विनायक दामोदर सावरकर के शब्दों में, “मनुष्य की आयु जितनी अधिक होती है, उसे उतना ही ज्यादा बूढ़ा कहा जाता है। किन्तु ऐसे भी मनुष्य हुए हैं, जिन्होंने अपने शौर्य-बल से यह सिद्ध किया है कि अधिक आयु से मनुष्य बड़ा तो होता है, बूढ़ा नहीं। वीर कुंवर सिंह ऐसे ही महायोद्धा थे, जिन्होंने अस्सी वर्ष की उम्र में अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिए।”
26 अप्रैल 1858 को इस महायोद्धा के महाप्रस्थान के बाद ऐसे ही एक देशभक्त वीर ने इतिहास के रंगमंच पर पदार्पण किया। जी हां, यह वीर पुरुष कोई और नहीं बल्कि बाबू कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह थे। वीर कुंवर सिंह के छोटे भाई बाबू अमर सिंह का कद लम्बा, रंग गोरा और नाक के दाहिनी ओर एक तिल था।
वीर कुंवर सिंह को यह संसार छोड़े अभी चार दिन भी नहीं बीते थे, तभी उनके छोटे भाई अमर सिंह ने महाक्रांति को जारी रखते हुए आरा पर धावा बोल दिया और अंग्रेजों की सैन्य टुकड़ी को पराजित कर दिया। उनके इस हमले में कमांडर-इन-चीफ हरेकृष्ण सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजों की पराजय का समाचार मिलते ही ब्रिगेडियर डगलस और जनरल लुगार्ड के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना ने गंगा नदी पारकर अमर सिंह का सामना किया।
जब अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को घेरा तो अमर सिंह ने बड़ी चालाकी से काम लिया, उन्होंने अपनी सेना को अलग-अलग टुकड़ियों में बांट दिया और एक निश्चित समय और स्थान बताकर एकत्र होने का आदेश दिया। अमर सिंह की इस तरकीब से अंग्रेजों के पसीने छूट गए। अंग्रेज जैसे ही यह तय करते कि वे हर बार विजयी हो रहे हैं, वैसे ही अमर सिंह की सेना पूरे जोश और पराक्रम के साथ किसी अन्य स्थान पर दिखाई देती।
यदि अंग्रेजी सेना जंगल के किसी एक छोर से क्रांतिकारियों का पीछा करती तो दूसरे छोर पर उनका उत्पात मचा होता और वहां से भागकर पहली जगह पर फिर से कब्जा कर लेते थे। आखिर में परेशान, निराश और अपमानित होकर अंग्रेज सेनापति लुगार्ड ने 15 जून 1858 को अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और इंग्लैण्ड वापस चला गया। इसके साथ ही उसकी सेना भी अपने छावनी में लौट गई।
पटना के कमिश्नर ने बंगाल सरकार के सचिव को पत्र लिखा कि “अमर सिंह जब तक आसपास के क्षेत्रों में रहेगा तब तक आरा जिले में कभी शांति नहीं स्थापित होगी। यदि आरा पर विद्रोहियों का कब्जा हो गया तो यह पटना, गया के साथ ही पूरे बिहार के लिए सिरदर्द हो जाएगा।” वहीं अंग्रेजी सेना के विरूद्ध मिली विजय से उत्साहित होकर अमर सिंह मैदान में आ डटें। इसी समय गया जिले के ब्रिटीश सिपाही भी क्रान्तिकारियों के साथ आ मिले।
बाबू अमर सिंह ने दूसरी बार भी अंग्रेजों के साथ छद्म चाल चली। उन्होंने आरा पर धावा बोलने और शहर में प्रवेश करने की झूठी सूचना फैलाई और सेना सहित जगदीशपुर में प्रवेश कर गए। जुलाई और अगस्त के बाद सितम्बर का महीना भी बीत गया। जगदीशपुर में क्रांतिकारियों के विजयध्वज लहरा रहे थे और जनता का प्रिय राजा अमर सिंह राज्य सिंहासन पर विराजमान था। ऐसे में अब ब्रिगेडियर डगलस और उसके सात हजार सैनिकों ने अमर सिंह को मारने का प्रण लिया।
