मेवाड़ के प्रतापी शासक महाराणा कुम्भा के पौत्र और विभिन्न युद्धों में विजयश्री हासिल करने वाले महाराणा सांगा के शरीर पर 80 घाव थे। युद्ध लड़ते हुए वे अपना एक हाथ, एक पैर और एक आंख भी खो चुके थे। बावजूद इसके महाराणा सांगा से युद्ध करते समय बाबर के होश उड़ गए थे। महाराणा सांगा की सेना के सामने टिकने के लिए बाबर ने अपने सैनिकों के सामने शराब नहीं पीने की कसम खाई तथा सैनिकों को कसम दिलाई कि किसी भी कीमत पर युद्ध में शत्रु के समक्ष वे अपनी पीठ नहीं दिखाएंगे।
बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी अथवा बाबरनामा में लिखा है कि “महाराणा सांगा अपनी बहादुरी और तलवार के बल बहुत बड़ा शासक बन चुका था। दिल्ली, मालवा और गुजरात का कोई भी सुल्तान उसे अकेला हराने में असमर्थ था। उसके सेना की वार्षिक आय 10 करोड़ थी। इतना ही नहीं उसकी सेना में 1 लाख सैनिक 500 से ज्यादा हाथी, 7 राजा, 9 राव और 104 छोटे सरदार रहा करते थे”।
आमेर और जोधपुर जैसे बड़े राज्यों के राजा भी महाराणा सांगा का मान-सम्मान किया करते थे तथा अपने राज्य से जुड़े प्रमुख कार्यों में इनकी सलाह लेते थे। ग्वालियर, अजमेर, सीकरी, रायसेन, कालपी, चन्देरी, बूंदी, गागरोन, रामपुरा और आबू के राजा उनके सामंत थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि जो राजपूत शासक आपसी वैमनस्यता के लिए प्रख्यात थे, उन सभी को एक झण्डे के नीचे लाना महाराणा सांगा की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
मालवा, गुजरात और दिल्ली सल्तनत को एक साथ हराया
यद्यपि महाराणा सांगा ने अपने जीवन काल में कई युद्ध लड़े और विजयश्री हासिल की। उन दिनों दिल्ली में सिकंदर लोदी का राज्य था। गुजरात में महमूद शाह और मालवा में नसीरुद्दीन खिलजी का राज्य था। यह तीनों मुस्लिम राजा एक थे और राणा के भय से तीनों ने आपस में संधि कर रखी थी। ऐसे में तीनों शासकों ने मिलकर राणा सांगा से युद्ध किया फिर भी महाराणा सांगा की जीत हुई। इस प्रकार मालवा, गुजरात और लोदी सल्तनत की संयुक्त सेनाओं को हराने के बाद महाराणा सांगा उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली राजा बन गए। कहा जाता है कि सांगा ने 100 लड़ाइयां लड़ी थीं।
दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी की पराजय
1517 ईस्वी में सिकंदर लोदी की मौत के बाद उसका बेटा इब्राहिम लोदी दिल्ली सल्तनत का शासक बना। इब्राहिम लोदी एक महत्वकांक्षी व्यक्ति था। दूसरी तरफ महाराणा सांगा भी अपने साम्राज्य विस्तार में लगे हुए थे। जब इब्राहिम लोदी तक यह बात पहुंची कि राणा सांगा साम्राज्य विस्तार कर रहे हैं, तो वो इस बात को लेकर चिंतित हो गया कि कहीं सांगा उनके राज्य पर अधिकार ना कर लें।
इब्राहिम लोदी ने मुख्य सेनापतियों को बुलाया और सेना को एकजुट किया और अपनी सेना के साथ मेवाड़ पर आक्रमण के लिए निकल पड़ा। ऐसे में महाराणा सांगा की सेना भी आगे बढ़ गई। छोटी-छोटी रियासतों के कई राजाओं ने इस युद्ध में महाराणा सांगा का साथ दिया।
