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India gave Pakistan 12 villages in exchange for this special item belonging to Bhagat Singh

भगत सिंह की इस खास चीज के बदले भारत ने पाक को दिए थे 12 गांव

पाकिस्तान का राष्ट्रीय गान कौमी तराना जब तक लिखा नहीं गया था तब तक पाकिस्तान में मेरा रंग दे बसन्ती चोला गाया जाता था। मेरा रंग दे बसन्ती चोला….’  को रामप्रसाद बिस्मिल ने जेल में लिखा था। कालान्तर में भारतीय सिनेमा ने इन पंक्तियों को भगत सिंह से जोड़ दिया।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि 23 मार्च 1931 को जब भगत सिंह को फांसी की सजा दी गई तब अभी पाकिस्तान का जन्म नहीं हुआ था। ऐसे में यह कहना बिल्कुल लाजिमी है कि सरदार भगत सिंह भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए हीरों हैं। लेकिन क्या पाकिस्तान भी भगत सिंह को अपना हीरो मानता हैजबकि भगत सिंह का जन्म भी आज के पाकिस्तान में ही हुआ था। दरअसल जवानी के दिनों से लेकर फांसी चढ़ने (लाहौर जेल) तक भगत सिंह का ज्यादातर जीवन आज के पाकिस्तान में ही बीता।

अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर में सरदार भगत सिंह को पाकिस्तान किस नजरिए देखता है? दरअसल पाकिस्तान ने 12 गांवों के बदले शहीद--आजम भगत सिंह की कौन सी खास चीज भारत को दी थी। इन संवदेनशील तथ्यों को जानने के लिए यह रोचक स्टोरी जरूर पढ़ें। 

भगत सिंह का जन्म स्थान

शहीद--आजम भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 ई. को पश्चिमी पंजाब ​के लायल शहर स्थित बंगा नामक गांव में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। किसान परिवार में जन्मे भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।

किन्तु यह शहर अब पाकिस्तान में नक्शे में नजर नहीं आता है। क्योंकि साल 1977 में सऊदी अरब के शाह फैसल के नाम पर लायल शहर का नाम बदलकर फैसलाबाद कर दिया गया। यह सच है कि भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह का पैतृक निवास खटकरकला था, साल 1900 में भगत सिंह के दादा अर्जुन सिंह खटकरकला से लायलपुर चले गए थे।

हांलाकि भगतसिंह की फांसी के बाद उनके माता-पिता दोबारा खटकरकला लौट आए, यही वजह है कि भगत सिंह का जन्मस्थान भारत माना जाता है। आजादी के बाद भगत सिंह के परिवार के बाकी सदस्य भी खटकरकला ही आकर बस गए।

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लाहौर से है भगत सिंह का गहरा कनेक्शन

पाकिस्तान के लाहौर से भगत सिंह का गहरा नाता है। लाहौर के डीएवी स्कूल से उनकी पढ़ाई शुरू हुई। बाद में नेशनल कॉलेज, लाहौर में उन्होंने एडमिशन लिया। लाहौर में ही मौजूद है वह जगह जहां भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद सहित उनके साथियों ने जेम्स स्कॉट का इंतजार करते हुए सहायक पुलिस अधीक्षक जे. पी. सांडर्स को गोली मारी थी।

सांर्डस को गोली मारने के बाद भगत सिंह और उनके साथी इसी कॉलेज की तरफ भागे थे। इस कांड में सांडर्स के अलावा एक अन्य पुलिसकर्मी भी मारा गया था। हांलाकि भारत विभाजन के बाद डीएवी कॉलेज, लाहौर का नाम बदलकर गवर्नमेन्ट इस्लामिया कॉलेज कर दिया गया। 

पाकिस्तान की दो बड़ी श​ख्सियतों के साथ भी भगत सिंह के नजदीकी सम्बन्ध थे। सांडर्स की हत्या के दौरान भगत सिंह ने ख्वाजा फिरोजुद्दीन के यहां भी एक दिन गुजारे थे। ख्वाजा फिरोजुद्दीन पाकिस्तान के विचारक और राष्ट्रीय कवि अल्लामा इकबाल के दामाद थे। अल्लामा इकबाल का मशहूर तराना सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा...आज भी भारत में गाया जाता है।

वहीं, पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना भी भगत सिंह के प्रति सहानुभूति रखते थे। पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल जैसे जनविरोधी कानूनों के विरोध में  भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली (नई दिल्ली) के सभागार में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे। इसके बाद उन दोनों ने वहीं पर आत्मसमर्पण कर दिया। तत्पश्चात अंग्रेजी शासन के नीतियों के विरूद्ध जेल में बंद भगत सिंह और उनके साथियों ने भूख हड़ताल कर दी।

