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Surrender of Chhatrapati Shivaji Against Raja Jai Singh and Treaty of Purandar

60 साल के इस राजपूत राजा के सामने हथियार डालने पर मजबूर हो गए छत्रपति शिवाजी

दक्षिण में मुगलों की प्रतिष्ठा को धूल में मिला चुके थे छत्रपति शिवाजी-

दक्षिण के राज्यों के सुल्तान मुगलों के शत्रु थे ही, अत: छत्रपति शिवाजी के अधिक शक्तिशाली होने की स्थिति में यह भी सम्भावना थी कि दक्षिण के सुल्तान शिवाजी का नेतृत्व स्वीकार कर लें, जिससे दक्षिण में मुगलों का रहा-सहा प्रभाव भी समाप्त हो सकता था। इसके अतिरिक्त छत्रपति शिवाजी कई बार मुगल थानों को लूटकर मुगलों की स्थिति को कमजोर कर चुके थे। 10 फरवरी 1664 ई. को छत्रपति शिवाजी द्वारा सूरत में की गई लूटमार के दौरान मुगल किलेदार शाइस्ता खां भाग खड़ा हुआ था, और उसके परिवार की क्षति ने तो मुगलों की प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया था।

पूना को चार दिन तक अच्छी तरह लूटने के बाद शिवाजी वापस लौट गए थे, इस प्रकार मुगलों के खिलाफ शिवाजी का साहस उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा था। शिवाजी द्वारा मुगल परगनों और कारखानों को लूटना निरन्तर जारी ​था। यद्यपि मुगल बादशाह औरंगजेब ने शहजादा मोअज्जम और महाराजा जसवन्त सिंह को दक्षिण का अधिकारी बनाकर भेजा था, किन्तु ये दोनों शिवाजी के विरूद्ध नाकाम रहे। ऐसे में औरंगजेब ने छत्रपति शिवाजी पर अंकुश लगाने के लिए मिर्जा राजा जयसिंह को दक्षिण में नियुक्त करने का निर्णय लिया। चालाक औरंगजेब ने राजा जयसिंह को मात्र सैनिक अधिकारी के रूप में ही नियुक्त नहीं किया था वरन उसे हर प्रकार के अधिकार भी दिए थे ताकि वह दक्षिण में परिस्थितियों के अनुसार अपनी नीति का प्रयोग कर सके। इस प्रकार मिर्जा राजा जयसिंह अपने राजपूत सैनिकों के साथ नर्मदा नदी पारकर 3 मार्च 1665 ई. को पूना पहुंचे और जसवन्त सिंह से कार्यभार ग्रहण किया।

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शक्तिशाली योद्धा मिर्जा राजा जयसिंह की नियुक्ति-

मिर्जा राजा जयसिंह अपने समय का योग्यतम सेनापति और कूटनीतिज्ञ था। वह तुर्की, फारसी, उर्दू  और राजस्थानी भाषा का ज्ञाता था। शाहजहां के शासनकाल में उसने मुगल साम्राज्य के प्रत्येक भाग में युद्ध किया था। मुगल दरबार ने बल्ख से लेकर दक्षिण त​क और कन्धार से लेकर बंगाल तक के युद्धों में उसकी सेवाओं का लाभ उठाया था। शाहजहां के काल का एक भी वर्ष ऐसा न था जब राजा ​जयसिंह ने किसी न किसी प्रकार की सफलता प्राप्त न की हो और बादशाह से सम्मान और पद प्राप्त न किया हो। सैकड़ों युद्धों में भाग ले चुके इस योग्य राजपूत सेनापति और शासक को 60 वर्ष की उम्र में औरंगजेब ने छत्रपति शिवाजी के विरूद्ध भेजा।

मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा सफल कूटनीति और शक्ति का प्रयोग-

राजा जयसिंह ने छत्रपति शिवाजी महाराज के विरूद्ध शक्ति और कूटनीति दोनों का सहारा लिया। उन्होंने दक्षिण पहुंचकर ऐसी योजना बनाई कि शिवाजी को कहीं से सहायता न मिल सके। चूंकि एक शक्तिशाली मुगल सेना के दक्षिण में प्रवेश करने से यह सम्भावना थी कि गोलकुण्डा और बीजापुर के राज्य तथा शिवाजी मुगलों के विरूद्ध एक न हो जाएं, इसलिए राजा ​जयसिंह ने ​आदिलशाह सहित आसपास के छोटे-मोटे शासकों से ​शिवाजी के ​विरूद्ध सहायता मांगी। जयसिंह की नीति सफल रही और बीजापुर ने शिवाजी का साथ नहीं दिया। वे सभी मराठा सरदार जो शिवाजी से ईर्ष्या करते थे, मुगलों की सेवा करने के लिए प्रोत्साहित किए गए। जयसिंह ने इन सभी मराठा सरदारों को लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का पूरा प्रयत्न किया।

इसके अतिरिक्त जयसिंह ने कोंकण के पोलिगारों, जंजीरा के सीदियों तथा पुर्तगालियों से भी सहायता मांगी। इन सभी प्रयत्नों का अभिप्राय यही था कि शिवाजी को किसी शक्ति से सहायता न मिल सके और वह अकेला रह जाए। इस प्रकार पूरी तैयारी के साथ मिर्जा राजा जयसिंह ने छत्रपति​ शिवाजी पर आक्रमण किया।

मजबूत आक्रमण के जरिए छत्रपति शिवाजी की घेराबंदी-

मिर्जा राजा जयसिंह एक तरफ तो शिवाजी से बातचीत कर रहा था तो दूसरी तरफ अपनी सैनिक तैयारियां भी कर रहा था। बरसात शुरू होने की सम्भावना को देखते हुए उसने सरवाड़ के निकट मुगल सेना की छावनी डाल दी। पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए उसने लोहगढ़ में 7000 सैनिकों को कुतुबुद्दीन खां के नेतृत्व में भेज दिया। रायगढ़ में शिवाजी का खजाना था अत: वहां उसने दिलेरखां को भेज दिया। स्वयं जयसिंह 31 मार्च को पूना से सारवाड़ पहुंचा जहां पुरन्दर का दुर्ग लेने की योजना थी।

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पुरन्दर दुर्ग से 300 फीट नीचे एक और दुर्ग है, जो माची का दुर्ग कहलाता है। माची के दुर्ग में मराठों का शस्त्रागार और सैनिक चौकी थी। इसी दुर्ग के अन्तर्गत एक मील लम्बे पहाड़ पर वज्रगढ़ का दुर्ग है जहां पुरन्दर का प्रमुख सैनिक मोर्चा था। इसी किले पर कब्जा करने के लिए राजा जयसिंह ने 14 अप्रैल को मोर्चाबन्दी की। इस कठोर मोर्चाबन्दी से घबराकर कई मराठों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसी समय जयसिंह ने दाउदखां के नेतृत्व में 6000 सै​निकों को आसपास की खेती, पशु और बस्तियों को नष्ट करने के लिए भेज दिया ताकि शिवाजी को आसपास से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता न मिल सके। 

इसके बाद राजा जयसिंह ने माची दुर्ग पर गोलाबारी शुरू कर दी तथा वहां की नाकेबन्दी को ध्वस्त कर दिया। यद्यपि मराठों ने बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया लेकिन मुट्ठीभर मराठे विशाल मुगल सेना का कब तक मुकाबला कर सकते थे। इस युद्ध में मराठा वीर मुरारबाजी मारा गया बावजूद इसके मराठे हतोत्साहित नहीं हुए, हांलाकि मराठा सैनिक तकरीबन 2 महीने तक युद्ध करते-करते थक चुके थे। चूंकि आसपास की खेती और बस्तियां पूरी तरह से नष्ट हो चुकी थीं, ऐसे में शिवाजी ने देखा कि अब पुरन्दर के किले की रक्षा सम्भव नहीं हो सकेगी साथ ही इन परिस्थितियों में युद्ध करना आत्महत्या के समान होगा। इसलिए उन्होंने अपने कुछ खास लोगों को राजा जयसिंह के भेजा और स्वयं उनसे मिलने का प्रस्ताव किया। इस बीच मिर्जा राजा जयसिंह और शिवाजी के बीच संवादों का आदान-प्रदान होता रहा लेकिन जयसिंह अपने प्रतिद्वंदी शिवाजी से तब तक नहीं मिलना चाहता था जब तक कि शिवाजी उसके सामने पूर्णरूप से आत्मसमर्पण  न कर दें तथा अपने दुर्ग उसे न सौंप दें।

आखिरकार छत्रपति शिवाजी महाराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। शिवाजी के विश्वस्त ब्राह्मणों ने जाकर जयसिंह से शपथपूर्वक कहा कि शिवाजी किले से बाहर आ चुके हैं और वे मुगलों की आधीनता स्वीकार करना चाहते हैं तब जयसिंह ने भी शिवाजी के प्राण और सम्मान की रक्षा का वचन दिया।

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पुरन्दर की सन्धि (जून 1665 ई.)-

11 जून 1665 ई. को छत्रपति शिवाजी अपने छह ब्रा​ह्मण सलाहकारों के साथ पालकी में बैठकर जयसिंह से मिलने उसके शिविर में आए। जयसिंह ने शिवाजी को अपनी छाती से लगाया और अपने पास बैठाया। जयसिंह जानते थे कि औरंगजेब शंकालु प्रवृत्ति का है अत: उन्होंने पहले शिवाजी को दिलेरखां के पास भेज दिया ताकि औरंगजेब को सन्देह करने का अवसर न मिले। दिलेरखां ने शिवाजी के कमर में तलवार बांधकर सम्मानित किया और पुन: जयसिंह के पास भेज दिया। इस प्रकार जयसिंह और शिवाजी के बीच जून 1665 में एक सन्धि हुई जिसे पुरन्दर की सन्धि कहा जाता है। इस सन्धि की शर्तें कुछ इस प्रकार थीं-

1- छत्रपति शिवाजी ने अपने 35 किलों में से 23 किले मुगलों को सौंप दिए और 4 लाख हूण की वार्षिक आय की भूमि मुगलों को दे दी।

2- रायगढ़ सहित कुल 12 छोटे-छोटे दुर्ग शिवाजी के पास ही रहने दिए गए और 1 लाख हूण की वार्षिक आय की भूमि शेष रही।

3- छत्रपति शिवाजी ने मुगलों की आधीनता स्वीकार करने के सा​थ ही अपने पुत्र शम्भाजी को 5000 घुड़सवारों के साथ मुगलों की सेवा में भेजना स्वीकार किया।

4- शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों को सैनिक सहायता देने का वायदा किया।

5- शिवाजी ने यह भी वायदा किया कि यदि उन्हें कोंकण में 4 लाख हूण की वार्षिक आय की भूमि और बालाघाट में 5 लाख हूण की भूमि दे दी जाए तो वह मुगलों को 13 वर्षों में 40 लाख हूण देंगे। सबसे बड़ी बात कि इन प्रदेशों को शिवाजी को स्वयं ही जीतना था।

गौरतलब है कि महज तीन महीने में ही जयसिंह की कूटनीति और शक्ति ने छत्रपति​ शिवाजी को मुगलों की आधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया।