1857 की महाक्रांति भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। अंग्रेजी शासन के 100 वर्षों के इतिहास में यह एक ऐसी घटना थी जिसने भारत में ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी। गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग के शासन काल में इस विद्रोह का प्रारम्भ सैन्य क्रांति के रूप में शुरू हुआ लेकिन जल्द ही इसका स्वरूप बदलकर एक जनव्यापी आन्दोलन के रूप में परिणित हो गया। आधुनिक भारत के इतिहास में इसे ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ कहा गया है।
1857 की महाक्रांति ईस्ट इंडिया कम्पनी की नीतियों के विरूद्ध जनता के दिलों में संचित असंतोष एवं विदेशी सत्ता के प्रति घृणा का परिणाम था। 1857 की महाक्रांति में राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सैनिकों कारणों के अतिरिक्त तात्कालिक कारण ने भी महती भूमिका निभाई।
राजनीतिक कारण
कम्पनी सरकार की स्थापना- साल 1757 से 1857 के मध्य 100 वर्षों में कम्पनी सरकार ने छल-बल के दम पर भारत में ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना की थी। इस दौरान अनेक राजवंशों और राजघरानों को अपनी सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बाकी बचे राज्यों के आंतरिक एवं बाह्य मामलों पर नियंत्रण स्थापित कर वहां के शासकों को कठपुतली बना दिया था। लार्ड वेलेजली ने ‘सहायक सन्धि’ के माध्यम से देशी राज्यों के स्वतंत्रता का अपहरण कर लिया था। ऐसे में देशी राज्यों में असंतोष की अग्नि धीरे-धीरे प्रज्वलित हो रही थी।
डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियां
हड़प नीति (गोद निषेध सिद्धान्त)- डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियों ने 1857 की महाक्रांति रूपी अग्नि में घी का काम किया। डलहौजी ने हड़पनीति (गोद निषेध सिद्धान्त) का सहारा लेकर सतारा, नागपुर, झांसी, सम्भलपुर, जैतपुर, उदयपुर आदि राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया। इसी प्रकार कुशासन के आधार पर बरार और अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया और अवध के नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता निर्वासित कर दिया गया।
उपाधियों और पेन्शनों की समाप्ति- डलहौजी ने पदों एवं पेन्शनों को समाप्त कर एक बड़े भारतीय वर्ग को असन्तुष्ट कर दिया था। डलहौजी ने कर्नाटक, सूरत और तंजौर के राजाओं को उनकी उपाधियों से वंचित कर दिया। पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहब (धोन्धु पन्त) की पेन्शन बंद कर दी गई। इसी वजह से नाना साहब अंग्रेजों का कट्टर दुश्मन बन गया और उसने 1857 की महाक्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
गवर्नर जनरल डलहौजी ने यह घोषणा की कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के बाद उसके उत्तराधिकारियों को लालकिला खाली करना पड़ेगा। जबकि लार्ड केनिंग ने दो कदम आगे बढ़कर कहा कि बहादुरशाह जफर के उत्तराधिकारी ‘बादशाह’ की उपाधि नहीं धारण कर सकेंगे। स्पष्टत: यह मुगल वंश के शासन को समाप्त करने की प्रत्यक्ष घोषणा थी।
प्रशासनिक कारण
ईस्ट इंडिया कम्पनी की न्याय तथा लगान व्यवस्था असंतोषजनक तथा कष्टप्रद थी। किसानों पर ‘कर’ का अत्यधिक भार था। कम्पनी की भूराजस्व नीतियों में स्थायी बन्दोबस्त, रैय्यतवाड़ी व्यवस्था तथा महालवाड़ी व्यवस्था का एक मात्र उद्देश्य अधिक से अधिक कर वसूलना था। परिणामस्वरूप जहां एक तरफ जमींदारों तथा महाजनों की आर्थिक स्थिति सुधर गई वहीं किसान दिन-प्रतिदिन गरीब होते गए। किसानों के साथ ही जनसाधारण को प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ा। कम्पनी के धनलोलुप कर्मचारी किसानों पर अत्याचार करके मनमाने तरीके से धन उगाही करते थे। जहां तक न्याय की बात है, कम्पनी धनी लोगों का ही पक्ष लेती थी।
आर्थिक कारण
ब्रिटिश हुकूमत ने एक सुनियोजित नीति के तहत भारत के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों की ‘मुक्त व्यापार नीति’ एवं इंग्लैण्ड के बने वस्त्रों को भारत में बेहद कम मूल्य पर बेचने से कुटीर वस्त्र उद्योग जल्द ही पतन के कगार पर पहुंच गया। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कुटीर उद्योग नष्ट हो चुके थे। सूती कपड़ा उद्योग के नाश होने से कृषि पर बोझ बढ़ गया और देश अकिंचन हो गया।
अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों से अनेक भूमिपति दरिद्र बन गए। बतौर उदाहरण- ईनाम कमीशन के तहत बम्बई में 20 हजार जागीरें जब्त कर ली गई। अवध के तालुकेदारों की जमीनें छीन ली गईं। झांसी में भी लक्ष्मी मंदिर के करमुक्त गांव कम्पनी ने जब्त कर लिए। इस प्रकार कम्पनी की आर्थिक नीतियों ने किसानों, जमींदारों, यहां तक कि व्यापारियों की भी अवस्था को दयनीय बना दिया। ऐसे में इन सभी वर्गों में असंतोष की भावना भर चुकी थी।
सामाजिक कारण
अंग्रेज अधिकारी भारतीयों के प्रति तिरस्कारपूर्ण एवं अपमानजनक व्यवहार करते थे। भारतीयों पर घातक प्रहार करने वाले अंग्रेजों को न्यायालय में दंडित नहीं किया जाता था। जनसाधारण को अंग्रेजों के अत्याचारों का सामना करना पड़ता था। ‘नील दर्पण’ में नीलहों के अत्याचारों का वर्णन रोंगटे खड़ा कर देने वाला है।
इसी प्रकार अंग्रेजों ने भारतीयों की पारम्परिक रीति-रिवाजों पर भी आक्रमण किया जैसे- बाल विवाह, सती प्रथा, गोद लेने की प्रथा पर रोक लगाने के साथ ही विधवा विवाह को जायज करार दे दिया जिससे ज्यादातर भारतीय सशंकित हो उठे। इन सब कार्यों से भारतीयों में आक्रोश फैल गया।
धार्मिक कारण
1857 की महाक्रांति में धार्मिक कारणों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरियों की हरकतों ने आग में घी का काम किया। पादरी वर्ग तथा मिशनरी स्कूलों के टीचर भारतीय धर्म की खुली आलोचना करते थे।
ईसाई मिशनरियां भारतीयों को धन का लालच देकर धर्म परिवर्तित करने को भी प्रेरित कर रहीं थीं। बतौर उदाहरण- ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों को सरकारी नौकरियां दी जाती थीं। 1856 ई. में पैतृक सम्बन्धी कानून पासकर यह सुनिश्चित किया गया कि धर्म परिवर्तन करने वाले शख्स को पैतृक सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
मिशनरी स्कूलों में बाईबिल की शिक्षा अनिवार्य थी जहां विद्यार्थियों को हिन्दू धर्म की जगह ईसाई धर्म की सर्वोच्चता का पाठ पढ़ाया जा रहा था। मुल्ला, मौलवियों, पंडित, साधु-संन्यासियों को राजकीय संरक्षण मिलना बन्द हो चुका था, इस बात का प्रचार ये सभी लोग घूम-घूम कर रहे थे और जनमानस को उद्देलित कर रहे थे। अंग्रेजों से भारतीयों का विश्वास इस कदर हट चुका था कि रेल, तार और डाक जैसी सुविधाजनक आवश्यकताओं को भी शंका की दृष्टि से देखते थे।
सैनिक कारण
यह सर्वविदित तथ्य है कि भारतीय जनमानस को यदि सैनिकों का सहयोग नहीं मिलता तो यह महाक्रांति किसी भी तरीक से सम्भव नहीं थी। भाग्यवश सैनिक वर्ग भी अंग्रेजी हुकूमत से असंतुष्ट था।
ब्रिटिश सेना में बड़ी संख्या में अवध के सैनिक भर्ती थे, ये सभी अवध राज्य के छीन जाने और नवाब के अपमान से आहत थे। इसके अतिरिक्त अन्य कारण भी थे जैसे- सेना का उच्च पद केवल अंग्रेजों के लिए आरक्षित था। अंग्रेजी सैनिकों के मुकाबले भारतीय सैनिकों को कम वेतन मिलता था।
