दक्षिण भारत के राज्यों विशेषकर महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में सातवाहन राजवंश ने शासन किया। सिमुक ने अंतिम कण्ववंशी शासक सुशर्मा की हत्या करके सातवाहन राजवंश की स्थापना की। सातवाहन राजवंश ने 460 वर्षों तक निरन्तर शासन किया। सातवाहन राजवंश का इतिहास जानने के लिए मत्स्य तथा वायु पुराण विशेष रूप से उपयोगी हैं।
पुराण सातवाहन वंश को ‘आन्ध्र जातीय’ तथा ‘आन्ध्र भृत्य’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त सिक्कों, शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों से भी सातवाहन राजवंश के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। सातवाहन वंश के शासकों को ‘दक्षिणापति’ तथा इनके द्वारा शासित प्रदेशों को ‘दक्षिणापथ’ कहा जाता है। सामान्यतया सातवाहनों का मूल निवास स्थान महाराष्ट्र का प्रतिष्ठान माना जाता है।
सातवाहन वंश का राजनीतिक इतिहास
सिमुक (60 ई.पू.- 37ई.पू.)
वायु पुराण के अनुसार, सिमुक अथवा 'सिंधुक' नामक व्यक्ति ने अंतिम कण्ववंशी शासक सुशर्मा की हत्या करके सातवाहन राजवंश की स्थापना की। नानाघाट अभिलेख के अनुसार, सातवाहन राजवंश का प्रथम राजा सिमुक है। सिमुक ने 23 वर्षों तक शासन किया। सिमुक ने बौद्ध एवं जैन समुदाय का समर्थन प्राप्त करने के लिए कई जैन एवं बौद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया।
कान्ह (कृष्ण)
सिमुक का भाई कान्ह उसका उत्तराधिकारी बना क्योंकि सिमुक का पुत्र शातकर्णी प्रथम अवयस्क था। कान्ह ने अपने राज्य का विस्तार पश्चिम में नासिक तक किया। कान्ह के समय श्रमण नामक महामात्र ने नासिक में एक गुहा का निर्माण करवाया।
शातकर्णी प्रथम
कान्ह (कृष्ण) की मृत्यु के पश्चात सिमुक का पुत्र श्री शातकर्णी प्रथम गद्दी पर बैठा। श्री शातकर्णी प्रथम सातवाहन वंश का तीसरा शासक एवं सातवाहन वंश में सातकर्णी की उपाधि धारण करने वाले प्रथम शासक था। रानी नागनिका (नायनिका) के नानाघाट अभिलेख (पूना) से उसके शासनकाल की जानकारी प्राप्त होती है। शातकर्णी प्रथम की रानी नागनिका अंगीय वंश की राजकुमारी थी। अंगीय राजा स्वयं को महारथी कहते थे।
श्री शातकर्णी प्रथम के नाम का उल्लेख ‘पेरिप्लस आफ एरिथ्रियन सी’ नामक पुस्तक में भी मिलता है। श्री शातकर्णी प्रथम ने अपने राज्य का विस्तार पश्चिमी मालवा, नर्मदा घाटी, विदर्भ, उत्तरी कोंकण एवं गुजरात तक किया।
श्री शातकर्णी प्रथम ने कलिंगराज खारवेल को पराजित कर उसका राज्य वापस लौटा दिया। श्री शातकर्णी प्रथम ने गोदावरी तट पर स्थित प्रतिष्ठान (पैठान) को अपनी राजधानी बनाई। शातकर्णी प्रथम ने मालव शैली की गोल मुद्राएं तथा अपनी पत्नी के नाम पर रजत मुद्राएं उत्कीर्ण करवाई।
पुराणों में शातकर्णी प्रथम को कृष्ण का पुत्र कहा गया है, इसने दो अश्वमेध यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ सम्पन्न कर ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की। नानाघाट अभिलेख से ज्ञात होता है कि श्री शातकर्णी प्रथम ने दक्षिणापथपति तथा अप्रतिहतचक्र जैसी उपाधियां ग्रहण की।
श्री शातकर्णी प्रथम के सशक्त उत्तराधिकारी
श्री शातकर्णी प्रथम के पश्चात उसके दो पुत्र वेदश्री, सतश्री निर्बल शासक सिद्ध हुए। सातवाहनों में 17वां शासक हाल था, जिसका वर्णन काव्यमीमांसा, लीलावती, अभिधम्म चिंतामणि एवं गाथा सप्तसती में मिलता है। सातवाहन वंश का शासक हाल एक बड़ा कवि तथा कवियों-विद्वानों का आश्रयदाता था।
चर्चित कृति ‘गाथा सप्तसती’ की रचना प्राकृत भाषा में स्वयं राजा हाल ने की जो तकरीबन 700 छंदों का श्रृंगार काव्य है। राजा हाल की रानी मलयवती भी संस्कृत की ज्ञाता थी। राजा हाल के राज्यसभा में ‘वृहत्कथा’ के रचयिता गुणाढ्य तथा ‘कातंत्र’ नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शर्ववर्मन निवास करते थे।
गौतमीपुत्र शातकर्णी (106 ई.- 130 ई.)
