंचे। 

एरिनपुरा छावनी में विद्रोह (21 अगस्त 1857 ई.)

अंग्रेजों ने 1835 ई. में जोधपुर की सेना को अकुशल बताते हुए 1836 ई. में जोधपुर लीजन सैनिक टुकड़ी का गठन किया। एरिनपुरा छावनी पहले मारवाड़ (अब पाली जिला) में स्थित थी।

जोधपुर लीजन की एक सैन्य टुकड़ी को अभ्यास के लिए माउंट आबू भेजा गया था, वहीं सैनिकों को नसीराबाद व नीमच विद्रोह की सूचना मिली। विद्रोह की सूचना मिलते ही 21 अगस्त 1857 को सैनिकों ने यूरोपीयन सै​न्य अधिकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चला दी जिसमें राजस्थान के एजेन्ट टू गवर्नर जनरल पैट्रिक लारेन्स के पुत्र अलेक्जेंडर की मृत्यु हो गई। माउंट आबू से सैनिक जब एरिनपुरा पहुंचे तो जोधपुर लीजन ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया।

जोधपुर लीजन ने 23 अगस्त 1857 ई. को सूबेदार मोती खां, सूबेदार शीतल प्रसाद व तिलकराम के नेतृत्व में विद्रोह का बिगुल बजाया। ये विद्रोही सैनिक ईडर के शिवनाथ के नेतृत्व में चलो दिल्ली और मारो फिरंगी का नारा देते हुए दिल्ली के लिए रवाना हुए। रास्ते में क्रांतिकारियों ने रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया परन्तु नारनोल में अंग्रेजी सेना ने विद्रोहियों पर आक्रमण कर दिया। इस हमले में अंग्रेज अफसर गराड़ तो मारा गया लेकिन शिवनाथ के नेतृत्व में विद्रोही सैनिकों को पराजय का सामना करना पड़ा।

आऊवा (पाली) का विद्रोह

एरिनपुरा छावनी के विद्रोही सैनिक दिल्ली जाते समय पाली पहुंचे जहां सुगाली देवी के भक्त आऊवा परगने के ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत ने विद्रोहियों का नेतृत्व स्वीकार किया। आऊवा में कामेश्वर महादेव और सुगाली देवी का मंदिर विद्रोहियों का केन्द्र था।

मारवाड़ के राजा तख्त सिंह और अंग्रेजों ने आऊवा के ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत से नाराज होकर 8 सितम्बर 1857 ई. को आऊवा पर आक्रमण कर दिया। इस हमले में कुशाल सिंह चंपावत और विद्रोहियों की सेना विजयी हुई और मारवाड़ के ओनाड़सिंह व हीथकोट मारे गए। कुशाल सिंह चंपावत के नेतृत्व में 18 सितम्बर 1857 ई. को चेलावास नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें क्रांतिकारियों ने जोधपुर के रजीडेन्ट मैक मैसन की गर्दन काटकर आऊवा किले की दीवार पर लटका दिया। यह देखकर एजेंट टू गवर्नर पैट्रिक लारेन्स वहां से भाग गया।

इस हार का बदला लेने के लिए पैट्रिक लारेन्स ने पालनपुर और नसीराबाद से सेना बुलाकर 24 जनवरी 1857 ई. को विद्रोहियों का दमन किया। कुशाल सिंह चंपावत किले की सुरक्षा का भार लांबिया के ठाकुर पृथ्वीसिंह को सौंपकर सलुम्बर की ओर चला गया। अंग्रेजों ने आऊवा में खूब लूटपाट की और सुगाली माता की मूर्ति को अपने साथ अजमेर ले आए। वर्तमान में यह मूर्ति पाली जिले के बांगड़ संग्रहालय में मौजूद है।

कुशाल सिंह चंपावत ने सलूंबर में कोठारिया के रावत जोधसिंह के घर शरण ली। 8 अगस्त 1857 को नीमच में कुशाल सिंह चंपावत ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसकी जांच हेतु मेजर टेलर आयोग गठित किया गया जिसने 10 नवम्बर 1860 ई. को कुशाल सिंह को निर्दोष साबित कर रिहा कर दिया। इसके बाद 1864 ई. में ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत की उदयपुर में मृत्यु हो गई।

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कोटा का विद्रोह (15 अक्टूबर 1857 ई.)

