चुनार का किला उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है। कैमूर पहाड़ियों के पास गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर मौजूद चुनार का किला वाराणसी से 23 किमी. की दूरी पर है। चुनार का किला भारतीय इतिहास में चुनारगढ़ व चरणाद्रि आदि कई नामों से विख्यात है। चुनार किले के बारे में कभी कहा गया था कि “जिसने चुनार किले को अपने अधीन कर लिया उसने भारत के भाग्य को भी नियंत्रित किया।” चुनार किले पर भारतीय इतिहास के जिन ताकतवर शासकों का अधिकार रहा, इनके नाम हैं- राजा बलि, राजा विक्रमादित्य, राजा भर्तृहरि, बुन्देलखण्डी महानायक आल्हा, पृथ्वीराज चौहान, मुहम्मद गोरी, बाबर, हुमायूं, अकबर, औरंगजेब, इस्लाम शाह, मुहम्मदशाह शर्की, नवाब शुजाउद्दौला, राजा चैत सिंह तथा गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स। इन सभी के अतिरिक्त एक नाम महान शासक शेरशाह सूरी का भी है जिसने चुनार किले पर कब्जा करके हिन्दुस्तान की बादशाहत हासिल की। चुनार का किला शेरशाह सूरी के लिए किस प्रकार से भाग्य विधाता साबित हुआ? यह जानने के लिए इस स्टोरी को जरूर पढ़ें।
शेरशाह सूरी
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद था। उसका प्रारम्भिक जीवन बड़ा ही कष्टपूर्वक व्यतीत हुआ। शेरशाह का पिता हसन खां जौनपुर का एक छोटा जागीरदार था। दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी ने फरीद द्वारा एक शेर मारने के कारण उसे ‘शेर खान’ की उपाधि दी थी तथा अपने पुत्र जलाल खां का संरक्षक नियुक्त किया।
शेर खां यानि शेरशाह सूरी चन्देरी के युद्ध में बाबर की सेना की तरफ से लड़ा था। उसी समय शेर खान ने कहा था- “अगर भाग्य ने मेरा साथ दिया तो मैं बड़ी सरलता से इन मुगलों को एक दिन हिन्दुस्तान से बाहर खदेड़ दूंगा।”
बहार खां लोहानी की मृत्यु के बाद उसकी विधवा दूदू बेगम से विवाह करके वह दक्षिण बिहार का स्वामी बन गया। इसके बाद बंगाल के शासक नुसरतशाह को पराजित करके शेर खान ने ‘हजरत-ए-आला’ की उपाधि धारण की। तत्पश्चात शेरशाह सूरी की नजर चुनार किले के अकूत खजाने पर पड़ी जिसने उसकी किस्मत बदल दी।
शेरशाह सूरी के हाथ लगा चुनार किले का अकूत खजाना
शेरशाह सूरी के लिए चुनार किले का महत्व इस कारण था कि इसमें इब्राहिम लोदी का अकूत खजाना ताजखान सारंगखानी की हिजाफत में रखा गया था। पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी की मृत्यु के बाद ताजखान अपनी निष्ठा बदलकर बाबर के पक्ष में चला गया था। ताजखान सारंगखानी के निधन के पश्चात शेर खान यानि शेरशाह सूरी ताजखान की विधवा लाड मलिका से विवाह करने में सफल रहा। इस प्रकार साल 1529 ई. में चुनार किले के साथ ही इसमें रखा अकूत खजाना, दोनों ही शेरशाह सूरी के नियंत्रण में आ गए।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक, चुनार के किले से शेरशाह सूरी को 2000 किलो सोना तथा 280 किलो मोती मिला था। इतनी अकूत सम्पत्ति ने शेरशाह सूरी को हिन्दुस्तान के ताकतवर लोगों की श्रेणी ला खड़ा किया। इसी अकूत सम्पत्ति के दम पर शेरशाह सूरी ने दिल्ली को जबरदस्त टक्कर दी और आखिर में हुमायूं को हिन्दुस्तान से बाहर खदेड़ दिया।
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चुनार किले पर हुमायूं का आक्रमण
जब शेरशाह सूरी ने बिहार से लेकर बंगाल तक अपनी सीमाओं का विस्तार कर लिया तब बादशाह हुमायूं एकदम से चौकन्ना हो गया। उसने शेरशाह सूरी पर अंकुश लगाने के लिए पूर्व की तरफ कूच किया। साल 1537 के अक्टूबर महीने में हुमायूं ने चुनारगढ़ का घेरा डाला जहां शेरशाह सूरी का पुत्र कुतुब खान अपने पिता की योजनानुसार हुमायूं को अधिक से अधिक समय तक रोकने का निश्चय कर रखा था। छह माह के पश्चात हुमायूं ने मार्च 1538 ई. में तोपखाने की मदद से चुनार किले पर अधिकार कर लिया।