गौतमीपुत्र सातकर्णी सातवाहन वंश का 23वां व सबसे महान शासक था। इसे आगमन निलय (वेदों का आश्रय) भी कहा गया है। नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र सातकर्णी को ‘सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा का पुन: संस्थापक’ कहा गया है।
यह पहला सातवाहन शासक था, जिसके नाम के साथ उसकी माता का नाम लगा हुआ था। स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले गौतमीपुत्र शातकर्णी ने शकों को हराया तथा क्षत्रियों का दर्प चूर किया। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने नहपान द्वारा शासित क्षहरात वंश का समूल नाश किया।
गौतमीपुत्र सातकर्णी को चतुर्वर्ण व्यवस्था का रक्षक कहा गया है। इसकी मां गौतमी बलश्री की नासिक प्रशस्ति से इस राजा की जानकारी मिलती है। नासिक प्रशस्ति के अनुसार, “गौतमीपुत्र शातकर्णी के घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे।” यहां तीन समुद्रों से तात्पर्य बंगाल की खाड़ी, अरब सागर तथा हिन्द महासागर से है।
नासिक प्रशस्ति तथा जोगलथम्बी सिक्कों के अनुसार, गौतमीपुत्र शातकर्णी ने शक शासक नहपान को परास्त कर महाराष्ट्र में सातवाहनों की सत्ता पुर्नस्थापित की। गौतमीपुत्र शातकर्णी का साम्राज्य उत्तर में मालवा तथा सौराष्ट्र से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में बरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था। उसने ‘राजराज,’ ‘महाराज’, ‘स्वामी’ तथा ‘विन्ध्यनरेश’ की महान उपाधियां ग्रहण की।
गौतमीपुत्र शातकर्णी ने बौद्ध संघ को ‘अजकालकिय’ तथा कार्ले के भिक्षुसंघ को ‘करजक’ नामक ग्राम दान में दिए। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने ‘वेणकटक स्वामी’ की उपाधि धारण की तथा नासिक में ‘वेणकटक’ नामक नगर का निर्माण करवाया एवं एक गुफा बनवाकर उसे दान भी किया।
वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी (130-154 ई.)
गौतमीपुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी सातवाहन वंश का राजा बना। वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी ने दक्षिण में अपनी शक्ति का विस्तार किया। आन्ध्र प्रदेश पर सम्पूर्ण विजय सम्भवत: पुलुमावी ने ही प्राप्त की, अत: उसे ‘प्रथम आन्ध्र सम्राट’ भी कहा जाता है। पुलुमावी ने अपनी राजधानी गोदावरी नदी के किनारे स्थित प्रतिष्ठान को बनाया। अमरावती लेख के अनुसार, इसने अमरावती बौद्ध स्तूप के चारो तरफ वेष्टिनी का निर्माण कर स्तूप का विस्तार किया। अमरावती बौद्ध स्तूप में वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नाम भी मिलता है।
गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने पुत्र वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का विवाह शक शासक रूद्रदामन की पुत्री से किया था। इसने महाराज तथा दक्षिणापथेश्वर की उपाधियां धारण की। पुराणों में इसे पुलोमा, पुरोमानि अथवा पुलोमावि कहा गया है। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार, पुलुमावी ने शक राजा रूद्रदामन को दो बार परास्त किया। पुलुमावी ने ‘नवनगर’ नामक नए नगर की स्थापना की। वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के अभिलेख ही सातवाहन वंश के आन्ध्र प्रदेश में पाए जाने वाले सबसे प्राचीन अभिलेख हैं।
यज्ञश्री शातकर्णी (165-194 ई.)
वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के बाद शिवश्री शातकर्णी तथा शिवस्कन्द शातकर्णी राजा हुए जिनके शासनकाल की किसी महत्वपूर्ण घटना की जानकारी नहीं मिलती है।
यज्ञश्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अंतिम प्रतापी राजा हुआ। यज्ञश्री शातकर्णी ने 27 वर्षों तक राज्य किया। उसने शकों को परास्त कर उनके द्वारा जीते गए भूभाग पर पुन: अधिकार कर लिया। यज्ञश्री शातकर्णी के सिक्के आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश तथा गुजरात में प्राप्त हुए हैं।
नासिक, कन्हेरी तथा गुण्टूर अभिलेखों के अनुसार, यज्ञश्री शातकर्णी का शासन पूर्वी तथा पश्चिमी दक्कन पर था। उसने चांदी के सिक्के जारी किए, उसके एक सिक्के पर दो मस्तूल वाला जहाज अंकित है। यज्ञश्री शातकर्णी के सिक्कों पर मछली व शंख के चित्र भी मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि सातवाहन शासक यज्ञश्री शातकर्णी नौसेना तथा समुद्री व्यापार पर विशेष ध्यान देता था।
यज्ञश्री शातकर्णी की मृत्यु के पश्चात सातवाहन साम्राज्य का पतन शुरू हो गया। सातवाहन साम्राज्य कई छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया। सातवाहनों के पश्चात आभीर, ईक्ष्वाकु तथा कुन्तल में चुटुशातकर्णि वंशों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली।
सातवाहनकालीन समाज
सातवाहन दक्कन में एक कबीले के लोग थे, जो ब्राह्मण बना दिए गए थे। सातवाहनकालीन समाज चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) वाली वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। सातवाहन समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र शातकर्णी को ‘अद्वितीय ब्राह्मण’ कहा गया है। हांलाकि सातवाहन नरेशों ने समाज में वर्ण संकरता रोकने का प्रयास किया था, बावजूद इसके व्यवहार में अन्तर्जातीय विवाह होते थे।
सातवाहन नरेशों ने बौद्ध भिक्षुओं को भूमिदान दिया तथा पश्चिमी दक्कन में कार्य करने के लिए प्रेरित किया। सातवाहन शासक ब्राह्मण थे, किन्तु ब्राह्मणों को बहुत कम भूमिदान किए। सातवाहन काल दक्षिण में बौद्ध धर्म के लिए सर्वाधिक गौरवशाली युग था।
भूमिदान की प्रथा ने प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण एवं सामन्तवाद को जन्म दिया। बतौर उदाहरण- गुप्त एवं गुप्तोतर काल में प्रशासनिक अधिकारियों को भी वेतन के बदले करमुक्त भूमि दान दी जाने लगी।
समाज में मातृसत्तात्मक ढांचा था हांलाकि सातवाहन राजकुल पितृतंत्रात्मक ही था क्योंकि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था। स्त्रियों की दशा उन्नत थी, वे शिक्षित होती थीं। हांलाकि वे पर्दा प्रथा से अपरिचित थीं।
आर्थिक स्थिति
सातवाहन युग दक्षिण भारत में समृद्धि एवं सम्पन्नता का युग था। सातवाहन युग में कृषि की उन्नति के साथ-साथ व्यापार-व्यवसाय की बहुत अधिक प्रगति हुई। ‘मिलिन्दपन्हों’ में 75 व्यवसायों का उल्लेख हुआ है। श्रेणी प्रधान को श्रेष्ठिन तथा श्रेणी के कार्यालय को निगम सभा कहा जाता था।
शिल्पियों में गान्धिकों का नाम दाता के रूप में बार-बार उल्लेखित है। गान्धिक वे शिल्पी थे जो इत्र आदि बनाते थे। प्लिनी कृत ‘नेचुरल हिस्ट्री’ के अनुसार, सातवाहन काल में कपास का भारी मात्रा में उत्पादन होता था।
