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Babur has written about musk melon and Kabul in his autobiography Baburnama

कस्तूरी खरबूजे को देखकर रो पड़ा था मुगल बादशाह बाबर, जानिए क्यों ?

संसार के बहुत कम ग्रन्थों को ‘बाबरनामा’ के समान प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। एल्फिन्स्टन कहता है- ‘बाबर की  विद्वता, सरलता एवं अद्भुत रचनाशैली ने ‘बाबरनामा’ को संसार के प्रमुख साहित्य की श्रेणी में पहुंचा दिया है। वहीं एडवर्ड जी. ब्राउन ने भी इसकी प्रशंसा की है।

‘बाबरनामा’ से ज्ञात होता है कि बाबर दिनभर की अत्यधिक थका देने वाली यात्राओं के बावजूद भी इस संस्मरण को लिखा करता था। ‘बाबरनामा’ के बारे में बाबर लिखता है कि “इस इतिहास में मैं इस बात पर दृढ़ रहा हूं कि हर बात जो लिखूं, वह सच लिखूं और जो घटना जिस प्रकार घटी हो उसका ठीक-ठीक उसी प्रकार से उल्लेख करूं।” हांलाकि बाबर के जीवनकाल के केवल 18 वर्षों का वृत्तांत ही ‘बाबरनामा’ में मिलता है। बाबर ने चुगताई तुर्की भाषा में ‘बाबरनामा’ की रचना की जिसे भारतीय इतिहास में ‘तुजुक-ए-बाबरी’ अथवा ‘तारीख-ए-बाबरी’ के नाम से भी जाना जाता है।

बाबर ने तकरीबन 500 साल पहले दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को साल 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में करारी शिकस्त देकर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। तदुपरान्त उसने फतेहपुर सीकरी के पास स्थित खानवा के विशाल मैदान में राजपूत महायोद्धा महाराणा सांगा को पराजित करके निर्णायक रूप से भारतीय प्रदेशों पर स्वामित्व ग्रहण किया।

उसने अपनी कृति ‘बाबरनामा’ में हिन्दुस्तान और उसके निवासियों के बारे में विस्तार से लिखा है परन्तु उसने अपनी इस आत्मकथा में उस उज्बेक योद्धा शैबानी खां से जुड़े तथ्यों पर पर्दा डालने की कोशिश की है जिसकी वजह से बाबर को अपना देश काबुल छोड़कर दर-बदर भटकना पड़ा, यहां तक कि उसे भारत की तरफ रूख करने पर मजबूर भी होना पड़ा था।

मुगल बादशाह बाबर अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’  में लिखता है कि 1504 ई में बर्फीले तूफान के बीच अपने तीन साथियों को लेकर उसने अपनी मातृभूमि फरगना से चलकर हिन्दूकुश पर्वत को पार करते हुए काबुल में प्रवेश किया और खुद को वहां का शासक घोषित किया। साल 1511 तक उसके राज्य की सीमाएं ताशकंद से काबुल और गजनी तक फैल चुकी थीं जिसमें समरकंद, गोखारा, हिसार, कुंदुज तथा फरगना के प्रदेश भी शामिल थे।

उसने अपनी कृति में चारों तरफ पहाड़ों से घिरे काबुल के फलों की बड़ी तारीफ की है जिसमें अंगूर, अनार, खुमानी, सेब, नाशपाती, बेर, आलूबुखारा, अंजीर और अखरोट जैसे फलों का नाम शामिल है। इतना ही नहीं बाबर ने अपनी आत्मकथा में अफगानिस्तान की गर्म घाटी में पैदा होने वाले गन्ने, संतरे और गलगल का भी उल्लेख किया है।

हांलाकि आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि बाबर अपने चार साल के कार्यकाल (1526-1530 ) में सिंधु से लेकर बंगाल तक यानि पूरे उत्तरी भारत पर कब्जा कर चुका था और भारत के सौन्दर्य से प्रभावित भी था फिर भी वह हमेशा अपने देश काबुल जाने की ही बात सोचता था।

