पुरानी बंदूक ब्राउन बैस की जगह नई एनफील्ड राइफल का प्रयोग
आधुनिक इतिहासकार बी.एल. ग्रोवर एवं यशपाल के मुताबिक, “1856 ई. में ब्रिटिश सरकार ने पुरानी लोहे वाली ब्राउन बैस (Brown Bess) के स्थान पर नई एनफील्ड राइफल (Enfield Rifle) को जो अधिक अच्छी थी, प्रयोग करने का निश्चय किया। इस नई राइफल का प्रशिक्षण दमदम, अम्बाला और स्यालकोट में दिया जाना था। इस नई राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुंह से काटना पड़ता था। जनवरी 1857 में बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि चर्बी वाले कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी है।”
इसके बाद पूरे उत्तरी भारत में ब्रिटिश सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों के द्वारा विप्लव शुरू हो गया। अब आपका यह सोचना लाजिमी है कि आखिर गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूस के पर्दाफाश की शुरूआत कहां से हुई। जी हां, इस स्टोरी की शुरूआत कुछ इस प्रकार से होती है-
दमदम छावनी से फैली चर्बी वाले कारतूस की अफवाह
एक दिन दमदम छावनी (वर्तमान में पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना ज़िले में स्थित एक शहर) का एक ब्राह्मण सैनिक जल का लोटा लिए हुए छावनी को वापस आ रहा था। तभी वहां एक भंगी आ गया, जिसने उसे लोटे से पानी पीना चाहा। ब्राह्मण ने कहा कि “मेरा लोटा तो तेरे स्पर्श मात्र से अपवित्र हो जाएगा।” ब्राह्मण सैनिक के ये शब्द सुनते ही उस भंगी ने उत्तर दिया, “महाराज, अब आपको अपना उच्च जाति का थोड़ा अभिमान छोड़ देना होगा। क्या आप जानते हैं कि अब आपको गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूस को खोलते समय अपने दांतों से काटनी पड़ेगी? ये नए कारतूस जानबूझकर ही ऐसी चर्बी से चिकने किए जा रहे हैं।”
यह बात सुनते ही वह ब्राह्मण सैनिक क्रोध से जल उठा और उसने अपने सिपाही साथियों से यह बात बताई। अब दमदम छावनी के सभी सैनिक सशंकित हो उठे। भारतीय सिपाहियों ने जब बारीकी से इस बात की छानबीन की तो उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि वास्तव में ही कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जा रहा है। जहां एक तरफ भारतीय सिपाहियों को यह विश्वास होने लगा कि अपना धर्म अब फिरंगियों के हाथों में सुरक्षित नहीं वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश अफसरों के द्वारा यह झूठी घोषणाएं की जा रही थी कि धर्म भ्रष्ट करने की बात तो दूर है, कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी लगाए जाने की बात पूरी तरह से कपोल कल्पित है।
अब भारतीय सैनिकों के हृदय में धधकती असंतोष की ज्वाला को दमन नहीं कर पाने के बाद ब्रिटिश सरकार के सैनिक सैचिव मि. बर्च को यह सार्वजनिक बयान देना पड़ा कि ‘दमदम और मेरठ छावनी के नए कारतूसों के बारे में मुझे आज तक जानकारी नहीं थी।’ जबकि उसका यह बयान पूरी तरह से झूठ पर आधारित था।
सर्वप्रथम अम्बाला और स्यालकोट में भेजे गए थे चर्बी वाले कारतूस
वीर सारवरकर की किताब ‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ के मुताबिक, “1856 में ही अम्बाला और स्यालकोट में नई एनफील्ड राइफलों को चलाने का प्रशिक्षण देने के लिए चरबी लगे कारतूस बांटे गए थे। अम्बाला केन्द्र से 22500 तथा स्यालकोट से 14000 कारतूस 23 अक्टूबर 1856 के दिन भेजे गए थे। वस्तुत: इन कारतूसों का उपयोग हिन्दुस्तानी सैनिकों को किसी प्रकार की भी जानकारी दिए बिना ही हो रहा था।” गोरखा पलटनों में ये कारतूस बहुत दबाव के साथ बांटे गए थे बावजूद इसके मि. बर्च यह बयान दे रहा था कि चर्बी वाले कारतूस बांटे ही नहीं गए हैं। (बंगाल के एक हिन्दू का पत्रक, 1857)
अब हिन्दुस्तान के क्रांतिकारी सिपाही सजग हो चुके थे, उन्होंने खुले शब्दों में इन कारतूसों का उपयोग करने से इनकार कर दिया। अंग्रेज अधिकारियों की धमकियां भी काम नहीं आई तो उन्होंने पैतरा बदलकर यह घोषणा की कि चर्बी की जगह कागज का उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इन सैनिकों में एक ही आह्वान गूंज रहा था- ‘सत्तावन के इस वर्ष की यही पुकार, उठ हे हिन्दुस्तान और स्वराज्य को प्राप्त कर।’
इसे भी पढ़ें : भारत के अतिरिक्त और कहां-कहां थे हिन्दू राज्य?