सातवाहनों ने स्वर्ण सिक्के नहीं चलाए। स्वर्ण का प्रयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया जाता था। सातवाहनों ने सीसा, रजत, पोटीन, तांबे व कांसे की मुद्राएं चलाईं। चांदी व तांबे के सिक्के ‘कार्षापण’ कहलाते थे। सातवाहन राजवंश के सिक्कों पर दो मस्तूल वाले जहाज़, हाथी, शेर, नक्षत्र, चैत्य और धर्मचक्र आदि अंकित थे।
सातवाहन तथा रोमन सिक्कों से समृद्ध व्यापार का संकेत मिलता है। रोम के निवासी दक्कन से रत्न, मलमल तथा विलासिता की सामग्रियां प्राप्त करते और इनके बदले मुंहमांगा सोना देते थे। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं में रेशमी कपड़े, मलमल, चीनी, इलायची, लौंग, हीरे, मानिक, मोती आदि थीं।
सातवाहन काल में प्रतिष्ठान, तगर, जुन्नार, नासिक, वैजयन्ती, धान्यकटक, विजयपुर आदि अनेक व्यापारिक नगर थे। भड़ौच (भरूच) सोपार, कल्यान आदि सातवाहन काल के प्रमुख बन्दरगाह थे। भड़ौच (भरूच) सातवाहन काल का प्रमुख अर्न्तराष्ट्रीय बन्दरगाह था।

सातवाहन प्रशासन
सातवाहन राजाओं के शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था। सातवाहनों की प्रशासनिक इकाइयां मौर्य प्रशासन की अनुकृति था। सातवाहन युग में भी जिलों को ‘आहार’ कहा जाता था। प्रशासनिक अधिकारी भी मौर्यकाल की तरह अमात्य और महामात्य कहलाते थे।
आहार के अन्तर्गत एक केन्द्रीय नगर तथा कई गांव होते थे। प्रत्येक ‘आहार’ एक अमात्य के अधीन होता था। सातवाहन नरेश ‘राजन’, ‘राजराज’, ‘महाराज’ तथा ‘स्वामी’ जैसी उपाधियां धारण करते थे। जबकि रानियां ‘देवी’ अथवा ‘महादेवी’ की उपाधि धारण करती थीं।
सातवाहन अभिलेखों के अनुसार, कटक एवं स्कन्धवार सैनिक शिविर थे, जो प्रशासनिक केन्द्र के रूप में कार्य करते थे। ग्रामीण क्षेत्रों का प्रशासक गौल्मिक (सैन्य अधिकारी) कहलाता था। प्रत्येक ग्राम का अध्यक्ष एक ग्रामिक होता था, ग्राम शासन के लिए उत्तरदायी होता था।
गौल्मिक सैन्य टुकड़ी का प्रधान होता था। हालिक भी ग्राम प्रशासन के अधिकारी थे। सामन्तों की तीन श्रेणियां थीं - 1.राजा 2. महाभोज 3. सेनापति। रोमन इतिहासकार प्लिनी के मुताबिक, “सातवाहन नरेशों के पास पैदल सेना, अश्वसेना तथा हाथियों सहित एक बड़ी सेना थी।” सेनापति भी प्रान्तीय गवर्नर के रूप में कार्य करता था। सातवाहन काल में दमन एक महत्वपूर्ण नीति रहा।
धार्मिक स्थिति
सातवाहनों ने बौद्ध धर्म एवं ब्राह्मण धर्म को संरक्षण प्रदान किया। सातवाहन काल में अनेक प्रकार के वैदिक यज्ञों (अश्वमेध, राजसूय, वाजपेय आदि) का अनुष्ठान किया जाता था। सातवाहन शासक हाल द्वारा रचित ‘गाथा सप्तशती’ शिव की आराधना से आरम्भ होती है, इसमें इन्द्र, कृष्ण, पशुपति एवं गौरी की पूजा का उल्लेख मिलता है। सातवाहन काल के राजा स्वयं का देवताओं के साथ तादात्म्य स्थापित करने लगे थे, जैसे- गौतमीपुत्र शातकर्णी ने स्वयं को कृष्ण, बलराम और संकषर्ण का रूप स्वीकार किया था।
स्वयं ब्राह्मण होते हुए सातवाहन नरेश अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु थे। सातवाहन काल में बौद्ध धर्म का महायान सम्प्रदाय उन्नत अवस्था में था। शिल्पियों एवं व्यापारियों में महायान बौद्ध धर्म प्रचलित था, शेष समाज में वैष्णव एवं शैव धर्म की प्रधानता थी। नागार्जुनकोण्डा तथा अमरावती बौद्ध धर्म के केन्द्र थे। सातवाहन युग में संस्कृत तथा प्राकृत भाषा का विकास हुआ। सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत एवं लिपि ब्राह्मी थी।
कला एवं स्थापत्य