राजस्थान के खातोली नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के मध्य 5 घंटे तक भीषण युद्ध हुआ। मेवाड़ी सेना का अदम्य साहस और वीरता देखकर इब्राहिम लोदी दांतों तले उंगलियां दबाने लगा। पहली बार उसका सामना किसी शेर से हुआ था। इस युद्ध में इब्राहिम लोदी अपनी जान बचाकर भागने में सफल रहा। महाराणा सांगा से हारने के पश्चात इब्राहिम लोदी बदले की आग में जलने लगा और उसने अपनी सेना को पुनः इकट्ठा किया और धौलपुर में दोबारा युद्ध हुआ जिसमें महाराणा सांगा की विजय हुई।
महाराणा सांगा का मुगल योद्धा बाबर के साथ संघर्ष
सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद दिल्ली की सत्ता कमजोर होने लगी थी। खातोली के युद्ध में महाराणा सांगा से मिली पराजय तथा उसके व्यवहार ने लोदी सरदारों को अपना विरोधी बना लिया था। परिणामस्वरूप दौलत खान लोदी ने बाबर को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।
बाबर कितने वर्षों से इसी अवसर की तलाश में था, लिहाजा 1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में उसने ना केवल इब्राहिम लोदी को पराजित किया बल्कि उसे मौत के घाट उतारकर आगरा तथा दिल्ली का स्वामी बन बैठा। पानीपत विजय के बाद भी बाबर अपने शत्रुओं से घिरा हुआ था। एक तरफ इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी अफगानों को एकत्र कर रहा था। वहीं दूसरी तरफ राजस्थान का सबसे शक्तिशाली शासक महाराणा सांगा पूरे भारत पर अपनी सर्वोच्चता हासिल करने में जुटा हुआ था।
ठीक इसके विपरीत बाबर ने भी भारत में मुगल साम्राज्य स्थापित करने के मंसूबे बना रखे थे। बाबर भी इस बात को भलीभांति जान चुका था कि बिना महाराणा सांगा को पराजित किए मुगल साम्राज्य की स्थापना संभव नहीं है। दोनों का उत्तरी भारत में एक साथ बने रहना ठीक वैसा ही था जैसे एक म्यान में दो तलवारें। अत: बाबर और महाराणा सांगा के बीच युद्ध होना अनिवार्य हो चुका था।
बयाना का युद्ध
बाबर ने दिल्ली व आगरा जीत लिया तो वह पाँच दिन आगरा में ठहरा। उसके बाद बाबर ने फतेहपुर सीकरी पर अधिकार कर पड़ाव डाला। बयाना पर अधिकार करने हेतु बाबर ने अपने बहनोई मेहंदी ख्वाजा को भेजा। ख्वाजा ने बयाना जीत लिया।
पानीपत की लड़ाई के बाद अफगान नेता महाराणा सांगा की शरण में पहुंचे। राजपूत-अफगान मोर्चा बाबर के लिए भय का कारण बन गया। महाराणा सांगा के निमंत्रण पर अफगान नेता हसनखां मेवाती और महमूद लोदी, मारवाड़ के मालदेव, आमेर के पृथ्वीराज, ईडर के राजा भारमल, वीरमदेव मेड़तिया, वागड़ के रावल उदयसिंह, सलूम्बर के रावत रत्नसिंह, चंदेरी के मेदिनीराय, सादड़ी के झाला अज्जा, देवलिया के रावत बाघसिंह और बीकानेर के कुंवर कल्याणमल ससैन्य आ डटे।
इसी समय उत्तरप्रदेश के चन्दावर क्षेत्र से चन्द्रभान और माणिकचन्द चौहान भी ससैन्य राणा के पास आ पहुंचे। राणा सांगा पहले बयाना की ओर बढ़ा। ‘मेहंदी ख्वाजा’ ने सांगा का मार्ग रोकने के लिए अपने सैनिक दस्ते भेजे तथा हसन खाँ मेवाती को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया लेकिन हसन खाँ मेवाती इससे सर्वथा अप्रभावित होकर ससैन्य राणा सांगा से जा मिला।