मंगल पांडे द्वारा अंग्रेज एजुटेंट की हत्या और विद्रोह का विस्तार
वो दिन भी जल्द ही आ गया, जब 29 मार्च 1857 को बैरकपुर में सैनिकों ने इन कारतूसों को प्रयोग करने से मनाही कर दी और एक सैनिक मंगल पांडे (बलिया निवासी) ने अपने एजुटेंट पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी। इसके तुरन्त बाद 34वीं एन.आई. रेजिमेन्ट तोड़ दी गई तथा विद्रोही सिपाहियों को दण्ड दिया गया। हांलाकि यह सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा था, मई 1857 में मेरठ में 85 सैनिकों ने इन कारतूसों को प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। उन्हें सैनिक न्यायालय में दीर्घकालीन कारावास का दण्ड मिला। फिर क्या था, 10 मई को सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया और अपने अधिकारियों पर गोली चलाई तथा अपने साथियों को जेल से मुक्त करवाकर दिल्ली की ओर चल पड़े। 2200 यूरोपीय सैनिकों वाली टुकड़ी का मालिक जनरल हैविट इस तूफान को रोकने का प्रयास भी नहीं कर सका।
विद्रोही सिपाहियों ने शस्त्रागार के कार्यवाहक लेफ्टिनेन्ट विलोबी को पराजित कर 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इस झड़प में कई अंग्रेज अफसर मारे गए। विद्रोहियों ने बहादुर शाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। यह विद्रोह देखते ही देखते समस्त उत्तरी भारत तथा मध्य भारत में फैल गया। लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, प्रयाग, बिहार के कुछ हिस्से, झांसी और कुछ अन्य प्रदेश भी इस विद्रोह में शामिल हो गए। हांलाकि अंग्रेजों के सौभाग्य से कई भारतीय शासक राजभक्त बने रहे जिन्होंने इस विद्रोह के दमन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लखनऊ में विद्रोह
लखनऊ में 4 जून को विद्रोह शुरू होते ही ब्रिटिश रेजिडेन्ट हेनरी लारेन्स ने अंग्रेज स्त्री-पुरुषों तथा तकरीबन 2000 राजभक्त सैनिकों के साथ रेजिडेन्सी में शरण ली। भारतीय सैनिकों द्वारा रेजिडेन्सी की घेराबन्दी में हेनरी लारेन्स की मृत्यु हो गई। ब्रिगेडियर इग्लिस ने इस घेराबन्दी का जमकर विरोध किया तत्पश्चात हेवलॉक और आउट्रम भी लखनऊ को जीतने में निष्फल रहे। आखिरकार नवम्बर 1857 में मुख्य सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने गोरखा रेजिमेन्ट की मदद से नगर में प्रवेश किया और लखनऊ को अपने कब्जे में ले लिया। हांलाकि सितम्बर 1858 तक इक्का-दुक्का आक्रमण होते रहे।
नाना साहिब और तात्या टोपे की अगुवाई में विद्रोहियों का तांडव
5 जून को कानपुर भी अंग्रेजों के हाथ से निकल गया। विद्रोहियों ने नाना साहिब को पेशवा घोषित कर दिया। कानपुर छावनी के कमाण्डर जनरल सर ह्यू व्हीलर ने 27 जून को आत्मसमर्पण कर दिया। कानपुर में नाना साहिब को तात्या टोपे की भी सहायता मिल गई थी। लेकिन लखनऊ की तरह ही मुख्य सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने 6 दिसम्बर को कानपुर पर भी अधिकार कर लिया। ऐसे में तात्या टोपे वहां से भागकर झांसी की रानी से मिले।
रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे का अंग्रेजों से टक्कर
जून 1857 के प्रारम्भ में क्रांतिकारी सिपाहियों ने झांसी में भी विद्रोह कर दिया। राजा गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई को रियासत का शासक घोषित कर दिया गया। कानपुर से जंग हारकर तात्या टोपे भी वहां पहुंच चुके थे लेकिन सर ह्यूरोज ने आक्रमण कर 3 अप्रैल 1858 को झांसी पर अधिकार कर लिया। ऐसे में तात्या टोपे और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर की ओर कूच किया जहां भारतीय सैनिकों ने उनका स्वागत किया। ग्वालियर किले पर अधिकार करते ही राजभक्त जयाजी राव सिंधिया भागकर अंग्रेजों के पास आगरा पहुंच गया। हांलाकि जून 1858 में ग्वालियर पर अंग्रेजों ने पुन: अधिकार कर लिया। झांसी की रानी अंग्रेजों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं। तात्या टोपे फिर बच निकले लेकिन अप्रैल 1859 में उन्हें सिन्धियां के एक सामन्त ने पकड़ लिया और अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर लटका दिया।
जुलाई 1858 तक विद्रोहियों का दमन
बिहार में जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह तथा उनके अनुज अमर सिंह ने विद्रोह की पताका फहरा रखी थी। बरेली में खान बहादुर खान ने स्वयं को नवाब नाजिम घोषित कर दिया। बनारस और प्रयाग में भी जबरदस्त विद्रोह देखने को मिला लेकिन कर्नल नील ने निर्मम तरीके से उस विद्रोह को दबा दिया। सभी विद्रोहियों, संदिग्ध व्यक्तियों यहां तक कि उच्छृंखल लड़कों को भी फांसी पर लटका दिया। कहा जाता है कि बनारस के बगीचे लाशों से पट गए थे। कुल मिलाकर जुलाई 1858 तक विद्रोह पूर्णतया शान्त हो चुका था।
इसे भी पढ़ें : कौन थी वह विद्वान महिला जो आदि शंकराचार्य के शास्त्रार्थ की निर्णायक थी?
इसे भी पढ़ें : ऋग्वेद की ऋचाएं लिखने वाली विदुषी महिला लोपामुद्रा के बारे में क्या जानते हैं आप?