हुमायूं ने चुनार से शेरशाह सूरी के बेटे कुतुब खान को बंदी बनाकर 500 सैनिकों के साथ आगरा भेज दिया। हुमायूं जब मालवा में फंसा हुआ था तब कुतुब खान भाग निकला और अपने पिता से जा मिला। जब शेरशाह सूरी ने बंगाल पर आक्रमण किया तब वहां का शासक गयासुद्दीन महमूद भाग निकला और गौर में छिप गया तथा हुमायूं से सहायता की याचना की। वहीं दूसरी तरफ चुनार किले पर घेरा डालने में हुमायूं छह महीने का अपना बहुमूल्य समय पहले ही गंवा चुका था।
इस दौरान शेरशाह सूरी ने हुमायूं को बातचीत में उलझाए रखा और अप्रैल 1538 ई. में गौर पर अधिकार कर लिया। बंगाल जाते समय शेरशाह सूरी ने हुमायूं को मार्ग में तब तक उलझाए रखा जबतक कि गौर का खजाना रोहतास दुर्ग में सुरक्षित नहीं पहुंचा दिया गया। गौर पहुंचने के बाद हुमायूं ने गौर की जागीर को अपने अधिकारियों में बांट दिया और रंगरेलिया मनाने में व्यस्त हो गया।
हुमायूं जब गौर में रंगरेलिया मना रहा था, तब शेरशाह सूरी ने अपने समर्थकों को एकत्र कर चुनार, बनारस, जौनपुर, कन्नौज और पटना पर अधिकार कर लिया। अब हुमायूं के लौटने के मार्ग को शेरशाह सूरी अवरूद्ध करने को तैयार बैठा था।
चौसा में हुमायूं की करारी शिकस्त
हुमायूं को गौर से आगरा लौटने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि एक तो मलेरिया के कारण बड़ी संख्या में मुगल सैनिक तथा विषम जलवायु के कारण उसके कई घोड़े मर गए थे। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि हुमायूं के भाई हिन्दाल ने विद्रोह कर दिया था तथा स्वयं को पादशाह घोषित कर दिया। इतना ही नहीं, कामरान ने भी दिल्ली से आगरा की तरफ कूच कर दिया था। ऐसे में हुमायूं बड़ी तेजी से आगरा की तरफ लौटा परन्तु 1539 ई. में चौसा के निकट एक रात शेरशाह सूरी के अचानक हमले में मुगल सेना बुरी तरह पराजित हुई।
कर्मनासा नदी को पार करने के प्रयास में मुगलों के हजारों घोड़े डूब गए या मारे गए। स्वयं हुमायूं का घोड़ा भी डूब गया, एक भिश्ती ने उसकी रक्षा की। इस हमले में अफगानों के हाथ बड़ी मात्रा में लूट का माल और हरम की स्त्रियां मिली परन्तु मुगल स्त्रियों को शेरशाह सूरी ने सम्मानपूर्वक हुमायूं के पास पहुंचा दिया। चौसा विजय के बाद शेरशाह सूरी ने पादशाह का सम्पूर्ण दायित्व ले लिया और अपने नाम के सिक्के ढलवाए।
कन्नौज युद्ध के बाद हुमायूं को हिन्दुस्तान से खदेड़ा
चौसा की पराजय से हुमायूं की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। अनेक मुगल उमरा उसके विरूद्ध हो चुके थे। कामरान भी लाहौर लौट चुका था। इसके बाद हुमायूं ने कन्नौज की तरफ कूच किया ताकि शेरशाह पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके। हुमायूं ने गंगा नदी पारकर दक्षिणी तट पर शेरशाह से युद्ध करने की पुरानी भूल दोहराई।
इस प्रकार हुमायूं ने अपने लौटने का मार्ग स्वयं अवरूद्ध कर लिया। वर्षा के कारण हुमायूं की तोपें पानी में डूब गईं और जब मुगल सैनिक तोपों को अन्यत्र स्थान पर ले जाने का प्रयास कर रहे थे तभी अफगानों ने आक्रमण कर दिया। 1540 ई. में कन्नौज के निर्णायक युद्ध में मुगलों की पराजय हुई। इसके बाद शेरशाह सूरी ने हिन्दुस्तान पर अपनी प्रभुता दृढ़तापूर्वक स्थापित कर लिया और अगले पन्द्रह वर्षों के लिए हुमायूं को इस देश से निष्कासित रहना पड़ा।
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