ब्रिटीश सरकार सरकार ने ऐलान किया कि जो भी शख्स अमर सिंह को पकड़वाएगा उसे 2000 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा, जिसे बाद में बढ़ाकर 5000 रुपए कर दिया गया था। उन दिनों पुरस्कार की यह धनराशि बहुत बड़ी हुआ करती थी। अब अंग्रेजों ने जंगल का सफाया करके सड़क तैयार कर ली थी।
हर पुलिस चौकी पर ब्रिटीश सेना तैनात कर दी गई लेकिन बाबू कुंवर सिंह की ही तरह उनके छोटे भाई वीर अमर सिंह ने भी अंग्रेजों की तनिक भी परवाह नहीं की। ब्रिटीश सरकार के खिलाफ अमर सिंह की सम्पूर्ण गतिविधियों का वर्णन मात्र कुछ शब्दों में सम्भव नहीं है। फिर भी इस गौरव गाथा में केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि अमर सिंह ने जिस जीवट, पराक्रम, वीरता, धैर्य, साहस और आत्मविश्वास से ब्रिटीश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उससे बिहार के लोग मानने लगे थे कि कुंवर सिंह अभी जीवित हैं।
जब कोई युक्ति काम नहीं आई तो अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर सात ओर से हमला किया। जगदीशपुर से निकलने वाले प्रत्येक मार्ग को अवरूद्ध कर दिया गया। ब्रिटीश सेना की योजनानुसार, छह सेनाएं तो छह दिशाओं से जगदीशपुर में प्रवेश कर चुकी थीं। सातवीं सेना अपने निश्चित समय से पांच घंटे देर से पहुंची। अत: इसी अवसर का लाभ उठाकर अमर सिंह अपनी सेना के साथ उसी मार्ग से निकलने में सफल हो गए।
बिहार के क्रान्तिकारियों को नष्ट करने का इरादा जब असफल हुआ तो अंग्रेजों ने एक घुड़सवार सेना को इन क्रान्तिकारियों का पीछा करने के लिए भेजा। अंग्रेजों की इस घुड़सवार सेना के पास नई किस्म की राइफलें थीं। इन राइफलों के सामने क्रांन्तिकारियों की राइफलें असफल सिद्ध हुईं। बावजूद इसके अमर सिंह ने आत्मसर्पण नहीं किया। 19 अक्टूबर 1858 को अंग्रेजी सेना ने नोनदी गांव में क्रान्तिकारियों को पूरी तरह से घेर लिया।
क्रान्तिकारियों के 400 सैनिकों में से 300 सैनिक तो मारे गए और बाकी 100 सैनिक खुले मैदान में शेर की तरह ब्रिटीश सैनिकों से जूझते रहे और अंत में केवल तीन सैनिक जीवित बचे, इनमें से एक बाबू अमर सिंह थे। युद्ध के दौरान अमर सिंह जिस हाथी पर सवार थे, उसे शत्रु ने पकड़ लिया लेकिन अपनी हाथी से कूदकर अमर सिंह युद्ध क्षेत्र से अचानक गायब हो गए और ब्रिटीश सेना के पीछा करने के बावजूद कैमूर की पहाड़ियों में पहुंच गए। कैमूर क्षेत्र की जनता ने गोरी सेना को धोखा देकर अमर सिंह की रक्षा की।
पटना के कमिश्नर मि.फर्ग्यूसन ने ब्रिटीश सरकार को पत्र के जरिए सूचना दी कि क्रान्तिकारी नेपाल की तराई में छिपे हुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि नाना साहब के नेपाल चले जाने के बाद अमर सिंह भी अक्टूबर 1859 में नेपाल चले गए। जबकि 24 नवंबर 1859 ई. को अमर सिंह पलामू जिला के करौंदा गांव में देखे गए। बाबू अमर सिंह का निधन कैसे हुआ यह भी शोध का विषय है परन्तु इतना अवश्य है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का यह वीर कभी शत्रु के हाथ नहीं आया। भले ही अमर सिंह से उनकी रियासत छिन गई लेकिन उन्होंने वीरत्व को कभी नहीं छोड़ा। आखिर में बाबू अमर सिंह के अन्त:पुर की डेढ़ स्त्रियों को जब सुरक्षा का कोई मार्ग नहीं दिखा तो स्वयं को तोपों के मुंह से बांधकर और तोपों को अपने ही हाथ से दाग कर अनंतत्व में विलीन हो गईं।