1857 में हुए प्रथम भारतीय मुक्ति संग्राम के दौरान जिस प्रकार से मेरठ में क्रांति का नेतृत्व मंगल पांडे, झांसी में रानी लक्ष्मीबाई और कानपुर तात्या टोपे के हाथों में था। साथ ही दिल्ली में अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने भी अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आजादी का उद्घोष कर दिया था। ठीक उसी प्रकार से बिहार में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों का नेतृत्व बाबू कुंवर सिंह के हाथों में था जो भोजपुर ज़िले (आरा) के थे, जिन्होंने 80 साल की उम्र में अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिए थे। आजादी की पहली लड़ाई के वीर योद्धा और बिहार में जगदीशपुर (आरा) के राजा कुंवर सिंह को लोग आज भी आदरपूर्वक ‘बाबू साहब’ और ‘तेगवा बहादुर’ के नाम से संबोधित करते हैं।
बता दें कि बाबू कुंवर सिंह की जमींदारी(जगदीशपुर) काफी बड़ी थी लेकिन अंग्रेजों की हड़प नीति के चलते उनकी जमींदारी जाती रही। परिणामस्वरूप बाबू कुंवर सिंह दिवालियेपन की स्थिति में पहुंच गए थे। बिहार में 1857 के क्रांतिकारियों ने सबसे पहला विद्रोह दानापुर में किया। इसके बाद विद्रोही सिपाहियों ने दानापुर पर अधिकार करके वीर कुंवरसिंह को बुलवा लिया तथा इस संघर्ष का नेतृत्व कुंवर सिंह को सौंप दिया। इसके बाद 25 जुलाई 1857 को वीर कुंवर सिंह ने दानापुर के सिपाहियों के साथ मिलकर आरा शहर पर कब्ज़ा कर लिया।
‘1857: बिहार में महायुद्ध’ नामक पुस्तक में वर्णित है कि कालपी से कानपुर तक विद्रोही सैनिकों का कब्जा नाना साहब, तात्या टोपे और वीर कुंवर सिंह की संयुक्त रणनीति थी। ऐसे में तात्या टोपे ने कालपी की ओर कूच किया तथा नाना साहब कानपुर में उनका इंतजार कर रहे थे। कुंवर सिंह की सेना को कालपी में दक्षिण की ओर से आगे बढ़ना था लेकिन संयोगवश कानपुर में ही विद्रोही सेनाओं को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
इसके बाद वीर कुंवर सिंह कालपी से सीधे लखनऊ पहुंचे तथा तकरीबन 45 दिन तक मार्टिनियर कॉलेज के भवन को अपने कब्जे में रखा। इससे बेगम हजरत महल इतनी खुश हुईं कि उन्होंने फौज संगठित करने में बाबू कुंवर सिंह की मदद की। इसके बाद कुंवर सिंह ने 22 मार्च 1858 को कर्नल स्लीमैन को हराकर आजमगढ़ पर अधिकार कर लिया। ऐसे में अंग्रेजों ने आजमगढ़ को मुक्त कराने के लिए गाजीपुर से कर्नल डेम्स और इलाहाबाद से लार्ड मार्क कीर को भेजा। वीर कुंवर सिंह की सेना ने इन दोनों अंग्रेज सैन्याधिकारियों को बुरी तरह से पराजित कर दिया। इसके बाद लखनऊ से एडवर्ड लुगार्ड को आजमगढ़ भेजा गया।
यद्यपि इस लड़ाई में कुंवर सिंह को हार मिली बावजूद इसके अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुंची थी। ऐसे में बाबू कुंवर सिंह ने जगदीशपुर लौटने का मन बना लिया। उनके जगदीशपुर लौटने की खबर से अंग्रेजों में दहशत पैदा हो गई थी, उनकी घेराबंदी करने के लिए गोरखपुर, गाजीपुर, बलिया तथा बनारस से लेकर छपरा तक अंग्रेज सैनिकों को तैनात किया गया था। इन सबके बावजूद कुंवर सिंह ने बलिया में 21 अप्रैल 1858 को शिवपुरघाट से गंगा नदी को पार किया।
गंगा नदी पार करते समय उनके बांह व जांघ में गोली लगी। बांह में जहर नहीं फैले इसके लिए उन्होंने अपनी जख्मी बायीं भुजा को काटकर गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। 22 अप्रैल को कुंवर सिंह 2000 पैदल सैनिकों और घुड़सवारों के साथ जगदीशपुर पहुंचे, इससे पहले क्रांतिकारी जगदीशपुर के जंगलों में एकत्र हो चुके थे। गोरिला युद्ध में माहिर बाबू वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में कुशल रणनीति की झलक स्पष्ट रुप से दिखायी देती है।
बता दें कि वीर कुंवर सिंह का मुकाबला करने के लिए ली ग्रांड की अंग्रेजी सेना शाम को आरा से रवाना हुई। अगले दिन सुबह यानि 23 अप्रैल को जगदीशपुर से दो मील दूर दुलौर गांव में अंग्रेजी सैनिकों का क्रांतिकारी सैनिकों से आमना-सामना हुआ। थोड़ी ही देर में विद्रोही सिपाही पीछे हट गए ऐसे में ली ग्रांड और अंग्रेजी सेना भी उनका पीछा करते हुए जंगलों में चली गई। ली ग्रांड ने अपनी सेना के साथ जैसे जंगल में प्रवेश किया, कुंवर सिंह की सेना उन पर चारो तरफ से टूट पड़ी।
इस जल्दबाजी में अंग्रेजी सेना में आतंक फैल गया। ली ग्रांड ने पीछे हटने का आदेश दिया। अंग्रेज सैनिक हड़बड़ी में भागने लगे। प्रत्येक अंग्रेज सैनिक अपनी जान बचाकर भाग रहा था। जंगल से पीछे हटते समय ली ग्रांड के सीने में गोली लगी और उसकी मौत हो गई। डी क्लार्क और लेफ्टिनेंट कर्नल मैसे लू के चलते गिर पड़े थे और दुश्मनों के रहमों करम पर छोड़ दिए गए। इस युद्ध में अंग्रेजी सेना को करारी हार का सामना करना पड़ा साथ ही भारी क्षति भी पहुंची थी। हांलाकि बाबू कुंवर सिंह अपने महल लौट आए लेकिन तीन दिन बाद यानि 26 अप्रैल 1858 को बाबू साहब वीरगति को प्राप्त हुए। बाबू कुंवर सिंह के शहीद होने के बाद भी उनके छोटे भाई अमर सिंह ने जगदीशपुर की स्वतंत्रता बचाए रखी।
बाबू कुंवर सिंह से अंग्रेजी सेना को मिली पराजय का वर्णन इतिहासकार चार्ल्स बाल ने कुछ इस प्रकार से किया है- “वास्तव में जो कुछ हुआ, उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है। युद्ध का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू कर दिया। अफसरों के आदेश की किसी ने परवाह नहीं की। चारों ओर चिल्लाने और रोने के सिवा कुछ नहीं था। रास्ते में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह गर्मी से गिरकर मर गए। अस्पताल पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर रखा था। 16 हाथियों पर सिर्फ हमारे घायल साथी लदे हुए थे। हमारा इस जंगल में आना ऐसी ही हुआ, जैसा पशुओं का कसाई खाना में जाना। हम वहां केवल वध होने के लिए गए थे”।
कुंवर सिंह के निधन के बारे में विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है कि “क्या कोई इससे भी पावन मृत्यु है, जिसकी अपेक्षा कोई राजपूत करेगा।” सुंदरलाल ने लिखा है कि “वीर कुंवर सिंह की मृत्यु के समय स्वाधीनता का ‘हरा ध्वज’ उनकी राजधानी पर फहरा रहा था। पराधीन भारत को ब्रिटिश सत्ता के बंधन से मुक्त करने का जो अदम्य संकल्प वृद्धावस्था में बाबू कुंवर सिंह ने लिया था, वो भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है।”
भोजपुरी लोकगीतों में भी अमर हैं बाबू कुंवर सिंह
भोजपुरी लोकगीतों में भी वीर कुंवर सिंह की कहानियां युवकों में जोश पैदा कर देती हैं, जैसे होली के मौके पर गाया जाने वाला गीत- ‘बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर बंगला में उड़े ला अबीर’...झूमने पर मजबूर कर देता है। शिवजी शाहाबादी के गीत- ‘भोजपुर भोज के नगरी हव गंगा जी क कगड़ी, कुंवर सिंह रहलन एहिजे सुनल उन कर जिक्री….और अनिल कुमार तिवारी के गीत बाबू वीर कुंवर सिंह के बाटे बलिहरिया तलवरिया लेके न….पर श्रोता झूम उठते हैं। बाबू कुंवर सिंह के गंगा पार करते समय का वर्णन हरिहर सिंह ने इस गीत के माध्यम से किया है- मैया सुमिरों विन्ध्याचल भवनियां हो ना, मैया तूही कर आजु बेड़ा परवा हो ना...। अमर कमर कसि गए, जहां बैठी महरानी, भीतर भवन अनूप जहां सब चतुर सयानी... .। गौरतलब है कि वीर बाबू कुंवर सिंह की वीर गाथा से जुड़े लोकगीत बिहार राज्य खासकर भोजपुर में आज भी लोगों की जुबां पर है।