11 फरवरी 1529 ई. को उसने अपने घनिष्ठ मित्र और सलाहकार ख्वाजा कलां को एक पत्र में लिखा कि- “जैसे ही यहां सुव्यवस्था हो जाएगी, अल्लाह ने चाहा तो मैं एक क्षण भी नष्ट किए बिना वहां पहुंच जाउंगा। फिर वह लिखता है कि अभी हाल में लोग मेरे पास एक कस्तूरी खरबूजा लाए। जब मैंने उसको काटा तो मुझमें प्रबल भावना जागी कि मैं अकेला हूं और अपने देश से निर्वासित हो गया हूं। जब मैंने उसको खाया तो मेरे आंसू आए बिना नहीं रहे।

बाबर को आगरा नहीं काबुल में दफनाया गया

इतिहासकार राजकिशोर राजे की किताब ‘तवारीख-ए-आगरा’ के मुताबिक, “उस वक्‍त के मशहूर फकीर अबूबका ने बाबर से अपनी सबसे कीमती वस्‍तु दान करते हुए खुदा से हुमायूं की जिंदगी के लिए दुआ करने को कहा। तब बाबर ने खुद की जिन्दगी को सबसे कीमती बताया और हुमायूं के पलंग की परिक्रमा करते हुए कहा कि हुमायूं की बीमारी उस पर आ जाए। कहते हैं इसके बाद बाबर बीमार पड़ गया और हुमायूं की तबियत सुधरने लगी। जब हुमायूं पूरी तरह स्वस्थ्य हो गया तब 26 दिसम्‍बर 1530 को बाबर की मृत्‍यु हो गई।” वहीं कुछ विद्वानों का मानना है कि बाबर की मृत्यु अत्यधिक शराब पीने के कारण हुई थी।

इतिहासकार राजकिशोर राजे का कहना है कि बाबर की मृत्यु के बाद उसके शव को अस्‍थाई रूप से आगरा स्थित चौबुर्जी में दफनाया गया था। छह माह बाद उसके शव को उसकी इच्‍छानुसार काबुल ले जाकर अंतिम रूप से दफना दिया गया था। बता दें कि वर्तमान में चारबाग का कोई अस्तित्व नहीं बचा है लेकिन यमुना ब्रिज स्टेशन रोड पर स्थित स्मारक चौबुर्जी अभी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है लेकिन उपेक्षित भी है।

 ‘बाग-ए-बाबर’ उद्यान में है बाबर की कब्र

अफगानिस्तान में काबुल स्थित ‘बाग-ए-बाबर’ उद्यान वह स्थान है जहां मुगल बादशाह बाबर को अंतिम रूप से दफनाया गया था। हांलाकि अफगानिस्तान उसकी मातृभूमि नहीं थी, उसका जन्म फरगना (अब उज्बेकिस्तान में पड़ता है) में हुआ था लेकिन उसे काबुल से इतना मोह था कि वह मरने के बाद यहीं दफन होना चाहता था।

जैसा कि पूर्व में ही बता चुके हैं कि वर्ष 1530 में जब बाबर की मृत्यु हुई तो उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध आगरा में दफनाया गया था लेकिन अफगान शासक शेरशाह सूरी ने 1539 से 1544 ई. के बीच उसकी अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए काबुल ले जाकर बाबर के बगीचे में दफनाया जो आज बाग-ए-बाबर गार्डन के नाम से मशहूर है। काबुल के बाग-ए-बाबर स्थित उसकी कब्र के पत्थर पर लिखा है- ‘अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।’

बाग-ए- बाबर उद्यान दक्षिण-पश्चिम काबुल में एक पहाड़ी पर मौजूद है जहां मुगल बादशाह बाबर की कब्र सफेद संगमरमर एक स्क्रीन से घिरी हुई थी। 1990 के दशक में हुए गृह युद्ध और बर्बरता के कारण संगमरमर स्क्रीन तकरीबन नष्ट हो चुकी थी लेकिन साल 2002 से 2006 के बीच इसका पुनर्निर्माण किया गया। कब्र के दक्षिण-पश्चिम में शाहजहाँ ने 1645-46 में एक छोटी मस्जिद बनवाई। इसके अलावा उसने बगीचे की केंद्रीय धुरी से फव्वारों का भी पुनर्निर्माण करवाया। बाग-ए-बाबर में मुगल बादशाह बाबर की पोती रुकैया सुल्तान बेगम (मृत्यु 1626 ई.) की भी कब्रगाह है।

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