पद वृद्धि के अवसर भी बहुत कम थे। सेना में भारतीयों के लिए ऊंचे से ऊंचा पद सूबेदार का था, जिसे 60 रुपए अथवा 70 रुपए वेतन मिलता था। असैनिक प्रशासन में सदर अमीन का पद था जिसका वेतन 500 रुपए मासिक था। सैन्य खर्च भी अंग्रेजों पर ज्यादा किया जाता था। लूट का माल भी केवल अंग्रेज सैनिकों में ही बांटा जाता था। अंग्रेज अफसर देशी सैनिकों के साथ अपमानजनक व्यवहार भी करते थे। अत: भारतीय सैनिकों में असंतोष होना स्वाभाविक था। बता दें कि 1857 ई. से पूर्व भी सैनिकों ने विद्रोह किए थे परन्तु इन्हें दबा दिया गया था।
लॉर्ड केनिंग ने 1856 ने ‘सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम’ पास किया जिसके मुताबिक बंगाल की सेना में जितने भी नए सैनिक भर्ती किए जाएंगे उन्हें सैनिक सेवा के लिए समुद्र पार भेजा जा सकता है। इस कानून ने सैनिकों में असंतोष की भावना और भड़का दी क्योंकि समुद्र पार करना भारतीय धर्म विरोधी कार्य समझते थे। बतौर उदाहरण-1839-42 ई. में जो भारतीय सैनिक अफगानिस्तान में सेवा कर आए थे, उन्हें समाज ने उनकी जाति में पुन: सम्मिलित नहीं किया था।
बाहर जाने पर अतिरिक्त भत्ता भी नहीं मिलता था, यहां तक कि ‘1854 ई. के डाक अधिनियम’ के तहत सैनिकों की नि:शुल्क डाक सुविधा भी समाप्त कर दी गई। साल 1856 ई. में ब्रिटिश सेना में 2,38,000 भारतीय सैनिक तथा 45,322 यूरोपीय सैनिक थे अत: भारतीय सैनिकों को यह विश्वास हो गया था कि यदि वे उस समय आक्रमण करें तो सफलता की पर्याप्त सम्भावना है।
विप्लव का तात्कालिक कारण
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने जनवरी 1857 से पुरानी ‘ब्राउन बैस’ बन्दूक की जगह नई ‘एनफील्ड राइफल’ का प्रयोग आरम्भ किया। इस राइफल में जो कारतूस भरी जाती थी, उसे दांत से काटना पड़ता था। बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि इस कारतूस में सूअर और गाय की चर्बी मिली हुई है। इस बात से हिन्दू-मुस्लिम सैनिकों में भयंकर रोष उत्पन्न हो गया। इन सभी सैनिकों के मन यह बात बैठ गई कि कम्पनी सरकार उनका धर्म भ्रष्ट करने पर तुली हुई है। यह घटना 1857 की महाक्रान्ति का तात्कालिक कारण सिद्ध हुई।
1857 की महाक्रांति का स्वरूप
1857 के विप्लव के स्वरूप को लेकर विद्वानों में अभी भी पर्याप्त मतभेद है। ज्यादातर अंग्रेजी इतिहासकार इसे सैनिक विद्रोह, सामंती विद्रोह, कृषक विद्रोह तथा हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र के रूप में देखते है। परन्तु भारतीय इतिहासकारों तथा भारत सरकार के द्वारा 1857 की महाक्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में परिभाषित किया गया है।
सच भी है कि 1857 की महाक्रांति का व्यापक विवेचन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि क्रांति का विस्तार व्यापक था। इसमें राजाओं, सामंतों तथा सैनिकों के साथ ही सामान्य जनता ने भी भाग लिया था।
प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
भारत को आजादी मिलने के 10 वर्ष बाद यानि 1957 ई. में ‘1857 की महाक्रांन्ति की पहली शताब्दी’ मनाई गई। इस अवसर पर भारत सरकार की ओर से तथा अन्य शोधकर्ताओं द्वारा इस विप्लव पर विचार किया गया। गहन शोध के आधार पर इसे अंग्रेजी सरकार के खिलाफ ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ अथवा राष्ट्रीय आन्दोलन कहा गया।
