1857 की क्रांति के स्वरूप को लेकर विभिन्न इतिहासकारों में मतभेद है। हांलाकि भारतीय इतिहास के मुताबिक अंग्रेजों के खिलाफ यह भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था। जबकि अधिकांश ब्रिटीश लेखकों ने इसे सैनिक विद्रोह बताया है और विद्रोह का मुख्य कारण चर्बी वाला कारतूस बताया है। पी.ई. राबर्ट्स के अनुसार 1857 का विप्लव विशुद्ध रूप सैनिक विद्रोह था। वी.ए. स्मिथ ने 1857 के विप्लव को सैनिक विद्रोह बताते हुए कहा कि ‘यह भारतीय सैनिकों की अनुशासनहीनता और अंग्रेजों सैनिक अधिकारियों की मूर्खता का परिणाम था।’ तकरीबन सभी विदेशी इतिहासकारों ने इसे सैनिक विद्रोह का नाम दिया।
आपको जानकारी के लिए बता दें कि भारत को आजादी मिलने के 10 साल बाद यानि वर्ष 1957 में ‘1857 की महाक्रांति’ की पहली शताब्दी मनाई गई। इस अवसर पर भारत सरकार की ओर से तथा अन्य शोधकर्ताओं द्वारा इस विप्लव पर विचार किया गया। गहन शोध के आधार पर इसे अंग्रेजी सरकार के खिलाफ भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया।
यदि भारतीय इतिहास की बात करें तो सबसे पहले विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 के विप्लव को जनता द्वारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए पूर्व प्रोयाजित युद्ध बताया। वहीं पट्टाभि सीतारमैया के मुताबिक यह भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। अशोक मेहता ने अपनी किताब द ग्रेट रिवोल्ट में यह साबित करने का प्रयास किया कि यह पूर्णरूप से एक राष्ट्रीय विद्रोह था।
पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि ‘शुरू में यह सैनिक विद्रोह था जो शीघ्र ही जनविद्रोह में परिवर्तित हो गया।’ ब्रिटीश संसद में बेंजामिन डिजरैली ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह की संज्ञा दी। डिजरैली का विचार था कि “यह विद्रोह एक आकस्मिक प्रेरणा नहीं था अपितु एक सचेत संयोग का परिणाम था और वह एक सुनियोजित और सुसंगठित प्रयत्नों का परिणाम था जो अवसर की प्रतीक्षा में थे...साम्राज्य का उत्थान और पतन चर्बी वाले कारतूसों के मामले से नहीं होते....ऐसे विद्रोह उचित और पर्याप्त कारणों के एकत्रित होने से होते हैं।”
सुरेन्द्र नाथ सेन लिखते हैं कि जो युद्ध धर्म के नाम शुरू हुआ था, वह स्वतंत्रता युद्ध के रूप में खत्म हुआ। 1857 की महाक्रांति के महानायकों में नाना साहेब पेशवा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अजीमुल्ला खां, वीर कुंवर सिंह, मंगल पांडेय सहित ऐसे हजारों नाम शामिल हैं जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी शहादत दी।
महाक्रांति के महानायकों में से एक कानपुर के पास बिठूर के राजभवन में रहने वाले पेशवा नाना साहब (धुंधू पंत) ने अपने सहयोगी अजीमुल्ला खां के साथ मिलकर अवध की बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल और मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से मिलकर भारत व्यापी सशस्त्र क्रांति की योजना के विचार को अंतिम रूप देने का प्रयास किया था।
अंग्रेजों के विरूद्ध एक महासंग्राम की योजना बड़ी चतुराई और सूझबूझ के साथ बनाई गई और 31 मई 1857, दिन रविवार को भारत के अंग्रेजों को समाप्त करने की योजना बनी क्योंकि रविवार के दिन सभी अंग्रेज प्रार्थना के लिए गिरजाघर में एकत्र होते थे। 1857 की महाक्रांति के अन्य महानायकों के साथ मिलकर पेशवा नाना साहब ने लाल कमल व रोटी को क्रांति के प्रचार का संकेत चिह्न बनाया। रोटी इस बात का प्रमाण थी कि आपको अपने लिए भोजन और रसद की तैयारी भी रखनी होगी क्योंकि युद्ध कब तक चलेगा इसका कोई ठिकाना नहीं था। इसी तरह कमल को सुख और समृद्धि के प्रतीक के रूप में चुना गया था।
