चीनी बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग का जन्म तकरीबन 600 ई. में कन्फ्यूसियस धर्म को मानने वाले एक परिवार में हुआ था। ह्वेनसांग बचपन के दिनों में ही बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुआ था इसलिए 20 वर्ष की आयु में वह एक बौद्ध भिक्षु के रूप में चीन के विभिन्न विहारों में जाकर बौद्ध धर्म का अध्ययन करने लगा। चीनी भाषा में अनूवादित बौद्ध ग्रन्थों के अध्ययन से ह्वेनसांग की ज्ञान पिपासा शान्त नहीं हुई, अत: उसने भारत आकर बौद्ध धर्म के मूल ग्रन्थों का अध्ययन करने तथा भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों से जुड़े पवित्र स्थानों के दर्शन करने का निर्णय लिया।
इस प्रकार ह्वेनसांग ने 29 वर्ष की उम्र में अपने दो साथियों के साथ 629 ई. में प्रस्थान भारत के लिए किया। चूंकि ह्वेनसांग के साथी मार्ग में होने वाली कठिनाईयों को सहन नहीं कर सके इसलिए वे स्वदेश लौट गए। अत: ह्वेनसांग हिन्दूकुश पर्वतमाला को पार कर 630 ई. में भारत पहुंचा। भारत पहुंचकर बौद्ध धर्म के जिन ग्रन्थों को उसने नहीं पढ़ा था, उन सभी का भलीभांति अनुशीलन किया।
ह्वेनसांग लगभग 15 वर्षों तक भारत में रहा और इस देश के लगभग प्रत्येक राज्य का भ्रमण किया। भारत प्रवास के दौरान उसने केवल बौद्ध धर्म का ही अनुशीलन नहीं किया बल्कि देश के सामाजिक, रीति-रिवाज, ऐतिहासिक अनुश्रुतियों आदि का भी गम्भीरता से अध्ययन किया। उसने अपनी भारत-यात्रा का वृत्तांत एक पुस्तक में रूप में लिखा जिसका नाम सी-यू-की है। उसने कुल 74 ग्रन्थों का अनुवाद किया। चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग विभिन्न धर्मग्रन्थों को अपने साथ लेकर 645 ई. में स्वदेश लौट गया जहां 669 ई.में उसकी मृत्यु हो गई।
आपको जानकारी के लिए बता दें कि ह्वेनसांग कश्मीर, पंजाब तथा थानेश्वर के रास्ते कन्नौज पहुंचा था जहां सम्राट हर्षवर्धन ने उसका खूब सम्मान किया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है। प्रति पाँचवें वर्ष हर्षवर्धन सर्वस्व दान करता था। इसके लिए बहुत बड़ा धार्मिक समारोह करता था। कन्नौज और प्रयाग के समारोहों में ह्वेनसांग उपस्थित था।
ह्वेनसांग कन्नौज से अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रीवास्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, वाराणसी और वैशाली होते हुए मगध पहुंचा। हांलाकि ह्वेनसांग जब पाटलिपुत्र पहुंचा तब पाटलिपुत्र का वैभव क्षीण हो चुका था। ह्वेनसांग पाटलिपुत्र में ज्यादा दिनों तक नहीं रूका और वहां के प्रसिद्ध स्तूपों, विहारों तथा बोधि-वृक्ष के दर्शन कर नालन्दा पहुंच गया। नालन्दा में 18 महीने रहकर उसने बौद्ध धर्म के विभिन्न ग्रन्थों का गम्भीरता से अध्ययन किया। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में नालन्दा विश्वविद्यालय के बारे में जो कुछ भी लिखा है उसे जानकर आप दंग रह जाएंगे।
ह्वनेसांग द्वारा लिखित नालन्दा विश्वविद्यालय से जुड़ी कुछ अनोखी बातें
- चीनी यात्री ह्वेनसांग लिखता है कि नालन्दा विश्वविद्यालय का संस्थापक शक्रादित्य था। बौद्ध धर्म के त्रिरत्नों के प्रति महती श्रद्धा के कारण उसने इस विश्वविख्यात विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई थी। शक्रादित्य की पहचान कुमारगुप्त प्रथम (415-455 ई.) के रूप में की जाती है। जिसकी सुप्रसिद्ध उपाधि ‘महेन्द्रादित्य’ की थी।
- हर्षवर्धन के काल में नालन्दा को पूर्ण राजकीय संरक्षण मिला जिसके परिणामस्वरूप यह विश्वविद्यालय पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गया।
-ह्वेनसांग की जीवनी लिखने वाले लेखक ह्री-ली के मुताबिक, नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों की संख्या दस हजार थी, जहां शिक्षा का स्तर उच्च कोटि का था।
- नालन्दा विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन थी। प्रवेश परीक्षा में दस में से केवल तीन विद्यार्थी ही बड़ी मुश्किल से सफल हो पाते थे। यहां के स्नातकों का बड़ा सम्मान था, पूरे देश में कोई इनकी समानता नहीं कर सकता था। इस विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के लिए विद्यार्थियों की अपार भीड़ लगी रहती थी।