सातवाहन काल में व्यापक पैमाने पर पश्चिमोत्तर दक्कन या महाराष्ट्र में अत्यन्त दक्षता और लगन के साथ ठोस चट्टानों को काटकर चैत्य एवं बौद्ध विहार बनाए गए। पश्चिमी दक्कन में नासिक तथा कार्ले का चैत्य गृह तथा अमरावती (आन्ध्र प्रदेश के गुन्टुर जिले में) का बौद्ध स्तूप सबसे प्रसिद्ध है। अमरावती बौद्ध स्तूप का पता सर्वप्रथम मैकेंजी ने 1797 ई. में लगाया था।
सातवाहनों के काल में कृष्णा एवं गोदावरी नदी घाटी में एक नई कला शैली ‘अमरावती शैली’ का विकास हुआ। इसके मुख्य केन्द्र अमरावती, नागार्जुनकोण्डा तथा जग्गयापेट थे। अमरावती शैली में मुख्यत: सफेद पत्थरों का उपयोग किया जाता था। सर्वाधिक प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप अमरावती की वेदिका तथा गुम्बद, दोनों ही संगमरमर के बने हुए थे। इसके चारों तरफ बुद्ध की प्रतिमाएं बनाई गई थीं।
नागार्जुनकोण्डा से प्राप्त स्तूप गोलाकार था। यह इक्ष्वाकुओं की राजधानी थी जो सातवाहनों के परवर्ती थे। अमरावती के शिल्पकारों ने धार्मिक मूर्तियों की अपेक्षा धर्मनिरपेक्ष मूर्तियों का अधिक निर्माण किया। विभिन्न मनोदशाओं तथा भावभंगिमाओं वाली महिला मूर्तियां अमरावती शैली की सर्वोत्तम विशेषताएं हैं। सातवाहन राजाओं के संरक्षण में नासिक, भोज, बेदसा और कार्ले में निर्मित बौद्ध चैत्यों (मठों) पर अमरावती शैली का प्रभाव है।
सातवाहन राजवंश से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
— सातवाहन वंश का संस्थापक - सिमुक
— सिमुक का भाई था - कान्ह (कृष्ण)
— सिमुक के बाद कान्ह ने अपने राज्य का विस्तार किया - नासिक तक
— सातवाहन वंश में सातकर्णी की उपाधि धारण करने वाला प्रथम शासक - शातकर्णी प्रथम
— सातवाहन वंश का तीसरा शासक - श्री शातकर्णी प्रथम
— शातकर्णी प्रथम की रानी का नाम – नागनिका (अंगीय वंशीय राजकुमारी)
— दो अश्वमेध यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ सम्पन्न कर ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की - शातकर्णी प्रथम ने
— पुराणों के अनुसार, सातवाहन राजवंश ने निरन्तर शासन किया - 460 वर्षों तक
— सातवाहन राजवंश का सबसे महान राजा - गौतमीपुत्र शातकर्णी
— क्षत्रिय शासक नहपान को पराजित कर क्षहरात वंश का समूल नाश करने वाला राजा - गौतमीपुत्र शातकर्णी।
— किसके घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे - गौतमीपुत्र शातकर्णी।
— नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र शातकर्णी को कहा गया है- अद्वितीय ब्राह्मण
— शक शासक रूद्रदामन की पुत्री से विवाह किया था - वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी ने।
— सातवाहन राजवंश के 17वें शासक हाल ने कौन सी पुस्तक लिखी थी – गाथासप्तशती
— ‘वृहत्कथा’ के रचयिता गुणाढ्य तथा ‘कातंत्र’ के लेखक शर्ववर्मन किस राजा के दरबारी थे - राजा हाल
— सातवाहन राजवंश की राजकीय भाषा - प्राकृत
— सातवाहन राजवंश का अंतिम प्रतापी राजा - यज्ञश्री शातकर्णी
— किस राजा के सिक्कों पर दो मस्तूल वाले जहाज का चित्र बना हुआ था - यज्ञश्री शातकर्णी
— वशिष्ठपुत्र पुलुमावी के दो दुर्बल उत्तराधिकारी - शिवश्री शातकर्णी तथा शिवस्कन्द शातकर्णी
— सातवाहन काल में एक नई कला शैली का का विकास हुआ - ‘अमरावती शैली’
— सातवाहन युग का प्रमुख अर्न्तराष्ट्रीय बन्दरगाह एवं व्यापारिक केन्द्र - भड़ौच (भरूच)
— रोम निवासी दक्कन से किन वस्तुओं का आयात करते थे - रत्न, मलमल तथा विलासिता की सामग्रियां
— सातवाहन युग में जिले को कहा जाता था - आहार
