भारत का इतिहास

Vijayanagara Empire: Administration, Economy, Society, Education and Entertainment

विजयनगर साम्राज्य : प्रशासन, अर्थव्यवस्था, समाज, शिक्षा व मनोरंजन

विजयनगर साम्राज्य का शासन राजतंत्रात्मक था। राजा को राय कहा जाता था, वह ईश्वर के समतुल्य माना जाता था। विजयनगर साम्राज्य में प्राचीनकाल की तरह राजाओं का भव्य राज्याभिषेक किया जाता था। राजा के चयन में मंत्रियों तथा नायकों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती थी। राज्याभिषेक के समय विजयनगर के राजा वैदिक राजाओं की तरह पालन एवं निष्ठा की शपथ लेते थे। 
विजयनगर के शासक अच्युतदेवराय ने अपना राज्याभिषेक तिरूपति मंदिर में करवाया था। विजयनगर के राजा अपने जीवनकाल में ही अपने उत्त​राधिकारियों को नामजद कर देते थे। युवराज के राज्याभिषेक को युवराज पट्टाभिषेकम् कहा जाता था। युवराज के अल्पायु होने पर संरक्षक शासक की नियुक्ति बहुत हद तक विजयनगर साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुई।

विजयनगर का सम्राट ही सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। राजा की शक्ति पर अकुंश लगाने के लिए राजपरिषद एक शक्तिशाली माध्यम थी। राज्य के सम्पूर्ण मामलों में राजा अपनी राजपरिषद से ही परामर्श लेता था।

1. राजपरिषद

विजनगर साम्राज्य का राजपरिषद एक विशाल संगठन था जिसमें नायकों, सामन्तों, शासकों, धर्माचार्यों, व्यापारियों, विद्वानों, कलाकारों, संगीतकारों, व्यापारियों तथा विदेशी राज्यों के राजदूतों को शामिल करके गठित किया जाता था।

2. मंत्रिपरिषद

राजपरिषद के केन्द्र में मंत्रिपरिषद होती थी, जिसका प्रमुख अधिकारी महाप्रधानी होता था। मंत्रिपरिषद की सभाएं वेंकटविलास मण्डप नामक सभागार में आयोजित की जाती थीं। मंत्रिपरिषद में सम्भवत: 20 सदस्य होते थे। मंत्रिपरिषद के अध्यक्षों को सभा नायक कहा जाता था।

विद्वान तथा राजनीति में निपुण व्यक्तियों को ही मंत्रिपरिषद का सदस्य बनाया जाता था। विजयनगर साम्राज्य के संचालन में मंत्रिपरिषद सबसे महत्वपूर्ण संस्था थी। राजा और युवराज के बाद केन्द्र का सबसे प्रधान अधिकारी महाप्रधानी होता था। केन्द्र में उच्चाधिकारियों (मंत्रियों) की विशेष श्रेणी होती थी जिन्हें दण्डनायक कहा जाता था।

विजयनगर का सबसे प्रसिद्ध राज्योत्सव महानवमी था। महानवमी के अवसर पर राजा की उपस्थिति अनिवार्य होती थी। विजयनगर में सामाजिक एवं धार्मिक विषयों पर निर्णय देने वाले समयाचार्य अथवा देशरि कहलाते थे।

केन्द्रीय सचिवालय

केन्द्रीय सचिवालय में कई विभाग बंटे हुए थे। इसमें रायसम (सचिव), कर्णिकम (अकाउन्टेंट) जैसे अधिकारी होते थे। विजयनगर सम्राट के मौखिक आदेशों को लिपि​बद्ध करने का काम रायसम करता था। जबकि कर्णिकम लेखाधिकारी होता था। केन्द्रीय सचिवालय में नियुक्त ब्राह्मण अधिकारी तेलगु नियोगी होते थे।

विभिन्न विभागों से संबंधित अधिकारियों के नाम भी भिन्न थे, जैसे- शाही मुद्रा रखने वाला अधिकारी मुद्राकर्ता तथा मानेय प्रधान-गृहमंत्री आदि। टकसाल विभाग को जोरीखाना कहा जाता था।

प्रान्तीय प्रशासन

विजयनगर साम्राज्य प्रशासनिक दृष्टिकोण से 6 प्रान्तों में विभाजित था।

1. प्रान्त - राज्य कहलाते थे।

2. मण्डल - प्रान्तों के अर्न्तगत कमिश्नरी होती थीं।

3. कोट्टम या वलनाडु - जिले कहलाते थे।

4. नाडु - परगना अथवा तहसील जो कोट्टम अथवा वलनाडु के अन्तर्गत थे।

5. मेलाग्राम - नाडुओं के अर्न्गत पचास गावों का समूह।

6. स्थल एवं सीमा - कुछ गांवों के समूह होते थे।

विजयनगर साम्राज्य में प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई उर अथवा ग्राम थी। सामान्यत: प्रान्तों में राजपरिवार के व्यक्तियों को ही (कुमार या राजकुमार) गवर्नर (प्रान्तपति) के रूप में नियुक्त किया जाता था। कुछ प्रान्तों में कुशल नायकों एवं दण्डनायकों को भी गवर्नर के रूप में नियुक्त किया जाता था।

प्रान्तों में गवर्नरों को स्वायत्तता प्राप्त थी। केन्द्रीय सरकार प्रान्त के प्रशासनिक मामलों में सामान्यत: हस्तक्षेप नहीं करती थी। गवर्नरों को प्रान्तों में सिक्के संचालित करने, नए कर लगाने, पुराने कर माफ करने तथा भूमिदान देने आदि का अधिकार प्राप्त था। संगम युग में गवर्नर के रूप में शासन करने वाले राजकुमारों ने उरैयर की उपाधि धारण की। प्रान्तों में कानून एवं प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी प्रान्तीय गवर्नरों की ही थी। 

नायंकार व्यवस्था

प्रान्तीय प्रशासन व्यवस्था के सन्दर्भ में नायकार व्यवस्था उसका महत्वपूर्ण अंग थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, “विजयनगर साम्राज्य में सेनानायकों को नायक कहा जाता था।कुछ अन्य इतिहासकारों के अनुसार,  “नायक वस्तुत: भू-सामन्त थे जिन्हें वेतन के बदले अथवा अधीनस्थ सेना के रख-रखाव के लिए विशेष भूखण्ड अमरम् प्रदान की जाती थी। अमरम् भूमि का उपभोग करने के कारण इन्हें अमरनायक भी कहा जाता था।

16वीं शताब्दी में नायकों की संख्या तकरीबन 200 थी और इन्हें सबसे अधिक तमिलनाडु में नियुक्त किया गया था। नायक को विशेष भूखण्ड अमरम् से प्राप्त आय के एक अंश को केन्द्र में जमा कराना पड़ता था। इसी भूमि की आय से राजा की मदद के लिए एक सेना रखनी पड़ती थी। नायकों के अधीन जो सरदार होते थे उन्हें पोलीगर (पलायगार) कहते थे। पोलीगर भूस्वामी होते थे, ये अर्द्धस्वतंत्र सामन्त के समान थे। नायंकार व्यवस्था ही विजयनगर के विनाश का कारण बनी।

आयगार व्यवस्था

आयगर व्यवस्था के तहत एक स्वतंत्र ईकाई के रूप में प्रत्येक ग्राम को संगठित किया जाता था, जिस पर शासन के लिए बारह शासकीय अधिकारियों को नियुक्त किया जाता था। इन बारह शासकीय अधिकारियों के समूह को आयगार कहा जाता था। इन अधिकारियों की नियुक्ति सरकार करती थी। आयगारों के पद आनुवांशिक होते थे। आयगारों को वेतन के बदले लगान एवं कर मुक्त भूमि प्रदान की जाती थी।

आयगारों की जानकारी के बिना सम्पत्ति का हस्तांन्तरण और भूमि अनुदान नहीं किया जा सकता था। बारह आयगार ग्रामीण कर्मचारियों में कर्णिकम् गांव का अकाउन्टेंट अथवा प्रधान लिपिक होता था। ग्राम के पुलिसकर्मी अथवा चौकीदार को तलारी कहा जाता था। 

विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था

कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में लगान ही आय का प्रमुख साधन था। इसके अतिरिक्त सम्पत्ति कर, व्यापारिक कर, व्यावसायिक कर, उद्योग कर, सामाजिक एवं सामुदायिक कर तथा अर्थदण्ड आदि आय के अन्य स्रोत थे।

विजयनगर साम्राज्य में भूराजस्व व्यवस्था बहुत व्यापक थी। भूमि को सिंचाईयुक्त या सूखी जमीन के रूप में वर्गीकृत किया जाता था। भूमि से होने वाली पैदावार तथा उसकी किस्म के आधार पर लगान का निर्धारण किया जाता था।

ब्राह्मणों की स्वामित्व वाली भूमि से उपज का 20वां भाग तथा मंदिरों की भूमि से उपज का 30वां भाग लगान के रूप में वसूल किया जाता था। राज्य सरकार उपज के छठें भाग को भूमिकर के रूप में वसूल करती थी। लगान के अतिरिक्त  मकान कर, पशु कर के साथ-साथ गड़ेरियों, धोबी, मनोरंजन करने वाले तथा नाईयों पर भी कर’ (tax) लगता था।

सामाजिक एवं सामुदायिक करों में विवाह कर वर एवं कन्या, दोनों पक्षों से वसूला जाता था। इस काल में भिखारियों, मंदिरों तथा वेश्याओं पर भी कर लगाए जाते थे। शिष्ट नामक कर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। केन्द्रीय राजस्व विभाग को अठावने (अस्थवन या अथवन) कहा जाता था।

भूमि मापने वाले मापकों अथवा जरीबों के नाम थे -नदलक्कुल, राजव्यंकोल और गंडरायगण्डकोल।  ऐसे ग्राम जिनकी भूमि राज्य के प्रत्यक्ष नियंत्रण में थी, इन्हें भंडारवाद ग्राम कहा जाता था। इन ग्रामों के किसान राज्य को कर देते थे।

उंबलि - जिन ग्रामों को कुछ विशेष सेवाओं के बदले लगान मुक्त भूमि दी जाती थी, ऐसी भूमि को उंबलि कहते थे।

रत्त (कोडगै) - युद्ध में शौर्य प्रदर्शित करने वाले अथवा युद्ध में मृत लोगों के परिजनों को जो भूमि दी जाती थी, वह रत्त कहलाती थी।

कुट्टगि - विजयनगर में ब्राह्मण, मंदिर व बड़े भू स्वामी स्वयं खेती नहीं करते थे। ऐसे में पट्टे पर दी गई इस भूमि को कुट्टगि कहा जाता था। इस व्यवस्था के तहत किसान भूस्वामी को नकद अथवा उपज का अंश प्रदान करता था।

वारम व्यवस्था - भूस्वामी एवं पट्टीदार के बीच उपज की हिस्सेदारी को वारम व्यवस्था कहते थे।

कुदि - खेती में लगे कृषक मजदूर कुदि कहलाते थे।

प्रशासन की तरफ से सिंचाई का कोई प्रबन्ध नहीं था। केवल व्यक्तिगत प्रयास द्वारा ही सिंचाई के साधनों का विकास किया जाता था। विजयनगर काल में उपवनों का खूब विकास हुआ। पश्चिमी तटों पर व्यापक रूप से मसाले उगाए जाते थे। नील, कपास, कालीमिर्च तथा नारियल आदि का व्यापक रूप से उत्पादन होता था।

मुद्रा व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य की मुद्रा प्रणाली भारत की सर्वाधिक प्रशंसनीय मुद्रा प्रणालियों में से थी। विजयनगर का प्रख्यात स्वर्ण सिक्का वराह था, जिसे विदेशी यात्रियों ने हूण, परदौस या पगोडा के रूप में उल्लेख किया है।

स्वर्ण सिक्का वराह भारत एवं विश्व के सम्पूर्ण व्यापारिक नगरों में स्वीकार किया जाता था। वराह का वजन 52 ग्रेन होता था। सोने के छोटे सिक्के को प्रताब तथा फणम कहा जाता था। चांदी के छोटे सिक्के तार कहलाते थे। विदेशी मुद्राओं में पुर्तगाली क्रुजेडो, फारसी दीनार तथा इटली के फ्लोरिन और डुकेट तटीय क्षेत्रों में प्रचलित थे।

सैन्य व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य में सैन्य विभाग को कन्दाचार कहते थे। सेनापति को दण्डनायक कहते थे। दुर्गों की देखभाल करने वाले ब्राह्मण सैन्य अधिकारियों को दुर्ग दानिक कहा जाता था। सेना का मुख्य अंग अश्व सेना थी। तोपखाने का प्रयोग भी होने लगा था।

उच्च किस्म के घोड़ों की आपूर्ति पुर्तगालियों द्वारा की जाती थी। सेना में मुस्लिम सैनिकों की नियुक्ति की जाने लगी थी। प्रान्तों में विशेष पुलिस अधिकारी कवलिकार (कवलगार) भी होते थे।

शिक्षा एवं मनोरंजन

विजयनगर नरेश मठों को प्रश्रय देते थे। इन्होंने असंख्य मठों तथा अग्रहारों की स्थापना की। ऐसे में विजयनगर साम्राज्य में मंदिर, मठ एवं अग्रहार ही विद्या ​के केन्द्र थे। अग्रहारों में मुख्यत: वेदों की शिक्षा दी जाती थी। इतिहास, काव्य, नाटक, आयुर्वेद, शास्त्र एवं पुराण अध्ययन के लोकप्रिय विषय थे।

मनोरंजन के क्षेत्र में नाटक और यक्षज्ञान (मंच पर संगीत द्वारा अभिनय) इस काल में बेहद लोकप्रिय थे। बोमलाट एक छाया नाटक था जिसका आयोजन मण्डपों में किया जाता था।  शतरंज एवं पासा खेल बहुत लोकप्रिय था। कृष्णदेवराय स्वयं बड़े शतरंज प्रेमी थे। विजयनगर का राष्ट्रीय खेल था शतरंज, इसमें योग्यता प्राप्त करने वाले को राज्य की तरफ से पारितोषिक मिलता था।

सामाजिक व्यवस्था

विजयनगर की सामाजिक व्यवस्था शास्त्रीय परम्पराओं पर आधारित थी। भारतीय इतिहास में विजयनगर अंतिम साम्राज्य था जो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित संरचना को सुरक्षित रखना अपना कर्तव्य समझता था।

भारतीय इतिहास में विजयनगर अंतिम साम्राज्य था जो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित संरचना को सुरक्षित रखना अपना कर्तव्य समझता था। समाज के चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) में ब्राह्मण सर्वप्रमुख थे। ब्राह्मणों को मृत्युदण्ड नहीं दिया जाता था। विजयनगर के शासन एवं सेना में ब्राह्मणों को उच्च पद प्राप्त थे।  ब्राह्मणों को दुर्गदानिक (किले का अधिकारी) नियुक्त किया जाता था।