- ह्वेनसांग अपने 18 महीने के अध्ययन काल के विषय में लिखता है, ‘सूत्रों और शास्त्रों को पढ़ाने के लिए कुलपति सहित कुल 1510 आचार्य नियुक्त थे। इनमें 1500 आचार्य केवल सूत्रों तथा शास्त्रों के 20 संग्रहों का अर्थ समझा सकते थे। 500 विद्वान ऐसे थे जो 30 संग्रहों को पढ़ा सकते थे। जबकि 10 आचार्य ऐसे थे जो 50 संग्रहों की व्याख्या कर सकते थे।’
- नालन्दा विश्वविद्यालय के कुलपति का नाम शीलभद्र था जो सूत्रों-शास्त्रों के 100 संग्रहों के ज्ञाता थे। वह सभी विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे।
- नालन्दा विश्वविद्यालय में आचार्य अपने छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के प्रत्येक पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।
- नालंदा की खुदाई में मिली अनेक काँसे की मूर्तियों के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।
- इस विश्वविद्यालय में वेद, वेदांत, सांख्य, व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र के पाठ्यक्रम उपलब्ध थे।
- नालन्दा विश्वविद्यालय में भारत के प्रत्येक राज्यों के अतिरिक्त चीन, मंगोलिया, तिब्बत, कोरिया, जापान, इंडोनेशिया, फारस, तुर्की और मध्यएशिया आदि देशों से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
- चीनी यात्री एवं बौद्ध भिक्षु इत्सिंग ने नालन्दा विश्वविद्यालय में रहकर 400 संस्कृत ग्रंथों की पाण्डुलिपियां तैयार की थी। चीनी यात्रियों के नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रति आकर्षण का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि यहां उन्हें बौद्ध ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां उपलब्ध हो जाती थीं।
— आठवीं शती के कन्नौज नरेश यशोवर्मन के नालन्दा से प्राप्त प्रस्तर अभिलेख के अनुसार, “नालन्दा की गगनचुम्बी पर्वतशिखर के समान विहारावलियां पृथ्वी के उपर ब्रह्मा द्वारा विरचित सुन्दर माला के समान शोभायमान हो रही थीं।” अर्थात नालन्दा विश्वविद्यालय में बने बौद्ध विहारों की ऊंचाई बहुत ज्यादा थी।
— ह्वेनसांग का जीवनचरितकार ह्री-ली ने नालन्दा विश्वविद्यालय के भवनों के बारे में अत्यंत रोचक विवरण लिखा है, “नालन्दा विश्वविद्यालय ईटों की दीवार से घिरा है, एक द्वार विद्यापीठ की ओर है, अन्य आठ हाल अलग-अलग बीच में स्थित हैं। विश्वविद्यालय की अलंकृत मीनारें तथा गुम्बज पर्वत की नुकीली चोटियों की तरह परस्पर हिले-मिले हैं। गहरे तथा पारभासी तालाबों के उपर नील कमल खिले हुए हैं जो गहरे लाल रंग के कनक पुष्पों से मिले हैं तथा बीच-बीच में आम के वृक्ष चारों ओर अपनी छाया विखेरते हैं। बाहर की सभी कक्षाएं चार मंजिली हैं।”
- नालन्दा विश्वविद्यालय में स्थित विशाल पुस्तकालय का नाम धर्मगज्ज था जो तीन विशाल भवनों रत्नसागर, रत्नोदधि तथा रत्नरंजक में संचालित था। 9 तल वाले इस विशाल पुस्तकालय में 3 लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। विश्वविद्यालय में आठ बड़े कमरे तथा तीन सौ छोटे कमरे व्याख्यान के लिए बने हुए थे। विश्वविद्यालय लगभग एक मील लम्बे तथा आधा मील चौड़े क्षेत्र में स्थित था।
- नालन्दा विश्वविद्यालय में ताम्रविहार का निर्माण सम्राट हर्षवर्धन ने करवाया था।
- सम्राट हर्षवर्धन ने एक सौ गांव की आय नालन्दा विश्वविद्यालय के निर्वाह के लिए दिया था। इन गांवों के दो सौ गृहस्थ प्रतिदिन कई सौ किलो साधारण चावल, घी और मक्खन नालन्दा विश्वविद्यालय को दान में दिया करते थे।
- नालन्दा विश्वविद्यालय की ख्याति से प्रभावित होकर जावा एवं सुमात्रा के शासक बालपुत्रदेव ने नालन्दा में एक मठ बनवाया तथा उसके निर्वाह के लिए अपने मित्र बंगाल के पाल शासक नरेश देवपाल से पांच गांव दान में दिलवाए थे।
- तिब्बती स्रोतों के मुताबिक, ग्याहरवी शती में नालन्दा पर तन्त्रयान का प्रभाव बढ़ने लगा जिससे इसकी प्रतिष्ठा को काफी ठेस पहुंची।
- हूण शासक मिहिरकुल ने नालन्दा विश्वविद्यालय को सर्वप्रथम क्षति पहुंचाई थी।
- बाहरवीं शती के अन्त में (1199 ई.) मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया। यहां के बौद्ध भिक्षुओं की हत्या कर दी गई तथा बहुमूल्य पुस्तकालय जला दिया गया। इस प्रकार एक ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय का अन्त दुखद हुआ।
- नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों की खोज अलेक्जेंडर कनिंघम ने की।
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