
21 सितम्बर 1752 ई. को जोधपुर के शासक बख्त सिंह की मृत्यु हो गई। बख्त सिंह के बाद उसका पुत्र विजय सिंह जोधपुर के सिंहासन पर बैठा। विजय सिंह अपने जीवन के अंतिम समय में एक सुन्दर युवती पर मोहित हो गया जिसका नाम गुलाबराय था। विजय सिंह ने गुलाबराय को अपने राजमहल में गायिका के रूप में रखा जिसे बाद में रनिवास में ‘पड़दायत’ के रूप में सम्मिलित कर लिया। पड़दायत राजा की उपपत्नी को कहा जाता था, इसके साथ ही पड़दायत नाम के आगे ‘राय’ लगा दिया जाता था। पड़दायतों में भी जो राजा की सबसे प्रिय होती थी वह ‘पासवान’ कहलाती थी।
पासवान गुलाबराय अपने प्रभाव का नाजायज फायदा उठाते हुए विजय सिंह से अनुचित काम करवाने लगी। जब गुलाबराय को कोई पुत्र नहीं हुआ तो उसने गुमान सिंह के पुत्र मानसिंह को गोद लेकर मारवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित करवा दिया। मारवाड़ के सरदारों ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हम एक दासी के दत्तक पुत्र को मारवाड़ का शासक नहीं मान सकते तब विजयसिंह ने शास्त्रों के अनुसार मानसिंह को गोद लेकर उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया।
तत्पश्चात विजयसिंह की मृत्यु के पश्चात स्व. फतहसिंह के दत्तक पुत्र भीम सिंह ने जोधपुर के मेहरानगढ़ किले पर अधिकार कर लिया। जोधपुर के सिंहासन पर बैठते ही भीम सिंह ने सभी विरोधियों को अपने रास्ते हटाना शुरू कर दिया। ऐसे में विजयसिंह के दत्तक पुत्र मानसिंह ने भागकर जालोर के दुर्ग में शरण ली और खुद को मारवाड़ का शासक घोषित किया।
ऐसे में भीम सिंह ने अपनी सेना के साथ जालोर दुर्ग को चोरा तरफ से घेर लिया, लम्बी घेरेबन्दी के बावजूद भी जोधपुर की शाही सेना मानसिंह को कैद करने में नाकाम रही। आखिरकार मारवाड़ की सेना से गिरे हुए मानसिंह ने जालौर दुर्ग छोड़ने का विचार किया। तब जलन्धरपीठ के योगी आयस देवनाथ ने मानसिंह से कहा कि जालौर किले में केवल 4-5 दिन की प्रतिक्षा करो फिर तुम्हें मारवाड़ का राज्य मिल जाएगा।
संयोगवश नाथ संप्रदाय के योगी आयसनाथ देव की यह भविष्यवाड़ी सच सबित हुई। ठीक चार-पांच दिन बाद जोधपुर नरेश भीमसिंह की मृत्यु हो गई। मौके की नजाकत देखते हुए जोधपुर के राज्याधिकारियों ने इन्द्रराज सिंघवी के नेतृत्व में पहले एक संदेश भिजवाया तत्पश्चात मानसिंह को आदर सहित जोधपुर लाकर मारवाड़ की गद्दी पर बैठा दिया।
इस प्रकार मारवाड़ रियासत के उत्तराधिकार युद्ध में भीम सिंह की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात 1803 में मानसिंह मारवाड़ के राठौड़ वंश की गद्दी पर बैठा। नाथ संप्रदाय का अनुयायी होने के कारण राजा मानसिंह को ‘संन्यासी राजा’ भी कहा जाता है। शासक बनने के बाद मानसिंह ने नाथ सम्प्रदाय के योगी ‘आयस देवनाथ’ को अपना राजगुरू स्वीकार किया।
चूंकि मानसिंह एक विद्वान शासक था इसलिए उसने नाथ सम्प्रदाय से जुड़े कई ग्रन्थों की रचना की जिसमें नाथ चरित्र, श्री जालंधर नाथ रो चरित, अनुभव मंजरी, नाथ पुराण, मान विचार, नाथ कीर्तन, जालंधर चंद्रोदय, नाथ वर्णन आदि ग्रन्थों ग्रंथ का नाम शामिल है। इतना ही नहीं शासक मान सिंह ने राजस्थानी भाषा में भागवत पर टीका भी लिखी। मानसिंह डिंगल व पिंगल दोनों ही भाषाओं के जानकार थे।
एक बार मानसिंह के राजकवि बाकी दास ने अपने एक पद में नाथ योगियों के लिए अपशब्द का प्रयोग कर दिया, इससे नाराज होकर मानसिंह ने बाकी दास को देश निकाला दे दिया। इस बात से साबित होता है कि महाराजा मानसिंह नाथ सम्प्रदाय के योगियों से किस हद तक प्रभावित था।
महामन्दिर का निर्माण
नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख जालन्धरनाथ (विशेषकर राजस्थान और पंजाब क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त) को अपना स्वामी मानने वाले योगी आयस देवनाथ की प्रेरणा से महाराजा मानसिंह ने जोधपुर दुर्ग से बाहर मेड़ती दरवाजे से कुछ दूरी पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जो महामंदिर के नाम से विख्यात हुआ।