इस विप्लव का मूल उद्देश्य अंग्रेजी सत्ता को हटाकर पुन: सत्ता प्राप्त करना था। महाक्रांति के दौरान विक्षुब्ध शासकों तथा जमींदारों के साथ ही जनसाधारण ने भी अंग्रेजी व्यवस्था से होने वाले कष्टों के विरूद्ध विद्रोहियों का साथ दिया था।
यदि भारतीय इतिहास की बात करें तो सबसे पहले विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 की महाक्रांति को ‘सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम’ कहा था। सावरकर के अनुसार, “1857 का विप्लव जनता द्वारा स्वतंत्रता के लिए किया गया पूर्व प्रायोजित युद्ध था”। वहीं पट्टाभि सीतारमैया के मुताबिक, यह ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ था।
अशोक मेहता ने अपनी किताब ‘द ग्रेट रिवोल्ट’ में यह साबित करने का प्रयास किया है कि यह पूर्णरूप से एक राष्ट्रीय विद्रोह था। पं. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “शुरू में यह सैनिक विद्रोह था जो शीघ्र ही जनविद्रोह में परिवर्तित हो गया।”
ब्रिटिश सांसद बेंजामिन डिजरैली ने भी इसे ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ की संज्ञा दी। डिजरैली का विचार था कि “यह विद्रोह एक आकस्मिक प्रेरणा नहीं था, अपितु एक सचेत संयोग का परिणाम था और यह एक सुनियोजित एवं संगठित प्रयत्नों का परिणाम था जो अवसर की प्रतीक्षा में थे.....साम्राज्य का उत्थान और पतन चर्बी वाले कारतूसों के मामले से नहीं होते...ऐसे विद्रोह उचित और पर्याप्त कारणों के एकत्रित होने से होते हैं।” वहीं सुरेन्द्र नाथ सेन लिखते हैं कि “जो युद्ध धर्म के नाम पर शुरू हुआ था, वह स्वतंत्रता युद्ध के रूप में खत्म हुआ।”
सैनिक विद्रोह
ज्यादातर अंग्रेज और विप्लव के समय के कुछ भारतीय भी इसे सैनिक विद्रोह की संज्ञा देते हैं। सर जॉन लारेन्स और सीले के अनुसार, “यह सैनिक विद्रोह को छोड़कर और कुछ भी नहीं था।” इस घटना का तात्कालिक कारण कारतूस की घटना थी। मुंशी जीवनलाल, मुईनुद्दीन, दुर्गादास बंद्योपाध्याय एवं सर सैय्यद अहमद खां ने भी इसे ‘सैनिक विद्रोह’ ही माना।
यह सच है कि 29 मार्च 1857 ई. को बैरकपुर छावनी के सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का इस्तेमाल करने की मनाही कर दी तथा एक सैनिक मंगल पांडे ने अंग्रेज अधिकारियों पर गोली चलाई और यही से विद्रोह की शुरूआत हुई। परन्तु इस विद्रोह में सभी सैनिकों ने भाग नहीं लिया था, कई भारतीय सामंतों तथा भारतीय सेना ने भी इस विद्रोह को दबाने में सहायता दी थी अत: यह पूर्णत: सैनिक विद्रेाह नहीं था।
हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र
1857की महाक्रांति को हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र कहना सर्वथा अनुचित है। विद्रोह के नेता बहादुरशाह जफर विवश होकर इसमें शामिल हुए थे परन्तु वह कुशल नेतृत्व नहीं प्रदान कर सके। इस विद्रोह में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़े। इस विद्रोह के नेता भी दोनों ही वर्गों से थे ऐसे में इसे हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र करार देना कत्तई उचित नहीं है। ठीक इसी प्रकार एल.ई.आर.रीज कहना कि यह ‘धर्मान्धों का ईसाईयों के विरूद्ध युद्ध’ था। वहीं टी. आर. होम्ज द्वारा इसे ‘बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध’ कहना वास्तुस्थिति से मुंह मोड़ना है।
कृषक विद्रोह