पूरे देश में असंतोष की ज्वालामुखी अंदर ही अंदर धधक रही थी। युद्ध की सारी तैयारी अत्यंत गुप्त रूप से की जा रही थी। उसका विस्फोट असमय न हो, इसलिए क्रांति के नेतागण सतर्कता बरत रहे थे। महाक्रांति के समस्त नायक 31 मई, 1857 की प्रतीक्षा कर रहे थे।
लाल कमल का फूल केवल उन्हीं पलटनों में घुमाया जाता था जिन्हे क्रांति की योजना में सम्मिलित होना था। एक पलटन का सिपाही कमल का फूल लेकर दूसरे पलटन के भारतीय सिपाही को देता था। यह कमल पुष्प पलटन के समस्त भारतीय सैनिकों के हाथ से गुजरता हुआ अन्य पलटन के भारतीय सिपाहियों तक पहुंचता था। इसका मतलब था कि उस पलटन के सभी भारतीय सैनिक क्रांति में भाग लेने के लिए तैयार हैं।
विनायक दामोदर सावरकर अपनी किताब ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ में लिखते हैं कि “ऐसा प्रतीत होता है कि वह कमल पुष्प नहीं अपितु क्रांति की राजमुद्रा ही था। उच्च कोटि का महान वक्ता भी अपनी वक्तृत्व कला से जिन वीर भावनाओं को जागृत करने में सफल नहीं हो पाता उस वीर भावना का संचार युद्ध हेतु तत्पर सैनिकों में अपनी मूक भाषा से ही लाल कमल बड़ी सरलता सहित कर रहा था। इसकी लालिमा ही उन्हें क्रांति के उस महान आविर्भाव का उपदेश दे रही थी जिसमें लाशों की फसल उगाई जाती है और रक्त का पानी दिया जाता है।”
विनायक दामोदर सावरकर के मुताबिक सम्पूर्ण देश में भावी मंगलकार्य में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए क्रान्ति दूतों की एक मण्डली हर तरफ सक्रिय थी। हांलाकि राज्य क्रान्ति के इन दूतों की यह सूझ नवीन नहीं थी, क्योंकि हिन्दुस्तान में जब भी क्रान्ति का मंगल कार्य आरम्भ हुआ तब ही क्रान्ति दूतों ने चपातियों (रोटी) द्वारा देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पावन सन्देश को पहुंचाने के लिए इसी प्रकार का अभियान चलाया था। बतौर उदाहरण वेल्लोर विद्रोह के समय भी ऐसी ही चपातियों ने सक्रिय योगदान दिया था।
पूर्व निर्धारित योजना के मुताबिक रोटी को एक गांव का चौकीदार दूसरे गांव के चौकीदार तक पहुंचाता था। वह चौकीदार उस रोटी में से थोड़ा सा खा लेता और दूसरे को भी खिलाता था। इसके बाद उस गांव दूसरी आटे की रोटी बनवाकर पास के गांव में पहुंचाता था। इस प्रकार रोटी का वितरण एक गांव से दूसरे गांव में बहुत तेजी से हो रहा था। इसका मतलब यह था कि जिन गांवों से यह रोटी गुजरती थी, वे सभी गांव क्रांति में भाग लेने को पूरी तरह से तैयार थे। क्रांति के प्रतीक चिन्ह के रूप में लाल कमल का फूल और रोटी भारत के गांवों में जितनी तेजी से पहुंचे उसे देखकर हर कोई हैरान था।
1857 की महाक्रांति की सबसे बड़ी कहानी यही है कि ब्रिटिश हुकूमत घुटनों के बल पर आ गई। अग्रेंजी सरकार की नींव हिल गई। लार्ड क्रोमर ने कहा था, “काश कि अंग्रेज की युवा पीढ़ी भारतीय विद्रोह के इतिहास को पढ़े, ध्यान दे, सीखे और इसका मनन करे। इसमें बहुत से पाठ और चेतावनियां निहित हैं।” ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना का ब्रिटिश सेना में विलय कर दिया गया। कंपनी की जगह भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया।