मध्ययुग के इतिहासकारों में मुगल विद्वान शेख अबुल फजल का एक विशिष्ट स्थान है। अबुल फजल के विशिष्ट होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उसके ग्रन्थों में बुद्धितत्व अधिक है। अबुल फजल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि वह अकबर की महानता को एक स्पष्ट तथा सन्तुलित रूप देने में सफल हुआ।
शेख मुबारक नागौरी के पुत्र शेख अबुल फजल अल्लामी का जन्म आगरा में 14 जनवरी 1551 को हुआ था। पिता शेख मुबारक तथा उसके दोनों पुत्र शेख फैजी और शेख अबुल फजल यानि तीनों ही उस युग के महान विद्वान थे। उदार विचारों तथा सूफी जीवनधारा के लिए प्रख्यात शेख मुबारक के व्यक्तित्व का उसके पुत्र अबुल फजल पर गहरी छाप पड़ी। 15 वर्ष की आयु में अबुल फजल ने तत्कालीन शिक्षा पद्धति के मुताबिक विद्या की सभी शाखाओं का अध्ययन समाप्त कर लिया। 20 वर्ष की उम्र में अबुल फजल एक शिक्षक के रूप में कार्य करने लगा था।
चूंकि अबुल फजल का परिवार सूफी विचारधारा का पालन करता था, इस कारण शक्तिशाली उलेमा वर्ग ने उन पर बड़े अत्याचार किए। तकरीबन 20 वर्षों तक यह अत्याचार सहन करने के बाद अपनी प्राण रक्षा के लिए अबुल फजल के परिवार ने शेख सलीम चिश्ती से मध्यस्थता की कोशिश की जिन्होंने उन्हें गुजरात पलायन करने की सलाह दी। यह सौभाग्य था कि इसी बीच इस परिवार को अकबर ने अपनी कृपा और सुरक्षा प्रदान की। यही वो दौर था जब अकबर ने उलेमा वर्ग के प्रभाव को समाप्त करने के लिए इबादतखाने की स्थापना की।
साल 1573-74 ई. में शेख अबुल फजल अपने भाई फैजी के साथ अकबर के सामने उपस्थित हुआ। पहली बार अबुल फजल ने अकबर की विजय से संबंधित एक टिप्पणी लिखकर इबादतखाने में प्रस्तुत करने की इच्छा व्यक्त की जिसकी सम्राट ने प्रशंसा की। यहीं से बादशाह अकबर अपने दरबारी अबुल फजल के विचारों से प्रभावित हुआ। उलेमा वर्ग के पतन के साथ ही अबुल फजल और फैजी की शाही दरबार में उन्नति नियमित रूप से होती रही। यहां तक कि अबुल फजल की निष्ठा से संतुष्ट होकर अकबर ने शासन के 45वें वर्ष में उसे 5000 का मनसब प्रदान किया। इतना ही नहीं अकबर ने खानदेश की सुरक्षा के साथ असीरगढ़ विजय का भार भी अबुल फजल को सौंप दिया। असीरगढ़ दुर्ग का पतन अबुल फजल के कूटनीतिक प्रयासों का ही परिणाम था। जिस समय मुगल राजकुमार सलीम ने विद्रोह किया और इलाहाबाद में अपना दरबार लगाना शुरू किया, तब अकबर भी आगरा लौट आया।
बता दें कि मुगल बादशाह अकबर अपने राज्य के अधिकांश काम-काज में दरबार के नवरत्नों में से एक अबुल फजल से ही राय-मशविरा करता था। ऐसे में मुगल साम्राज्य के खिलाफ बगावत करने वाले सलीम की नजरों में अबुल फजल बहुत ज्यादा खटकता था। परिणामस्वरूप वह मुगल बादशाह अकबर के बेटे सलीम यानि जहांगीर के षड्यंत्र का शिकार हो गया। दरअसल सलीम यानि जहांगीर ने अबुल फजल की हत्या करवा दी। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर सलीम ने ऐसा क्यों किया?
यह घटना उन दिनों की है जब सलीम के लोगों ने उसे भड़काया कि अकबर खुसरो को मुगल बादशाह बनाने की सोच रहा है और अबुल फजल भी इस षड्यंत्र में शामिल है। तात्पर्य यह है कि राजकुमार सलीम के सिंहासन पर बैठने का विरोध करने वालो में एक नाम अबुल फ़ज़ल का भी था।
संयोगवश यही वो दौर था जब अहमदनगर की निजामशाही और मुगल साम्राज्य के बीच संघर्ष चल रहा था। इस मसले के निपटारे के लिए अकबर ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी और सलाहकार अबुल फजल को दक्कन में भेजा था साथ ही अकबर ने उससे यह भी कहा था कि वह लौटते वक्त सलीम से मिले और मनाकर अपने साथ आगरा लाए। इसलिए अकबर के आदेश पर अबुल फजल दक्षिण चला गया।
साल 1602 में जहांगीर को सूचना मिली कि अकबर ने अबुल फजल को मुगल दरबार में तुरन्त हाजिर होने के लिए पैगाम भेजा है। जहांगीर इस खबर से चिन्तित हो उठा था, इसलिए वह सोचने लगा कि किसी भी तरह से अबुल फजल को अकबर तक पहुंचने से रोका जाए। मुगल बादशाह अकबर के प्रति अबुल फजल की वफादारी देखकर सलीम ने उसे अपने रास्ते से हटाने का निर्णय लिया।
ऐसे में 1602 में दक्षिण से वापसी के मार्ग में जहांगीर ने अबुल फजल की हत्या के लिए ओरछा के राजा बीर सिंह देव बुन्देला के साथ मिलकर साजिश रची। सलीम ने वीरसिंह देव बुन्देला से कहा कि यदि वह अबुल फजल का सिर काटकर लाएगा तो उसे ओरछा का राजा बना देगा।
हांलाकि रास्ते में ही अबुल फजल को वीरसिंह बुन्देला के नापाक इरादों का पता चल चुका था, लेकिन अबुल फजल अपने शत्रु वीरसिंह बुन्देला को लुटेरा समझता था। अपनी कृति अकबरनामा में अबुल फजल ने वीरसिंह बुन्देला को डाकू की संज्ञा दी है। अबुल फजल को उसके सहयोगियों ने चेताया भी था और सलाह दी थी कि उसे मालवा में चांदी घाटी के रास्ते से जाना चाहिए। इस मशविरे को नजरअन्दाज करते हुए अबुल फजल ने कहा कि “डाकुओं की क्या मजाल कि मेरा रास्ता रोकें।”
ऐसे में पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार, वीरसिंह देव बुन्देला ने मध्यप्रदेश के भोपाल से तकरीबन 63 किमी. दूर नरवर के पास (सरायवीर और आतंरी के बीच) अबुल फजल की सैनिक टुकड़ी पर हमला कर दिया। बीर सिंह देव बुन्देला के सैनिक कवच पहनकर तलवार लहराते हुए पहुंचे। तभी एक राजपूत ने बर्छे से अबुल फजल पर इतनी तेजी से वार किया किया यह आर-पार हो गया। बावजूद इसके अबुल फजल की मृत्यु नहीं हुई थी, उसके शरीर से खून निकल रहा था। तत्पश्चात वीर सिंह देव बुन्देला ने अपनी तलवार निकाली और एक झटके में अबुल फजल का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार 12 अगस्त 1602 को वीरसिंह बुन्देला के हमले में अबुल फ़ज़ल की मौत हो गई। अबुल फजल का सिर काटकर सलीम यानि जहांगीर के पास इलाहाबाद भेजा गया। अबुल फ़ज़ल को आंतरी गांव में दफनाया गया था अत: इसी गांव में उसका मकबरा भी मौजूद है।
अबुल फ़ज़ल की मौत की खबर सुनकर ने अकबर ने कहा था, “यदि शहज़ादा बादशाहत चाहता था, तो उसे मुझे मारना चाहिए था, न कि अबुल फ़ज़ल को।” जब कटे हुए सिर के साथ अबुल फजल को मुगल दरबार में लाया गया तब अकबर के मुंह से एक शेर निकला- 'जब शेख़ हमारी ओर बड़े आग्रह से आया, तब हमारे पैर चूमने की इच्छा को बिना सिर-पैर के आया’। अबुल फजल की मृत्यु से अकबर को इतना गहरा सदमा लगा था कि उसने खुद को तीन दिनों तक महल के अंदर बंद रखा। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि अकबर अपने वफादार अबुल फजल की हत्या की खबर सुनते ही बेहोश हो गया था और तीन दिनों तक रोता रहा। इतना ही नहीं, अबुल फजल की हत्या के ठीक तीन साल बाद अक्टूबर 1605 में अकबर की भी मृत्यु हो गई।
सलीम जब 1605 ई. में जहांगीर के रूप में मुगल बादशाह बना तो उसने वीरसिंह देव बुन्देला को 3000 का मनसब दिया। जहांगीर अपनी आत्मकथा तुजुके जहांगीरी में लिखता है कि अबुल फजल की हत्या मैंने ही कराई। मेरा लक्ष्य केवल बादशाह बनना था ऐसे में जब अबुल फजल के बेटे से मिला तो मेरे मन में अपराध का बोध नहीं था। चौंकाने वाली बात यह है कि अबुल फजल का बेटा भी अपने पिता की मृत्यु के बाद जहांगीर का विश्वनीय बनकर उभरा।
अबुल फजल के ऐतिहासिक ग्रन्थ
अबुल फजल ने स्वयं को एक बेहतरीन लेखक, राजनेता, कूटनीतिज्ञ एवं सेनाधिपति के रूप में प्रतिष्ठित किया था। उसकी महत्वपूर्ण कृतियां निम्नलिखित हैं-
1. अकबरनामा- इसमें अकबर के शासनकाल का विस्तृत इतिहास है। अकबरनामा तीन भागों में है, प्रथम भाग में हुमायूं तक अकबर के सभी पूर्वजों का वर्णन है। दूसरे भाग में अकबर के 46वें वर्ष तक के शासन का तिथिक्रम के अनुसार विवरण है। इसका तीसरा भाग आईन-ए-अकबरी है, जिसमें अकबर के बृहद प्रशासकीय प्रलेख हैं।
2. आईन-ए-अकबरी- मुगल बादशाह अकबर के पूरक ग्रन्थ के रूप में अबुल फजल की यह महत्वपूर्ण कृति है।
3. मकतूबात-ए-अल्लामी या ईन्शा-ए-अबुल फजल- इसमें मुगल बादशाह अकबर के शाही पत्र और फरमान आदि का उल्लेख है।
4. रूक्यात-ए-अबुल फजल- इसमें अबुल फजल के मित्रों, सम-सामयिक व्यक्तियों द्वारा उसके नाम लिखे गए व्यक्तिगत पत्रों का समूह है। इसका संग्रह नूर मुहम्मद ने किया था।
5. अयार-ए-दानिश- इसमें उसने कालियादमन का सरल फारसी भाषा में अनुवाद किया है।
6. मनाजत-ए- अबुल फजल-इसमें ईश्वर के लिए प्रार्थनाएं एवं उसके अस्तित्व एवं प्रकृति की विवेचना की गई है।