कई समकालीन अंग्रेज लेखकों ने 1857 ई. के विप्लव को मात्र एक कृषक विद्रोह माना है। भूमि व्यवस्था तथा जमींदारों के अत्याचारों से पीड़ित किसानों ने इस विद्रोह में बड़ी संख्या में भाग लिया तथा विद्रोहियों की मदद की। यदि देखा जाए तो देश में जितनी किसानों की संख्या है, उससे देखते हुए बहुत कम किसानों ने हिस्सेदारी की। वहीं किसानों के अतिरिक्त अन्य वर्गों ने भी इस विप्लव में शिरकत की थी। ध्यान देने वाली बात यह है कि शिक्षित वर्ग इस विद्रोह से अलग ही रहा। इसलिए इसे महज कृषक विद्रोह करार देना बेमानी होगी।
सामंती विद्रोह
इस महाक्रांति में सभी सामंतों तथा राजा-महाराजाओं ने भाग नहीं लिया था। इसमें सिर्फ वहीं सक्रिय थे जिनका राज्य छीन लिया गया था। पेन्शन बंद कर दी गई थी अथवा उन पर अन्य तरह के आर्थिक अथवा राजनीतिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए थे। बहादुरशाह जफर, जीनतमहल, रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब, बाबू कुंवर सिंह, अवध के तालुकेदार तथा अन्य जमींदार ऐसे ही असंतुष्ट व्यक्ति थे।
वहीं दूसरी तरफ ग्वालियर, इंदौर, हैदराबाद, जोधपुर तथा राजपूताना के अनेक राज्यों के साथ ही भोपाल, पटियाला, नाभा, जिन्द, कश्मीर, नेपाल आदि के कई प्रमुख शासकों ने इस विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की भरपूर मदद की थी। लार्ड केनिंग ने टिप्पणी की कि, “इन शासकों व सरदारों ने तूफान के आगे बांध की तरह काम किया वरना यह तूफान एक ही लहर में हमें बहा ले जाता।” ऐसे में इसे सामंती विद्रोह की संज्ञा देना अनुचित है।
1857 की महाक्रांति के परिणाम
हांलाकि 1857 की महाक्रांति विफल हो गई परन्तु इसके तात्कालिक और दूरगामी परिणाम अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया और भारत पर ब्रिटिश संसद और सिंहासन का शासन आरम्भ हुआ। राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ ही सबसे महत्वपूर्ण परिणाम तो यह निकला कि इस क्रांति ने भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना को गहरे रूप से प्रभावित किया।
मुगल सत्ता की समाप्ति
1707 ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद से ही मुगल सत्ता धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी थी और क्षेत्रीय शासकों ने खुद को स्वतंत्र घोषित करना शुरू कर दिया था। बावजूद इसके मुगल ही भारत के वैधानिक शासक थे।
1857 की महाक्रांति के दौरान अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर सिंहासन पर आरूढ़ था। गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी और लॉर्ड केनिंग पूर्व में ही बहादुरशाह जफर की बादशाहत समाप्त करने की योजना बना रहे थे। 1857 की महाक्रांति के दौरान विद्रोही सैनिकों ने बहादुरशाह जफर को अपना नेता स्वीकार किया।
इस मौके का फायदा उठाकर अंग्रेज कप्तान हडसन ने बहादुरशाह जफर के उत्तराधिकारियों की हत्या कर दी। बहादुरशाह जफर और उसकी बेगम को कैद कर रंगून (बर्मा) निर्वासित कर दिया गया। रंगून में ही 1862 ई. में बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। इस प्रकार बहादुरशाह के साथ ही मुगल सत्ता की समाप्ति हो गई।
ईस्ट इंडिया कम्पनी की समाप्ति
1757 ई. से 1857 ई. तक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में शासन किया। इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के राजनीतिक और आर्थिक लाभों को देखते हुए इस पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। बतौर उदाहरण- ब्रिटिश सरकार ने रेग्यूलेटिंग एक्ट (1773 ई.), पिट्स इंडिया एक्ट (1784 ई.), चार्टर एक्ट (1813, 1833 और 1853 ई.) द्वारा कम्पनी पर शिकंजा कसने का प्रयास किया। 1857 की महाक्रांति से फैली अव्यवस्था और अंग्रेजी हितों के सुरक्षा के नाम पर ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया।