विजयनगर का अधिकांश व्यापार शेट्टियों एवं चेट्टियों के हाथों में था। चेट्टि बहुत अच्छे लिपिक एवं कार्यों में दक्ष थे। चेट्टियों के समतुल्य व्यापार करने वाले दस्तकार वर्ग को वीरपांचाल कहा जाता था। जुलाहा वर्ग को कैकोल्लार, चपरासी को कंबलत्तर तथा कलाबाज वर्ग को डोंबर कहा जाता था। विजयनगर काल में उत्तर भारत से बहुत बड़ी संख्या में लोग दक्षिण में आकर बस गए थे, इन्हें बडवा कहा जाता था।

जुलाहों का मंदिर प्रशासन एवं करों के आरोपण में बहुत बड़ा योगदान था। मनुष्यों के क्रय-विक्रय को बेस-बाग कहा जाता था। विजयनगर में दास प्रथा प्रचलित थी। निकोली कोण्टी ने लिखा है कि विजयनगर साम्राज्य में विशाल संख्या में दास हैं। जो कर्जदार अपना ऋण अदा नहीं कर पाते हैं उन्हें सर्वत्र ऋणदाता द्वारा अपना दास बना लिया जाता है।

विजयनगर युगीन समाज में स्त्रियों की स्थिति बेहद सम्मानजनक थी। संगीत एवं नृत्य स्त्रियों के शिक्षा के प्रमुख अंग थे, यद्यपि स्त्रियां मल्लयोद्धा, ज्योतिषी, भविष्यवक्ता, अंगरक्षिकाएं, सुरक्षाकर्मी, लेखाधिकारी, लिपिक एवं संगीतकार होती थीं। यहां तक कि स्त्रियां युद्धक्षेत्र में भी जाती थीं।

भारतीय इतिहास में विजयनगर ही एकमात्र साम्राज्य था जहां स्त्रियों को बड़ी संख्या में ऊंचे पदों पर नियुक्त किया गया था। कन्यादान को आदर्श विवाह माना जाता था। राजपरिवार एवं सामन्त वर्गों में एक पत्नीत्व की प्रथा थी।

मंदिरों में देवपूजा के लिए नियुक्त स्त्रियों को देवदासी कहा जाता था। इन्हें आजीविका के लिए नियमित वेतन अथवा भूमि दान दी जाती थी। विजयनगर के सामाजिक जीवन में गणिकाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान था। कुछ गणिकाएं मंदिरों से सम्बद्ध थीं और कुछ स्वतंत्र जीवन-यापन करती थीं। सार्वजनिक उत्सवों पर समस्त गणिकाएं अनिवार्यत: भाग लेती थीं। विजयनगर राज्य में पुलिस का वेतन वेश्यालयों से होने वाली आय से दिया जाता था। वेश्यालयों से होने वाली आय को सोनम कहा जाता था।

समाज में पर्दा प्रथा प्रचलित नहीं थी। विधवाओं का जीवन बहुत ही हेय और अपमानजनक माना जाता था। मृतपति के साथ सहगमन को महाप्रयाण कहा जाता था। विजयनगर में सती प्रथा व्याप्त थी। विदेशी यात्रियों में बार्बोसा, नूनिज, सीजर फ्रेडरिक, पियत्रो देलावाले ने सती प्रथा का आखों देखा वर्णन किया है।

विदेशी यात्री डूआर्ट बार्बोसा ने लिखा है कि लिंगायतों, चेट्टियों और ब्राह्मणों में सती प्रथा प्रचलित नहीं थी। लिंगायतों में विधवाओं को जीवित दफना दिया जाता था। हांलाकि राज्य व्यवहारिक रूप से सती प्रथा को प्रश्रय नहीं देता था। सती स्त्रियों की स्मृतियों में सती स्मारक सतीकल, महासतीकल अथवा महासती गुल्ल स्थापित किए जाते थे। विधवा स्त्री से विवाह करने वाले युवक कर से मुक्त थे।

दहेज प्रथा उग्र रूप से प्रचलित थी। विजयनगर साम्राज्य में दहेज की कुरीति इतनी बढ़ गई कि ब्राह्मण समुदाय ने मिलकर दहेज प्रथा को अवैधानिक घोषित करा दिया। 1424-25 ई. के एक अभिलेख में दहेज को अवैधानिक घोषित किया गया है।

राजपरिवार की महिलाएं पावड़ (एक प्रकार का पेटीकोट), दुपट्टा और चोली पहनती थीं। युद्ध में शौर्य दिखाने वाले पुरूषों के लिए गंडपेद्र (पैर में धारण किया जाने वाला कड़ा) को सम्मान का प्रतीक माना जाता था। ​राजपरिवार के पुरूष एवं स्त्रियों दोनों ही कीमती जरीदार कपड़े पहनते थे। सामान्य वर्ग के पुरूष धोती और सफेद सूती रेशमी कमीज पहनते थे। कन्धे पर दुपट्टा डालने का भी प्रचलन था।

विजयनगर साम्राज्य हेतु विदेशी यात्रियों के महत्वपूर्ण कथन

  1. डोमिंगोस पायस -मैंने जो देखा वह (विजयनगर) उतना ही बड़ा था जितना बड़ा रोम। यह विश्व का अत्यधिक व्यवस्थित नगर था।
  2. अब्दुर्रज्जाक -विजयनगर जैसा नगर इस पृथ्वी पर न तो किसी ने देखा है और न कभी सुना है कि संसार में उसके समान कोई अन्य नगर है। शहर सुरक्षा के लिए एक के अन्दर एक सात दीवारों से घिरा हुआ है।
  3. अब्दुर्रज्जाक - “विजयनगर राज्य में तीन सौ बन्दरगाह हैं।
  4. निकोलो कोण्टी -नगर का घेरा 60 मील का था जिसमें प्राय: 90 हजार व्यक्ति शस्त्र धारण करने के योग्य थे।
  5. डूआर्ट बारबोसा नगर बहुत विस्तृत व सघन बसा हुआ था तथा भारतीय हीरों, पेगू की लालमणि, चीन और एलेक्जेन्ड्रिया की रेशम, सिन्दूर, कपूर, कस्तूरी तथा मालाबार की चन्दन व कालीमिर्च के व्यापार का मुख्य केन्द्र था।
  6. डूआर्ट बारबोसा – “राजा ने इतनी स्वतंत्रता दे रखी है कि कोई भी व्यक्ति इच्छानुसार विचरण कर सकता है तथा अपने धर्म के अनुसार जीवन बीता सकता है। उसे न कोई कष्ट देगा और न यह पूछेगा कि तुम ईसाई, यहूदी अथवा हिन्दू हो।
  7. डोमिंगोज पायस यह संसार का सबसे सुन्दर व सम्पन्न शहर है। जहां सभी वस्तुएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। राजा के पास अत्यधिक मात्रा में धन, सैनिक, हाथी हैं। आपको यहां सभी देशों के नागरिक मिलेंगे।
  8. डोमिंगोज पायस – “कृष्णदेव राय महान विद्वान तथा न्यायप्रिय शासक है। वह विदेशियों को सम्मानित करता है किन्तु कभी-कभी उसे क्रोधावेश का दौरा भी हो जाता है।
  9. अब्दुर रज्जाक देश इतना अच्छा बसा हुआ है कि संक्षेप में उसका चित्र प्रस्तुत करना कठिन है। राजा के कोषगृह में जितने गड्ढे खुदे हुए हैं उनमें पिघला हुआ सोना भर दिया गया है। जिसकी ठोस शिलाएं बन गई है। देश के सभी उच्च एवं निम्न जातियों के निवासी, यहां तक कि बाजार के कारीगर भी जवाहरात व आभूषण पहनते हैं।
  10. निकोली कोण्टी -विजयनगर साम्राज्य में विशाल संख्या में दास हैं। जो कर्जदार अपना ऋण अदा नहीं कर पाते हैं उन्हें सर्वत्र ऋणदाता द्वारा अपना दास बना लिया जाता है।