बाबर ने दुर्ग में घिरी मुगल सेना की सहायतार्थ सुल्तान मिर्जा के नेतृत्व में एक सेना भेजी, लेकिन राजपूतों ने उसे परास्त कर खदेड़ दिया।16 फरवरी 1527 को भरतपुर राज्य में बयाना नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में जबरदस्त संघर्ष हुआ।
राणा सांगा ने बाबर की भेजी हुई सेना को ऐसी बुरी तरह परास्त किया कि पराजय का समाचार सुनकर मुगलों के छक्के छूट गये। राणा सांगा ने मुगलों के भारी असलहे को अपने कब्जे में ले लिया। बयाना की विजय राणा सांगा की अन्तिम महान् विजय थी।
खानवा का युद्ध
बयाना में मिली भयंकर हार के बाद मुगल सैनिक आतंकित हो चुके थे। मुगल सैनिकों का मनोबल गिर चुका था। अपनी सेना का मनोबल गिरते देखकर बाबर ने धैर्य से काम लिया। उसने “जिहाद” की घोषणा की। बाबर ने शराब न पीने की कसम खाई। यहां तक कि उसने मुसलामानों पर से तमगा (एक प्रकार का व्यापारिक कर) भी उठा लिया और अपनी सेना को कई तरह के प्रलोभन दिए। उसने अपने-अपने सैनिकों से निष्ठापूर्वक युद्ध करने और प्रतिष्ठा की सुरक्षा करने का वचन लिया। फलस्वरूप बाबर के सैनिकों में उत्साह का संचार हुआ।
बाबर ने जिस तुलुगमा युद्ध पद्धति का प्रयोग पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी के खिलाफ किया था, उसी चक्रव्यूह-रचना को उसने खानवा के युद्ध में इस्तेमाल किया। बता दें कि तुलुगमा युद्ध नीति का प्रयोग बाबर ने उज्बेक लड़ाकों से सीखा था। इस युद्ध नीति के तहत पूरी सेना को बाएँ, दाहिने और मध्य में विभाजित कर दिया जाता था। सेना के बाएँ और दाहिने भाग को आगे तथा अन्य टुकड़ियों को पीछे के भाग में रखा जाता था। इसमें दुश्मन को चारों तरफ से घेरने के लिए एक छोटी सेना का उपयोग किया जा सकता था।
भरतपुर-धौलपुर रोड पर रूपवास के निकट गांव खानवा, जहां 17 मार्च 1527 को बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध लड़ा गया। यह मैदान पहली बार युद्ध में इस्तेमाल की गई तकनीक का आज भी गवाह है। बाबर ने अपने तोपखाने और बंदूकों के बल पर सिर्फ 10 घंटे में राणा सांगा की सेना को हरा दिया।
कुछ अन्य इतिहासकारों के मुताबिक पहली मुठभेड़ राजपूतों के हाथ लगी लेकिन अचानक ही एक तीर आया और सांगा के आंख में लगा। वह युद्ध भूमि से दूर गए और राजपूत युद्ध हार गए। महाराणा सांगा के युद्ध हारते ही बाबर को उत्तर भारत में सीधी टक्कर देने वाला कोई शासक नहीं बचा था। ऐसे में बाबर का भारत में मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया। वहीं दूसरी तरफ युद्ध विरोधी सरदारों ने सांगा को जहर देकर मार दिया। 46 वर्ष की आयु में महाराणा सांगा का 30 जनवरी 1528 ई. को देहांत हो गया। खानवा की लड़ाई का एक परिणाम यह भी था कि भारतीय उपमहाद्वीप में तोपें युद्ध की आधार बन गईं।