आज हम अपनी इस स्टोरी में भारत में पान की उत्पत्ति और इसकी लोकप्रियता से जुड़े तथ्यों के बारे में प्रकाश डालना चाहते हैं। यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि भारत के सभी हिस्सों में इसका प्रचार चिरकाल से जारी है। पान प्रत्येक भारतीय के नस-नस में समाहित है, जैसे- मंगलकार्य में, उत्सवों में, देवपूजन तथा विवाह आदि शुभकार्यों के अतिरिक्त अतिथियों के स्वागत में भी पान के बीड़ों का प्रयोग सनातन काल से चला आ रहा है। अब समझ चुके होंगे कि हिन्दू संस्कृति में पान यानि ताम्बूल का कितना व्यापक और महत्वपूर्ण स्थान है। ताम्बूल शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘तम्र’ शब्द हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है तांबा। चूंकि पान में कत्था के कारण रंग लाल हो जाता है, इसलिए इसे ताम्बूल कहा गया। इससे इतर यदि हम साहित्यक तत्थ्यों की बात करें तो पुराणों, संस्कृत साहित्य तथा स्थानीय भाषा के ग्रंथों में ताम्बूल (पान) के वर्णन भरे पड़े हैं।
स्कंद पुराण में वर्णन मिलता है कि समुद्र मंथन के बाद भगवान धनवंतरि के कलश को राजा इन्द्र के दिव्य नंदन कानन उद्यान में रखा गया था। इद्र के वाहन ऐरावत ने गलती से अपने पैर की ठोकर से घड़ा तोड़ दिया और उसमें से हरे पत्तों वाली एक लता निकली। भगवान धनवंतरि आए, उन्होंने लता का नाम नागवल्ली या 'सुपारी' रखा और कहा, "इस पान में कामुक प्रेम निवास होगा। इस पान के पत्ते को सुपारी, नींबू पाउडर और खदीरा (कत्था) के साथ मिलाया जाना चाहिए और इसे ताम्बूल कहा जाना चाहिए। कालान्तर में वाणीवत्सरक नाम के एक राजा ने भगवान इंद्र को प्रसन्न किया और उपहार के रूप में पान प्राप्त किया। पान की शक्ति के कारण वृद्धावस्था के बावजूद राजा की वासना बढ़ती गई। राजा धरती पर लौटे, पान का पत्ता लगाया और जल्द ही यह दुनियाभर में लोकप्रिय हो गया।
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक सन् 2023 से करीब 15 करोड़, 5 लाख, 33 हजार एक सौ 23 वर्ष पहले चाक्षुष मन्वन्तर में हुए समुद्र मंथन की बात छोड़ दें तो भी त्रेता तथा द्वापर युग में पान का जिक्र मिलता है। शिवपुराण में भी पान का उल्लेख ताम्बूल और पुंगीफल के रूप में कई बार किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस के ‘बालकाण्ड’ दोहा संख्या-329 में भगवान राम और सीता के विवाह के बाद मिथिला नरेश जनक जी के द्वारा पान देकर अयोध्या के चक्रवर्ती राजा दशरथ तथा बारातियों के स्वागत का वर्णन मिलता है, जो इस प्रकार है-
देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥
भावार्थ- पान देकर जनकजी ने समाज सहित दशरथजी का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर (चक्रवर्ती) श्री दशरथजी प्रसन्न होकर जनवासे (बारातियों के ठहरने का स्थान) को चले॥329॥
रामायण की एक अन्य कथा के मुताबिक जब हनुमान जी अपने प्रभु श्रीराम का संदेश लेकर पहली बार लंका के अशोक वाटिका में माता सीता से मिलते हैं तो संदेश पाकर अतिप्रसन्न माता सीता ने हनुमान जी को पान के पत्तों की माला बनाकर भेंट के रूप में दी थी। और इसी धारणा को मानते हुए तभी से भगवान हनुमान को पान के पत्ते चढ़ाने का रिवाज शुरू हुआ था।