ब्रिटिश संसद ने ‘भारत सरकार अधिनियम-1858’ पारित किया और साम्राज्ञी विक्टोरिया ने कम्पनी के शासन को समाप्त करने की घोषणा कर दी। ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक नियंत्रण कम्पनी से लेकर भारतीय राज्य सचिव को सौंप दिया। भारतीय राज्य सचिव ब्रिटिश राजमुकुट के प्रतिनिधि के रूप में भारत पर शासन करने लगा। भारतीय राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय काउंसिल का गठन किया गया जिसमें 7 सदस्य ईस्ट इंडिया कम्पनी के तथा 8 सदस्य ब्रिटिश सरकार द्वारा मनोनीत किए जाने थे।
गवर्नर जनरल की जगह वायसराय की नियुक्ति
साल 1858 के भारत सरकार अधिनियम के तहत गवर्नर जनरल की स्थिति में परिवर्तन किया गया। हांलाकि गवर्नर जनरल के कार्य और अधिकार पहले जैसे ही रहे परन्तु उसके पद को अत्यधिक गौरवमयी बना दिया गया। गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधि प्रदान की गई। वायसराय अब ब्रिटिश सरकार के निर्देश पर भारत में शासन करने लगा। इस नई व्यवस्था के तहत भारत पर शासन अब सीधे इंग्लैण्ड से होने लगा।
भारतीयों को सरकारी नौकरियों में स्थान
भारतीयों को प्रशासनिक सेवा में स्थान देने के उद्देश्य से 1861 ई. में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नागरिक सेवा अधिनियम बनाया। इस सेवा में स्थान पाने के लिए लंदन में होने वाली प्रवेश परीक्षा में भाग लेना होता था। इसमें भारतीय प्रतियोगी भी भाग ले सकते थे।
हांलाकि व्यवहारिक रूप से इस परीक्षा में भाग लेना बहुत ही कठिन था। इस सेवा में चयनित भारतीय एक निश्चित श्रेणी तक ही प्रोन्नत किए जा सकते थे, इसके आगे नहीं। ब्रिटिश सरकार ने भी महत्वपूर्ण विभागों तथा पदों पर अंग्रेज अफसरों को ही नियुक्त किए जबकि भारतीयों को कम महत्वपूर्ण स्थान दिए गए।
जाति विभेद को बढ़ावा
ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने इस महाक्रांति को मुस्लिम विद्रोह का नाम दिया था। विप्लव के पश्चात एक निश्चित योजना के तहत मुस्लिम नवाबों, तालुकेदारों के साथ ही मुगल सत्ता की भी समाप्ति कर दी गई। यही नहीं, उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों को ज्यादा जुर्माना देना पड़ा।
1859 ई. से पहले मुसलमानों के दिल्ली लौटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जबकि हिन्दूओं के साथ ऐसा नहीं था। इससे मुसलमानों में अंग्रेजों के साथ-साथ हिन्दुओं के प्रति भी रोष उत्पन्न हुआ। मुसलमानों ने हिन्दुओं को अंग्रेजों का हिमायती समझना शुरू कर दिया।
इस प्रवृत्ति के कारण शिक्षा और नौकरियों में मुसलमान पिछड़ते गए जबकि अंग्रेजी शिक्षा का लाभ उठाकर हिन्दुओं ने व्यापार और सरकारी नौकरियों में अपना प्रभाव बढ़ा लिया। अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाकर सेना के रजीमेन्टों को जाति, समुदाय और धर्म के आधार पर विभाजित किया और भारत पर शासन करने की योजना को अमली जामा पहनाया।
राष्ट्रवाद का उदय
1857 की महाक्रांति की विफलता ने भारतीयों को यह सबसे बड़ी सीख दी कि केवल सेना और शक्ति के बल पर ही अंग्रेजी शासन से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके लिए जनता के समर्थन और राष्ट्रीय भावना का होना जरूरी है। यही वजह है कि 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रवाद के दिशा में अपने प्रयास आरम्भ कर दिए। रूस, तुर्की, ईरान, ब्रिटेन के चार्टिस्ट आन्दोलन तथा चीन के ताईपिंग विद्रोह से भारतीयों के मन में अंग्रेजों के प्रबल विरोध की भावना बलवती हो उठी।
1857 की महाक्रांति का क्षेत्र
1857 की महाक्रांति के दौरान हिमालय से लेकर नर्मदा तथा कलकत्ता से पेशावर तक सारा उत्तर भारत क्रांति की लपेट में था। इन इलाकों में विद्रोह का जोश कहीं कम कहीं अधिक था परन्तु कोई भी भाग विद्रोह से पूर्णतया मुक्त नहीं था।
उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार और आसाम के अतिरिक्त उड़ीसा में भी ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी गई। सिन्ध, राजस्थान और मध्य भारत के अनेक भागों में क्रांति की लपटें दिखाई दे रहीं थीं।
दक्षिण भारत भी क्रांति की ज्वाला से नहीं बच सका। मध्य भारत की घटनाओं का प्रभाव महराष्ट्र पर भी पड़ा। असीरगढ़, बुरहानपुर, औरंगाबाद, जलगांव, कोल्हापुर और बम्बई में अंग्रेजी सत्ता को पलटने का कार्य किया गया। सतारा में रंगोजी बापू ने सतारा राज्य वापस लेने का प्रयत्न किया परन्तु असफल रहे। कई क्रांतिकारी फांसी पर लटका दिए गए। कोल्हापुर पर भी कुछ समय के लिए विद्रोहियों का अधिकार हो चुका था। हैदराबाद में रेजीडेन्सी पर हमले हुए और मद्रास में भी उत्तेजना फैली हुई थी।
1857 की महाक्रांति से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
— सबसे पहले दमदम के 19वीं रेजीमेंट के सैनिकों ने 23 जनवरी 1857 को चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग को अस्वीकार कर दिया।
— 29 मार्च 1857 ई. को 34वीं रेजिमेंट के सैनिक मंगल पांडे ने अपने सार्जेंट ह्यूसन को गोली मार दी तथा लेफ्टिनेंट बाग को हताहत कर दिया। मंगल पांडे ने हियरसे को भी गोली मारी।
— सैनिक अदालत में निर्णय के बाद 8 अप्रैल 1857 ई.को मंगल पांडे को फांसी दे दी गई।
— मंगल पांडे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गाजीपुर (वर्तमान में बलिया) जिले का रहने वाला था।
— अंग्रेज इतिहासकार जॉन विलियम ने मंगल पांडे को ‘आततायी’ कहा।
— 10 मई 1857 को विद्रोह ने उग्र रूप धारण किया। मेरठ छावनी के 20 एनआई तथा 3 एनसी की पैदल टुकड़ी ने सभी बंदी सैनिकों को छुड़ा लिया।
— मेरठ छावनी के सभी विद्रोही सैनिक 11 मई को प्रात: दिल्ली पहुंच गए और 12 मई तक दिल्ली पर अधिकार करके बहादुरशाह जफर को ‘भारत का सम्राट’ घोषित कर दिया।
— कानपुर में विद्रोहियों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब को अपना नेता स्वीकार किया।
— नाना साहब की ओर से लड़ने की मुख्य जिम्मेदारी तात्या टोपे (मूल नाम रामचन्द्र पाण्डुरंग) की थी। जबकि एक अन्य सेवक अजीमुल्ला खां भी था जो राजनीतिक प्रचार में सिद्धहस्त था।
— ग्वालियर में मिली करारी शिकस्त के बाद तात्या टोपे अप्रैल 1859 ई. में नेपाल चले गए जहां एक जमींदार मित्र मान सिंह के विश्वासघात के कारण पकड़े गए और 18 अप्रैल 1859 ई. को फांसी पर लटका दिए गए।
— लखनउ में बेगम हजरत महल ने विद्रोहियों का नेतृत्व सम्भाला और बेगम हजरत महल के पुत्र बिरजिस कादिर को अवध का नवाब घोषित कर दिया गया।
— बेगम हजरत महल को ‘महकपरी’ भी कहा जाता है।
— बेगम हजरत महल पराजित होने पर नेपाल चली गईं जहां गुमनामी में ही उनकी मृत्यु हो गई।
— फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्ला ने विद्रोह का नेतृत्व किया। अवध की बेगम हजरत महल के शाहजहांपुर प्रवास के दौरान मौलवी अहमदुल्ला ने उनकी सहायता की थी।
— 20 सितम्बर 1857 को मेजर निकल्सन ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भागकर हुमायूं के मकबरे में शरण ली लेकिन हडसन ने बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लिया और रंगून भेज दिया जहां 1862 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
— बिहार में क्रांतिकारियों का नेतृत्व जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह ने किया। 22 अप्रैल 1858 ई. को कुंवर सिंह के निधन के पश्चात उनके भाई अमर सिंह द्वारा संघर्ष जारी रहा। परन्तु शीघ्र ही अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर अधिकार कर लिया।
— झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी अंग्रेजों से लड़ते हुए 17 जून 1858 ई.को वीरगति को प्राप्त हुईं।
— ह्यूरोज ने लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर कहा कि ‘भारतीय क्रांतिकारियों में यह एक अकेली मर्द’ है।
— रानी लक्ष्मीबाई को ‘महलपरी’ कहा गया है ।
—रूहेलखंड (बरेली) में विद्रोह का नेतृत्व खान बहादुर खान (बख्त खां) ने किया।
— इलाहाबाद में विद्रोहियों का नेतृत्व लियाकत अली ने किया।
— दिल्ली में बहादुरशाह जफर ने बख्त खां की मदद से ही विद्रोह का नेतृत्व किया।
— असम के दीवान मनीराम ने कन्दर्पेश्वर सिंह को राजा घोषित कर विद्रोह की शुरूआत की। मनीराम को अंग्रेजों ने फांसी दे दी।
— सतारा में रंगोजी बापू ने विद्रोह का नेतृत्व किया।
— उड़ीसा में सुरेन्द्रशाही तथा उज्जवलशाही नामक दो राजकुमारों ने विद्रोह का नेतृत्व किया।
— ध्यान रहे, शिक्षित वर्ग तथा व्यापारी वर्ग ने इस विप्लव में शिरकत नहीं की थी।
— विद्रोहियों ने 31 मार्च 1857 ई. को क्रांति शुरू करने का दिन चुना था परन्तु इससे पूर्व ही विप्लव शुरू हो गया।
— क्रांति के प्रतीक के रूप में कमल का फूल और रोटी को चुना गया।
— कमल का फूल विद्रोह में शामिल होने वाले सभी सैनिक टुकड़ियों में पहुंचाया गया। जबकि रोटी को एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचाया जाता था।
— 1857 के विप्लव के समय राजस्थान के पोलिटिकल एजेन्ट जनरल लॉरेन्स थे, जो विद्रोह के समय माउन्ट आबू में थे।
— राजस्थान में क्रांति की शुरूआत 28 मई 1857 ई. को नसीराबाद छावनी से हुई।
— नसीराबाद छावनी के विद्रोही सैनिकों ने अंग्रेज अफसर न्यूबेरी तथा वुड की हत्या कर दी।
— राजस्थान में नसीराबाद के अलावा नीमच और देवली ऐसे स्थान थे जहां विद्रोह की शुरूआत हुई।
— राजस्थान के आउवा (पाली) में कामेश्वर महादेव और सुगाली देवी का मंदिर विद्रोहियों का केन्द्र था।
— एरनपुरा (जोधपुर) के सैनिकों ने 21 अगस्त 1857 को विद्रोह कर दिया और सीधे आउवा पहुंचे जहां सुगाली देवी के भक्त ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया।
— कुशाल सिंह के नेतृत्व में विद्रोहियों ने जनरल लारेन्स को शिकस्त दी, जोधपुर के रेजीडेन्ट मेकसेन की हत्या कर दी तथा उसका सिर धड़ से अलग करके किले की दीवार पर टांग दिया।
— कुशाल सिंह चम्पावत अंग्रेजों के हाथ नहीं आए व 1864 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
— अक्टूबर 1857 ई. में कोटा महाराज भीमसिंह की दो पलटनों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोही सैनिकों ने कोटा रेजीडेन्ट मेजर बर्टन तथा उसके दो पुत्रों सहित डॉक्टर काटम की हत्या कर दी।
— विद्रोहियों ने बर्टन का सिर धड़ से अलग करके पूरे शहर में घूमाया था।
— 1857 की महाक्रांति से जुड़ी महत्वपूर्ण पुस्तकें और उनके लेखक
First war of Indian independence - विनायक दामोदर सावरकर
The Great Rebellion- अशोक मेहता
Sepoy mutiny and The Revolt of 1857- आर.सी. मजूमदार
Eighteen fifty seven- सुरेन्द्रनाथ सेन
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