मानसिंह ने नाथ सम्प्रदाय से जुड़ा यह महामंदिर विशेषरूप से आयस देवनाथ के लिए ही बनवाया था। इस महामंदिर के निर्माण में 10 लाख रूपए से ज्यादा खर्च हुए थे। नाथ सम्प्रदाय के आदिगुरू भगवान शिव को समर्पित यह महामंदिर 1812 ई. में बनकर तैयार हुआ। एक ऊँचे चबूतरे पर निर्मित इस महामंदिर का छत्र 100 कलात्मक स्तम्भों पर टिका हुआ है जिसमें से 16 स्तम्भ गर्भ गृह में तथा शेष 84 स्तम्भ सम्पूर्ण मंदिर में लगे हुए हैं।
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महामंदिर में मुख्य शिखर के अतिरिक्त अन्य कई छोटे-छोटे शिखर हैं जिनमें की गई उत्कृष्ट कारीगरी देखते ही बनती है। महामंदिर के प्रवेशद्वार से ही इसकी भव्यता दिखने लगती है। यहां के संगमरमर निर्मित तोरण द्वार के स्तंभों पर आकर्षक गरुड़ों की मूर्तियां बनी हुई हैं जो आगन्तुकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं। मुख्य परिसर में बने मंदिर व महलों में लगे पत्थरों पर बहुत ही बारीकी से कसीदाकारी की गई है।
नाथ सम्प्रदाय के आदिगुरू और योगियों के लिए समर्पित है यह महामंदिर
आपको बता दें कि नाथ सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य भगवान शिव हैं। हांलाकि इस पंथ में अनेक गुरु हुए लेकिन इनमें 8वीं या 9वीं सदी के योग सिद्ध मत्स्येंद्रनाथ तथा 10वीं या 11वीं शताब्दी में गुरु गोरखनाथ ने सम्पूर्ण देश में बिखरे हुए नाथ सम्प्रदाय को मजबूती प्रदान की। हठ योग और मठवादी गोरखनाथ को इस सम्प्रदाय का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसी क्रम में 12वीं सदी में सिद्ध योगी जालन्धरनाथ ने विशेषकर पंजाब और राजस्थान के क्षेत्र लोकप्रियता प्राप्त की। जालन्धरनाथ की गिनती नवनाथों में होती है। उन्हें मत्स्येंद्रनाथ का समकालीन और गुरुभाई माना जाता है। जोधपुर के महाराजा मान सिंह के गुरू आयस देवनाथ भी योग सिद्ध जालन्धरनाथ जी की पूजा करते थे।
इसी वजह से महामंदिर के गर्भगृह में संगमरमर के सिंहासन पर जालन्धरनाथ की मूर्ति स्थापित है। मंदिर के भीतरी भाग में नाथ सम्प्रदाय के ख्यातिप्राप्त योगियों के तकरीबन 84 चित्र बनाए गए हैं जो योगमुद्रा को दर्शाते हैं। चित्रों में प्राकृतिक रंगों और स्वर्ण नक्काशी का उपयोग किया गया है। सबसे विशेष बात यह है कि महाराजा मान सिंह के राजदरबार के चित्रकारों ने उपरोक्त कलाकारी की है।
महामंदिर से जुड़ी खास बात
नाथ सम्प्रदाय के इस महामंदिर में कई शिलालेख मौजूद हैं जिनमें से एक शिलालेख पर यह उत्कीर्ण है कि मंदिर में शरण लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा करना महामंदिर का कर्तव्य होता था। इस महामंदिर की प्राचीरों पर दुर्ग की तरह तोप और बंन्दूकों के स्थान बने हुए हैं। महामंदिर के विशाल परकोटे में मौजूद कुआं कभी नहीं सूखा यहां तक कि छप्पनियां काल (विक्रम संवत 1956 में राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा था) में भी पूरे जोधपुर शहर को यहीं से पानी जाता था।
‘संन्यासी राजा’ के नाम से विख्यात मान सिंह ने महामंदिर परिसर में दो सुन्दर महल भी बनवाए थे जिनके शीर्ष पर एक छतरी का निर्माण करवाया गया था जहां से खड़े होकर नाथ योगी आयस देवनाथ प्रातःकाल राजा मानसिंह को दर्शन दिया करते थे। महाराजा मान सिंह प्रतिदिन सुबह दुर्ग में स्थित महलों से अपने गुरु आयस देवनाथ के दर्शन करता तत्पश्चात अन्न जल ग्रहण करता था। इतना ही नहीं प्रत्येक सोमवार को महाराजा मान सिंह स्वयं महामंदिर में उपस्थित होकर गुरु को प्रणाम करता। महामंदिर के पास ही महाराजा मानसिंह ने मानसागर तालाब का निर्माण करवाया था जिसमें वह अपने गुरू आयस देवनाथ के साथ नौका विहार किया करता था।
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