वहीं द्वापर युग में महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद जब अर्जुन यज्ञ का आयोजन करते हैं तो उनसे ब्राह्मण पान के पत्ते पूजा के लिए मंगवाते हैं, इस दौरान अर्जुन को नागलोक से पान के पत्ते की प्राप्ति होती है। तभी से पान के पत्ते को नागरबेल भी कहा जाने लगा।
उपरोक्त पौराणिक तथ्यों से इतर यदि हम उत्तर वैदिक काल की बात करें तो शाक्त तंत्रों (संगमतंत्र-कालीखंड) में ताम्बूल को सिद्धि प्राप्ति में सहायक माना गया है। इसके साथ ही जप में तांबूल-चर्वण और दीक्षा के दौरान गुरु को बिना ताम्बूल समर्पित किए सिद्धि नहीं मिलने का उल्लेख मिलता है। पांचवी शताब्दी के उत्तरार्ध के कई अभिलेखों में भी पान का प्रचुर उल्लेख मिलता है।
लगभग 600 ईसा पूर्व दंत शल्य चिकित्सा के विशेषज्ञ सुश्रुत ने ‘सुश्रुत संहिता’ की रचना की। चूंकि इस ग्रन्थ में बौद्ध धर्म से सम्बंधित अनेक शब्दों का भी उपयोग किया गया है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ बौद्ध धर्म के प्रचलन में आने के बाद ही लिखा गया होगा। सुश्रुत संहिता मुख्य रूप से शल्य चिकित्सा ज्ञान से संबंधित है। सुश्रुत संहिता के अनुसार पान न केवल मुंह के दुर्गन्ध को दूर कर पाचन शक्ति को बढ़ाता है, बल्कि कुचली ताजी पत्तियों का लेप कटे-फटे व घाव के सड़न को भी रोकता है। इसके अतिरिक्त पान गले की खरास एवं खिचखिच को दूर करने में भी कारगर है।
कथा सरित्सागर तथा बृहत्कथा श्लोक में उल्लेख है कि कौशाम्बी नरेश उदयन ने ताम्बुल लता को नागों से दहेज में प्राप्त किया था। मध्यकाल में राजाओं और महाराजाओं के हाथ से तांबूल प्राप्ति को कवि, विद्वान, कलाकार आदि बहुत बड़ी प्रतिष्ठा की बात मानते थे। यहां तक कि हिंदी की रीतिकालीन कविता में भी तांबूल को सौंदर्यवर्धक, शोभाकारक, मादक और उद्दीपक रूप में भी वर्णित किया गया है।
हिन्दू धर्म में ताम्बूल का कुछ इस तरह से महिमामंडन किया गया है-पान के पत्ते के शीर्ष भाग में शुक्र और इंद्र का वास है जबकि मध्य भाग में देवी सरस्वती विद्यमान हैं। देवी महालक्ष्मी निचले सिरे पर विराजमान हैं। पान के पत्ते को तने से जोड़ने वाला भाग ज्येष्ठा लक्ष्मी का घर होता है। पत्ते के अंदर भगवान विष्णु का वास होता है। पत्ते के बाहर कामदेव और भगवान शिव का वास है। बाईं ओर मांगल्य देवी और देवी पार्वती रहती हैं। भूमिदेवी या धरती माता दाहिनी ओर स्थित हैं वहीं पत्ते के चारों ओर भगवान सूर्यनारायण की उपस्थिति मानी जाती है।
मोरक्को के प्रदेश तानजीर का निवासी इब्नबतूता चौदहवीं शताब्दी का बड़ा ही महत्वपूर्ण यात्री था जो सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में भारत आया था। इब्नबतूता अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘रेहला’ (किताब-उल-रहला) में पान का विवरण देते हुए लिखता है कि, “हिन्दुस्तान में पान का बड़ा महत्व था। पान का एक बीड़ा भी प्रस्तुत करना सोना-चांदी देने से अधिक सम्मानित था। यदि किसी व्यक्ति को अतिथि द्वारा एक साथ पांच पान के बीड़े प्रस्तुत किए जाएं तो यह अत्यधिक सम्मानित माना जाता था।”
उपरोक्त वर्णन के अतिरिक्त भारत में पान की अति लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नाम हैं, जैसे- तमलपाकु (तेलुगु), वेत्रिलई (तमिल), कवला (कन्नड़), बीडा/ पान (हिंदी), विद्याचे पान, नागिनिच पान (मराठी), वेटिला (मलयालम)। पान (बंगाली), तमुल (असामी), नागरवेल ना पान (गुजराती) इत्यादि।