नीमच छावनी का विद्रोह दमन करने के बाद मेजर बर्टन अपने दो पुत्रों के संग 12 अक्टूबर 1857 ई. को कोटा लौट आया। मेजर बर्टन ने कोटा के महाराव रामसिंह द्वितीय से कहा कि वह अपने पांच-सात अधिकारियों को बर्खास्त कर उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों को सौंप दें ताकि उन्हें दण्डित किया जा सके क्यों उनका रवैया ब्रिटिश विरोधी है। यह खबर आग की तरह फैल गई।

इसके बाद कोटा के सैन्य अधिकारियों और सैनिकों ने मेजर बर्टन से बदला लेने का निश्चय किया। 15 अक्टूबर 1857 ई. को लाला जयदयाल और रिसालदार मेहराब खां के नेतृत्व में  नारायण पलटन व भवानी पलटन के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। कोटा की जनता ने राजा के महल को घेरकर महाराव रामसिंह को नजरबन्द कर दिया।

क्रांतिकारियों ने कोटा के राजा रामसिंह से अंग्रेज अफसरों को सौंपने को कहा। रामसिंह ने डरकर अंग्रेज अधिकारियों को विद्रोहियों को सौंप दिया। इसके बाद क्रांतिकारी सैनिकों ने कोटा के रेजीडेन्ट मेजर बर्टन, उसके दो पुत्रों फ्रेंक-आर्थर तथा डॉ. सेडलर व डॉक्टर काटम की हत्या कर दी। नारायण एवं भवानी नामक व्यक्तियों ने मेजर बर्टन को मारकर उसकी गर्दन को काटकर भाले पर रखकर पूरे शहर में घुमाया

15 अक्टूबर 1857 ई. को कोटा रियासत पर क्रांतिकारियों का नियंत्रण हो गया। तकरीबन 6 महीने तक कोटा रियासत पर जनता ने शासन किया। कोटा के महाराव राम सिंह ने पैट्रिक लारेन्स से सहायता की गुहार लगाई। इसके बाद लारेन्स ने जनरल रॉबर्ट के नेतृत्व में एक ब्रिटिश सेना भेजी जिसकी सहायता करौली के राजा मदनपाल ने भी की। इस प्रकार 31 मार्च 1857 ई. को ब्रिटिश सेना ने कोटा को आजाद करवायावकील जयदयाल और रिसालदार मेहराब खां को फांसी दे दी गई। मेजर बर्टन की सुरक्षा में लापरवाही बरतने के कारण रामसिंह की तोपों की सलामी 17 से घटाकर 13 कर दी गई। करौली के राजा मदनपाल को जी.सी.आई. की उपाधि एवं सर्वाधिक 17 तोपों की सलामी दी गई।

भरतपुर में विद्रोह (31 मई 1857 ई.)

1857 की महाक्रांति के समय भरत के महाराजा जसवंत सिंह नाबालिग थे अत: वहां की शासन व्यवस्था पॉलिटिकल एजेंट मोरिसन के पास थी। मोरिसन ने भरतपुर की सेना को तांत्या टोपे का मुकाबला करने के लिए अंग्रेजी सेना के साथ दौसा भेज दिया। पीछे से भरतपुर के गुर्जरों एवं मेवों ने 31 मई 1857 ई. को विद्रोह कर दिया परिणामस्वरूप राज्य में नियुक्त अंग्रेज अधिकारी मोरिसन को भरतपुर छोड़कर आगरा जाना पड़ा।

अजमेर में विद्रोह- 9 अगस्त 1857 ई. को अजमेर के केन्द्रीय कारागार के कैदियों ने विद्रोह कर दिया जिसमें से 50 कैदी जेल से निकल भागे।

टोंक में विद्रोह

1857 की महाक्रांति में टोंक का नवाब वजीर खां अंग्रेजों के साथ था। जबकि उसकी सेना का एक बड़ा हिस्सा नवाब के मामा मीर आलम खां के नेतृत्व में विद्रोहियों के साथ में था। टोंक रियासत के 600 सैनिक मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की सहायतार्थ दिल्ली पहुंचने में सफल हो गए। टोंक के एक सामंत नासिर मुहम्मद खां ने तात्या टोपे का साथ दिया और टोंक पर अपना अधिकार कर लिया। बाद में जयपुर के पॉलिटिकल एजेंट ईडन ने उसको मुक्त करवाया।

धौलपुर में विद्रोह (27 अक्टूबर 1857 ई.)

धौलपुर के महाराजा भगवंत सिंह अग्रेजों के स्वामीभक्त थे। 1857 ई. के अक्टूबर महीने में ग्वालियर और इंदौर से आए तकरीबन 5000 विद्रोही सैनिकों ने धौलपुर राज्य में प्रवेश किया। धौलपुर राज्य की सेना और कई वरिष्ठ अधिकारी क्रांतिकारियों से मिल गए। इसके बाद गुर्जर देवा के नेतृत्व में सभी विद्रोहियों ने 27 अक्टूबर 1857 ई. को राज्य पर अधिकार कर महाराजा भगवंत सिंह को कैद कर लिया। परन्तु 2 महीने बाद पटियाला नरेश की सेना ने दिसम्बर महीने में धौलपुर को विद्रोहियों से मुक्त करवाया।

परिणाम- उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राजस्थान में 1857 ई. की महाक्रांति कोई संयोग नहीं बल्कि अंग्रेजी शासन के विरूद्ध सर्वव्यापी रोष का परिणाम थी। आऊवा (पाली) और कोटा में स्थानीय कारणों से विद्रोह हुआ परन्तु नसीराबाद और ​एरिनपुरा में विद्रोह का स्वरूप देशव्यापी था। टोंक व कोटा की जनता ने भी इस महाक्रांति में भाग लिया। इस महाक्रांति में सर्वाधिक बलिदान देने वाली आमजनता ही थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि क्रांतिकारियों के साथ राजस्थान की जनता भी अंग्रेजों से अपनी मातृभूमि को आजाद कराना चाहती थी। 

अंग्रेजों का साथ देने वाले राजस्थान के शासक (1857 की महाक्रांति)

1-सरदार सिंह (बीकानेर)

सरदार सिंह एकमात्र ऐसा शासक था जिसने क्रांति के समय स्वयं सैनिक लेकर विद्रोहियों के दमन हेतु पंजाब के हांसी, सिरसा और हिसार आदि क्षेत्रों में पहुंचा। पंजाब के बाडलू में सरदार सिंह की सेना और विद्रोहियों में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें विद्रोही हार गए लेकिन बीकानेर की सेना के कई अधिकारी और सैनिक मारे गए। अंग्रेजों ने सरदार सिंह की इस मदद के बदले उसे टिब्बी परगने के 41 गांव उपहार में दिए

2-बन्ने सिंह (अलवर)

1857 की महाक्रांति के दौरान विद्रोहियों ने जब अंग्रेजों और उनके परिजनों को आगरा किले में कैद कर लिया था तब शासक बन्ने सिंह उन्हें मुक्त कराने के लिए एक बड़ी सेना के साथ अलवर से रवाना हुआ। परन्तु अचनेरा (भरतपुर) के पास ही विद्रोहियों ने बन्ने सिंह की सेना को शिकस्त देते हुए उसका सारा खजाना लूट लिया।

3-मदनपाल (करौली)

जब क्रांतिकारियों ने कोटा के महाराव रामसिंह द्वितीय को किले में नजरबन्द कर दिया तब करौली के राजा मदनपाल ने अंग्रेजी सेना की मदद की और रामसिंह को आजाद करवाया। इस कार्य के लिए अंग्रेजों ने मदनपाल को जी.आई.सी. की उपाधि दी और करों में विशेष छूट के साथ ही 17 तोपों की सलामी भी दी।

4-तख्त सिंह (मारवाड़)

विद्रोहियों को शरण देने वाले आऊवा के ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत के विरूद्ध मारवाड़ (जोधपुर) के शासक तख्त सिंह ने पैट्रिक लारेन्स और मैक मैसन के कहने पर मारवाड़ के सेनापति औनाड़ सिंह पंवार एवं राजमल लोढ़ा के नेतृत्व में 1000 सैनिक, 12 तोपें व एक लाख रुपए नकद देकर आऊवा पर आक्रमण किया था।

5- भगवंत सिंह (धौलपुर)

1857 की महाक्रांति के दौरान जब ग्वालियर और इंदौर के तकरीबन 5000 क्रांतिकारी धौलपुर राज्य में प्रवेश कर गए तब भगवंत सिंह ने अपनी सेना के मदद से उन्हें बाहर खदेड़ दिया।

6- रामसिंह (जयपुर)

1857 ई. की महाक्रांति में जयपुर के शासक रामसिंह ने अंग्रेजों की तन-मन-धन से सेवा की। बदले में अग्रेंजों ने राम सिंह को कोटपूतली नामक स्थान दिया और सितार--हिन्द की उपाधि से विभूषित किया।

7- स्वरूप सिंह (मेवाड़)

नीमच छावनी से जान बचाकर भागे अंग्रेजों और उनके परिजनों को जब चित्तौड़गढ़ ​जिले के डूंगला गांव में बन्दी बना लिया गया तब मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेंट शावर्स के कहने पर मेवाड़ के महाराणा स्वरूप सिंह ने इन्हें स्वतंत्र कराकर उदयपुर स्थित पिछोला झील के जगमंदिर में सुरक्षित रखा।

राजस्थान के उपरोक्त शासकों के अतिरिक्त झालावाड़ के शासक पृथ्वीसिंह, सिरोही के महारावल शिवसिंह, प्रतापगढ़ के शासक दलपत सिंह ने भी 1857 की महाक्रांति के दौरान अंग्रेजों की भरपूर मदद की। इ​तिहासकार प्री. कार्ड लिखता है कि यदि राजस्थान के राजाओं ने देशभक्त क्रांतिकारियों को नेतृत्व प्रदान किया होता तो स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास कुछ और ही होता।

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