इस दौरान अंग्रेजी सरकार ने इन क्रांतिकारियों की अनुपस्थिति में मुकदमा चलाने के लिए सेन्ट्रल असेम्बली में एक बिल पास किया था, इसके विरोध में मुहम्मद अली जिन्ना ने बयान दिया था - “यह कोई मजाक नहीं है, मरते दम तक भूख हड़ताल करना हर किसी के बस की बात नहीं है। विश्वास नहीं हो तो खुद कोशिश करके देख लो। जो शख्स भूख हड़ताल पर गया है, उसकी भी आत्मा है। उसे अपने उद्देश्य पर भरोसा है। वो कोई आम अपराधी नहीं है। जिसने महज एक हत्या को अंजाम दिया हो।

बावजूद इसके भगत सिंह और उनके साथियों को बिना पेशी के फांसी की सजा सुना दी गई। भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन के अध्यक्ष इम्तियाज राशिद कुरैशी के अनुसार, भगत सिंह के मामले में जजों ने 450 गवाहों को सुने बिना ही मौत की सजा सुना दी थी। इम्तियाज कहते हैं, ब्रिटिश हुकूमत ने भगत सिंह का अदालती कत्ल किया था।

ध्यान रहे, साल 1961 में पाकिस्तान सरकार ने लाहौर सेन्ट्रल जेल की जगह एक कॉलोनी बनवा दी। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को जिस जगह फांसी दी गई, वह जगह सादमान चौक (वर्तमान में भगत सिंह चौराहा) के नाम से जाना जाता है।

भारत ने पाकिस्तान को दिए थे 12 गांव

भगत सिंह की फांसी के बाद लाहौर सेन्ट्रल जेल के बाहर पूरा हुजूम इकट्ठा हो गया था जिससे अंग्रेजी प्रशासन घबरा गया। रात के अन्धेरे में ही जेल की दीवार तोड़कर ट्रक में इनकी लाशों को लादकर पिछले दरवाजे से लाहौर से 60 किमी. दूर हुसैनीवाला ले गए थे। अंग्रेजों ने हुसैनीवाला के पास सतलज नदी के किनारे भगत सिंह, राजगुरू और सुखेदव की लाशों पर मिट्टी का तेल छिड़कर जल्दबाजी में जला दिया और अधजले शव छोड़कर ही भाग गए।

24 मार्च 1931 की सुबह भगत सिंह की छोटी बहन अमर कौर और लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती बाई सहित तकरीबन 200 से 300 लोग हुसैनीवाला पहुंचे जहां भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की अधजली हड्डियां मिलीं। इन मृत क्रांतिकारियों के शरीर के टुकड़ों को एकत्र कर रावी नदी के तट पर दोबारा दाह संस्कार किया गया। 26 मार्च 1931 को ​दैनिक अखबार ट्रिब्यून लिखता है कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखेदव का उसी जगह पर दाह संस्कार किया गया जहां लाला लाजपत राय का अंतिम संस्कार किया गया था।

भारत-पाक सीमा के करीब स्थित  हुसैनीवाला आज की तारीख में राष्ट्रीय शहीदी स्मारक बना हुआ है। बंटवारे के वक्त हुसैनीवाला भारत का हिस्सा नहीं था, यह इलाका पाकिस्तान में चला गया था। साल 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कोशिशों से हुसैनीवाला को भारत में शामिल किया गया। हुसैनीवाला के बदले में भारत ने पाकिस्तान को 12 गांव दिए थे।

चूंकि भगत सिंह का जीवन आधुनिक पाकिस्तान के जन्म से पहले का है। यह सच है कि भगत सिंह का दृष्टिकोण द्विराष्ट्र सिद्धांत के विपरीत था। यही वजह है कि पाकिस्तान में भगत सिंह को या तो हीरो या फिर इस्लामी मूल्यों के लिए खतरा माना जाता है। 

राष्ट्रीय शहीदी स्मारक, हुसैनीवाला

भारत-पाकिस्तान सीमा से तकरीबन एक किलोमीटर दूर सतलुज नदी के किनारे हुसैनीवाला वह स्थान है जहां 23 मार्च 1931 को ब्रिटिश पुलिसकर्मियों ने लाहौर जेल की पिछली दीवार तोड़कर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शवों का गुप्त रूप से अंतिम संस्कार कर दिया था। इस जगह पर बटुकेश्वर दत्त का भी अंतिम संस्कार किया गया था। यही नहीं, भगत सिंह की मां विद्यावती देवी के इच्छानुसार उनका भी यहीं अंतिम संस्कार हुआ था।

राष्ट्रीय शहीदी स्मारक, हुसैनीवाला निर्माण साल 1968 में हुआ था। देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान का हिस्सा था हुसैनीवाला, किन्तु सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ और एआईवाईएफ ने हुसैनीवाला को वापस दिलाने के लिए जनसभाएं और विरोध प्रदर्शन किए। इसके बाद  पाकिस्तान सरकार ने 17 जनवरी 1961 को 12 गांवों के बदले इसे भारत को लौटा दिया। हुसैनीवाला स्थित राष्ट्रीय शहीदी स्मारक पर प्रति वर्ष 23 मार्च को शहीदी मेला लगता है।

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